ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
उ॒त त्यं च॑म॒सं नवं॒ त्वष्टु॑र्दे॒वस्य॒ निष्कृ॑तम्। अक॑र्त च॒तुरः॒ पुनः॑॥
स्वर सहित पद पाठउ॒त । त्यम् । च॒म॒सम् । नव॑म् । त्वष्टुः॑ । दे॒वस्य॑ । निःऽकृ॑तम् । अक॑र्त । च॒तुरः॑ । पुन॒रिति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत त्यं चमसं नवं त्वष्टुर्देवस्य निष्कृतम्। अकर्त चतुरः पुनः॥
स्वर रहित पद पाठउत। त्यम्। चमसम्। नवम्। त्वष्टुः। देवस्य। निःऽकृतम्। अकर्त। चतुरः। पुनरिति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 1; अध्याय » 2; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
कस्यैतत्करणे सामर्थ्यं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः
यदा विद्वांसस्त्वष्टुर्देवस्य त्यं तं निष्कृतं नवं चमसमिदानींतनं प्रत्यक्षं दृष्ट्वोत पुनश्चतुरोऽकर्त्त कुर्वन्ति तदानन्दिता जायन्ते॥६॥
पदार्थः
(उत) अपि (त्यम्) तम् (चमसम्) चमन्ति भुञ्जते सुखानि येन व्यवहारेण तम्। (नवम्) नवीनम् (त्वष्टुः) शिल्पिनः (देवस्य) विदुषः (निष्कृतम्) नितरां सम्पादितम् (अकर्त्त) कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्, मन्त्रे घसह्वरणश० इति च्लेर्लुक्, वचनव्यत्ययेन झस्य स्थाने तः, छन्दस्युभयथा इत्यार्धधातुकं मत्वा गुणादेशश्च। (चतुरः) चतुर्विधानि भूजलाग्निवायुभिः सिद्धानि शिल्पकर्माणि (पुनः) पश्चादर्थे॥६॥
भावार्थः
मनुष्याः कस्यचित् क्रियाकुशलस्य शिल्पिनः समीपे स्थित्वा तत्कृतिं प्रत्यक्षीकृत्य सुखेनैव शिल्पसाध्यानि कार्य्याणि कर्त्तुं शक्नुवन्तीति॥६॥
हिन्दी (4)
विषय
उक्त कार्य्य के करने में किसका सामर्थ्य होता है, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है।
पदार्थ
जब विद्वान् लोग जो (त्वष्टुः) शिल्पी अर्थात् कारीगर (देवस्य) विद्वान् का (निष्कृतम्) सिद्ध किया हुआ काम सुख का देनेवाला है, (त्यम्) उस (नवम्) नवीन दृष्टिगोचर कर्म को देखकर (उत) निश्चय से (पुनः) उसके अनुसार फिर (चतुरः) भू, जल, अग्नि और वायु से सिद्ध होनेवाले शिल्पकामों को (अकर्त्त) अच्छी प्रकार सिद्ध करते हैं, तब आनन्दयुक्त होते हैं॥६॥
भावार्थ
मनुष्य लोग किसी क्रियाकुशल कारीगर के निकट बैठकर उसकी चतुराई को दृष्टिगोचर करके फिर सुख के साथ कारीगरी काम करने को समर्थ हो सकते हैं॥६॥
विषय
उक्त कार्य्य के करने में किसका सामर्थ्य होता है, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है।
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
यदा विद्वांसः त्वष्टुः देवस्य त्यं तं निष्कृतं नवं चमसम् इदानीम् तनं प्रत्यक्षं दृष्ट्वा उत पुनः चतुरःअकर्त्त कुर्वन्ति तद् आनन्दिता जायन्ते॥६॥
पदार्थ
