ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 6
त्वां ह॒ त्यदि॒न्द्रार्ण॑सातौ॒ स्व॑र्मीळ्हे॒ नर॑ आ॒जा ह॑वन्ते। तव॑ स्वधाव इ॒यमा स॑म॒र्य ऊ॒तिर्वाजे॑ष्वत॒साय्या॑ भूत् ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । ह॒ । त्यत् । इ॒न्द्र॒ । अर्ण॑ऽसातौ । स्वः॑ऽमीळ्हे । नरः॑ । आ॒जा । ह॒व॒न्ते॒ । तव॑ । स्व॒धा॒ऽवः । इ॒यम् । आ । स॒ऽम॒र्ये । ऊ॒तिः । वाजे॑षु । अ॒त॒साय्या॑ । भू॒त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वां ह त्यदिन्द्रार्णसातौ स्वर्मीळ्हे नर आजा हवन्ते। तव स्वधाव इयमा समर्य ऊतिर्वाजेष्वतसाय्या भूत् ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। ह। त्यत्। इन्द्र। अर्णऽसातौ। स्वःऽमीळ्हे। नरः। आजा। हवन्ते। तव। स्वधाऽवः। इयम्। आ। सऽमर्ये। ऊतिः। वाजेषु। अतसाय्या। भूत् ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 6
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैरीश्वरसभाध्यक्षयोः सहायः क्व क्व प्रेप्सितव्य इत्युपदिश्यते ॥
अन्वयः
हे स्वधाव इन्द्र जगदीश्वर सभाद्यध्यक्ष ! नरस्त्यन्नर्णसातौ स्वर्मीढ आजौ त्वां ह खल्वाहवन्ते। यतस्तव येयं समर्य्ये वाजेष्वतसाय्योतिर्वर्त्तते साऽस्मान् प्राप्ता भूत् ॥ ६ ॥
पदार्थः
(त्वाम्) जगदीश्वरं सभाध्यक्षं वा (ह) खलु (त्यत्) तस्मिन् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (अर्णसातौ) अर्णानां विजयप्रापकाणां योद्धॄणां सातिर्यस्मिंस्तस्मिन् (स्वर्मीढे) स्वः सुखस्य मीढः सेचनं यस्मिन् तस्मिन्। (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्याः (आजा) संग्रामे (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते प्रेप्सन्ते (तव) (स्वधावः) प्रशस्तं स्वधान्नं विद्यते तस्य तत्सम्बुद्धौ (इयम्) वक्ष्यमाणा (आ) अभितः (समर्य्ये) संग्रामे (ऊतिः) रक्षणादिका (वाजेषु) विज्ञानान्नसेनादिषु (अतसाय्या) अतन्ति निरन्तरं सुखानि गच्छन्ति यया सा। अत्रातधातोर्बाहुलकादौणादिक आय्यप्रत्ययोऽसुगागमश्च। सायणाचार्य्येणेदं पदमतधातोराय्यप्रत्ययं वर्जयित्वा साय्यप्रत्ययान्तरं कल्पित्वाऽडागमेन व्याख्यातं तदशुद्धम् (भूत्) भवतु ॥ ६ ॥
भावार्थः
अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वेषु धर्म्यकार्येषु कर्तव्येष्वीश्वरस्य सभाध्यक्षस्य च सहायं नित्यं सङ्गृह्य कार्य्यसिद्धिः कर्त्तव्या ॥ ६ ॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर मनुष्यों को ईश्वर और सभापति आदि के सहाय की इच्छा कहाँ-कहाँ करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥
पदार्थ
हे (स्वधावः) उत्तम अन्न और (इन्द्र) श्रेष्ठ ऐश्वर्य के प्राप्त करानेवाले जगदीश्वर वा सभाध्यक्ष (नरः) राजनीति के जाननेवाले मनुष्य (त्यत्) उस (अर्णसातौ) विजय की प्राप्ति करानेवाले शूरवीर योद्धा, मनुष्यों का सेवन हो, जिस (स्वर्मीढे) सुख के सींचने से युक्त (आजौ) संग्राम में (त्वाम्) आपको (ह) निश्चय करके (आहवन्ते) पुकारते हैं। जिस कारण (तव) आपकी जो (इयम्) यह (समर्य्ये) संग्राम वा (वाजेषु) विज्ञान, अन्न और सेनादिकों में (अतसाय्या) निरन्तर सुखों की प्राप्ति करानेवाले (ऊतिः) रक्षण आदि क्रिया है, वह हम लोगों को प्राप्त (