(यदा)=जब, (विद्वांसः)=विद्वान् लोग, (त्वष्टुः) शिल्पिनः=शिल्पी, (देवस्य) विदुषः=विद्वानों का, (त्यम्) तम्=उसको, (निष्कृतम्) नितरां सम्पादितम्=अच्छी तरह से सम्पादित किये हुए, (नवम्) नवीनम्=सबसे नवीन, (चमसम्) चमन्ति भुञ्जते सुखानि येन व्यवहारेण तम्= जिस व्यवहार में सुख से भोग करते हैं, (इदानीम्)=अब, (तनम्)=भी, विस्तार करने को, (प्रत्यक्षम्)=प्रत्यक्ष को, (दृष्ट्वा)=देख कर, (उत) =के बाद, (अपि)=भी, (पुनः) पश्चादर्थे=फिर, (चतुरः) चतुर्विधानि भूजलाग्निवायुभिः सिद्धानि शिल्पकर्माणि=चार प्रकार से भूजल, अग्नि और वायु के द्वारा शिल्प कर्मों को सिद्ध करते हैं, (अकर्त्त) कुर्वन्ति=करते हैं, (तद्)=उससे, (आनन्दिता)=आनन्दित, (जायन्ते)=हो जाते हैं॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
मनुष्य लोग किसी क्रियाकुशल कारीगर के निकट बैठकर उसकी चतुराई को दृष्टिगोचर करके फिर सुख के साथ कारीगरी काम करने को समर्थ हो सकते हैं॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
(यदा) जब (विद्वांसः) विद्वान् लोग (त्वष्टुः) और शिल्पी (देवस्य) विद्वानों के (त्यम्) उस कर्म के द्वारा (निष्कृतम्) और अच्छी तरह से सम्पादित किये हुए (नवम्) सबसे नवीन कर्मों के (चमसम्) जिस व्यवहार में सुख से भोग करते हैं। (इदानीम्) अब (तनम्) विस्तार करने को (प्रत्यक्षम्) प्रत्यक्ष कर्म को (दृष्ट्वा) देख कर (उत) उसके बाद (अपि) भी (पुनः) फिर (चतुरः) चार प्रकार के साधनों से भूजल, अग्नि और वायु के द्वारा शिल्प कर्मों को सिद्ध (अकर्त्त) करते हैं और (तद्) उससे (आनन्दिता) आनन्दित (जायन्ते) हो जाते हैं॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (उत) अपि (त्यम्) तम् (चमसम्) चमन्ति भुञ्जते सुखानि येन व्यवहारेण तम्। (नवम्) नवीनम् (त्वष्टुः) शिल्पिनः (देवस्य) विदुषः (निष्कृतम्) नितरां सम्पादितम् (अकर्त्त) कुर्वन्ति। अत्र लडर्थे लुङ्, मन्त्रे घसह्वरणश० इति च्लेर्लुक्, वचनव्यत्ययेन झस्य स्थाने तः, छन्दस्युभयथा इत्यार्धधातुकं मत्वा गुणादेशश्च। (चतुरः) चतुर्विधानि भूजलाग्निवायुभिः सिद्धानि शिल्पकर्माणि (पुनः) पश्चादर्थे॥६॥
विषयः- कस्यैतत्करणे सामर्थ्यं भवतीत्युपदिश्यते।
अन्वयः- यदा विद्वांसस्त्वष्टुर्देवस्य त्यं तं निष्कृतं नवं चमसमिदानींतनं प्रत्यक्षं दृष्ट्वोत पुनश्चतुरोऽकर्त्त कुर्वन्ति तदानन्दिता जायन्ते॥६॥
भावार्थः(महर्षिकृतः)- मनुष्याः कस्यचित् क्रियाकुशलस्य शिल्पिनः समीपे स्थित्वा तत्कृतिं प्रत्यक्षीकृत्य सुखेनैव शिल्पसाध्यानि का कर्त्तुं शक्नुवन्तीति॥६॥
विषय
एक के चार
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार ऋभु सोम का रक्षण करते हैं , (उत) - और (त्वष्टुः देवस्य) - त्वष्टा देव के , प्रभु ही त्वष्टा हैं "त्विषेर्वा स्याद् दीप्तकर्मणः" वे सब ज्ञानों से दीप्त हैं , "त्विक्षतेर्वा स्यात् करोति कर्मणः" - वे प्रभु सारे ब्रह्माण्ड के रचनेवाले हैं , हमारे इन शरीररूप पिण्डों के बनानेवाले भी वे प्रभु ही हैं , उस त्वष्टा देव के (निष्कृतम्) - [निः शेषेण सम्पादितम्] पूर्णरूप से बनाये हुए , अर्थात् जिसमें किसी प्रकार की कमी नहीं है (त्यम्) - उस (नवम्) - नवीन अथवा स्तुत्य (चमसम्) - इस शरीररूप पात्र को ये ऋभु (पुनः) - फिर (चतुरः) - चतुर्धाविभक्त (अकर्त) - कर देते हैं ।
२. शरीररूप पात्र एक है । भिन्न - भिन्न अङ्गों से बना हुआ यह एक शरीर है जैसे भिन्न - भिन्न प्रान्तों से बना हुआ एक राष्ट्र होता है । यद्यपि यह शरीर एक है , तो भी ये ऋभु इस शरीर को चार भागों में बाटकर चार साधनाएँ करते हैं - [क] ये शरीर के मुख के भाग को ' ब्रह्माण्ड' बनाते हैं , ऊँचे - से - ऊँचा ज्ञान प्राप्त करनेवाला बनाते हैं । इस भाग में स्थित इनकी सभी इन्द्रियाँ ज्ञान - प्राप्तिरूप कार्य में लगी रहती हैं । [ख] भुजाओं व छाती के भाग को ये ' क्षत्रिय' बनाते हैं । भुजाओं में बल का सम्पादन करके ये रक्षा के कार्य में तत्पर होते हैं । [ग] इनका उदरभाग जैसे शरीर में सब रुधिर का निर्माण करता है , उसी प्रकार ये ' धन' के उत्पादन के लिए प्रयत्नशील होते हैं , इस प्रकार उनका यह शरीरभाग "वैश्य' हो जाता है । [घ] निरन्तर श्रम करते हुए पाँवों से यह ' शूद्र' होता है , ' शु द्रवति' शीघ्रता से यह कर्म करनेवाला होता है । ३. इस प्रकार इस शरीर के अङ्ग क्रमशः ' ज्ञान , बल , धन व श्रम' का अर्जन करते हुए इस एक शरीरवाले होते हुए को चारवाला कर देते हैं - यही है एक का चार कर देना ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु प्रभु के बनाये इस पूर्ण व स्तुत्य शरीर को एक होते हुए को भी ज्ञान , बल , धन व श्रम का अर्जन करनेवाला बनाकर चतुर्धा विभक्त कर देते हैं ।
विषय
देवकृत चमस का वर्णन
भावार्थ
(उत) और (देवस्य) दानशील, सब पदार्थों के द्रष्टा, विद्वान् ( त्वष्टुः ) शिल्पी के ( निष्कृतम् ) उत्तम रीति से बनाये गये शिल्प कार्य को देखकर जिस प्रकार अन्य शिल्पी उसके अनुकरण में और बहुत से पदार्थ बना लेते हैं उसी प्रकार ( देवस्य त्वष्टुः ) सबको ज्ञान और चेतना देनेवाले परमेश्वर के (त्यं) उस जगत्-प्रसिद्ध, ( नवं ) सदा नवीन, एवं सदा स्तुतियोग्य, ( चमसम्) सुखादि प्राप्त करने योग्य ( निष्कृतम् ) सब प्रकार से उत्तम रीति से बने, सुसम्पादित वेद ज्ञान को ( पुनः ) फिर ज्ञान विज्ञान कर्म और उपासना भेद से ( चतुरः ) चार रूपों से (अकर्त्त) साक्षात् करते हैं । अध्यात्म में—मुख्य एक प्राणरूप चमस को नाना प्राणों ने चक्षु, घ्राण, मुख और कान रूप से चार चार प्रकार से विभक्त किया है । इसी प्रकार सूर्य रूप महाचमस को दिशा और ऋतुभेद से चार प्रकार का कल्पित किया है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
१—८ मेधातिथि: काणव ऋषिः ॥ देवता—ऋभवः ॥ छन्दः—३ विराड् गायत्री । ४ निचृद्गायत्री । ५,८ पिपीलिकामध्या निचृद्गायत्री ॥ १, २, ६, ७ गायत्री ॥ षड्जः ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
माणसे जेव्हा एखाद्या क्रियेत कुशल असणाऱ्या कारागिराजवळ राहून प्रत्यक्ष त्याची कृती पाहतात तेव्हा चतुराईने कारागिराचे काम करण्यास समर्थ होऊ शकतात. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
When the scholars see a new work of discovery or invention created by Tvashta, a brilliant sophisticated creator of new forms, they advance the work further to fourfold dimensions with the energy of earth, water, fire and wind.
Subject of the mantra
Who is competent to accomplish aforesaid deed, this subject has been preached in this mantra.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
(yadā)=when, (vidvāṃsaḥ)=scholars, Tvashtu=artisan, (devasya)=of experts, (tvaṣṭuḥ)=and to that work, (niṣkṛtam)=well accomplished, (tyam)=by that work, (navam)=newest work, (camasam)=the practice in which enjoy with pleasure, (idānīm)=now, (tanam)=to expand, (pratyakṣam)=to evident deed, (dṛṣṭvā)=having seen, Uta=afterwards, (api)=also, (punaḥ)=afterwards, (caturaḥ)=accomplish craft work through four means i.e. geo water, fire and air, (tad)=by that, (ānanditā)=happy, (jāyante)=become, (akartta)=do,
English Translation (K.K.V.)
When the scholars, by that work of the expert artisans; by well accomplished; by newest work and by the practice in which they enjoy with pleasure. Now having seen that evident work to expand and afterwards also, accomplish craft work through four means i.e. geo, water, fire and air and become happy.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
Human beings can sit near a skilled craftsman and see his cleverness and then be able to do workmanship with pleasure.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Who is able to do it, is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
When learned persons see with their own eyes the pleasing and new accomplished work of an artist scholar which confers happiness on all, they make it again fourfold by accomplishing works of art made with the earth, water, fire and air.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(चमसम् ) चमन्ति भुंजते सुखानि येन तं व्यवहारम् । = The dealing or the work which confers happiness. (त्वष्टु:) शिल्पिन:= Of an artist. (चतुरा) चतुर्विधानि भूजलाग्निवायुभिः सिद्धानि शिल्पकर्माणि । = The works of art made with the help of the earth, water, fire and air.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men can easily accomplish works of art by associating themselves with (or sitting at the feet of ) an expert artist, having observed his work minutely.
Translator's Notes
Sayanacharya commenting on, the Mantra says त्वष्टुः तक्षणव्यापारकुशलस्य त्वष्टुः शिष्या ऋभवः तेन निर्मित तम् चमसं पुनरपि चतुरः अर्कत || Which Wilson translates as- "The Ribhus have divided into four the new ladle, the work of the divine Twashtri. Griffith also translates in the same way. "The sacrificial ladle wrought newly by the God Twashta's hand. Four ladles have Ye made thereof." There is no sense in it, while as Rishi Dayananda's interpretation is very significant denoting that when an expert artisan makes some articles, his disciples should try to multiply it by the proper application of the earth, water, fire and air. This is the method of technical progress. The word तवष्टा has been interpreted by Rishi Dayananda as शिल्पी an artist or artisan. It is derived from त्वक्षू-तनूकरणे So the meaning given by Rishi Dayananda is denoted by the root. Sayanacharya also indicates this root meaning saying तक्षणव्यापार कुशलस्य त्वष्टु: Expert in carpentry etc. has been interpreted by Rishi Dayananda as विदुष: for which there is clear authority in the Shatapath Brahmana विद्वांसो हि देवाः ( शतपथ ० ३. ७.३.१० )
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Manuj Sangwan
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal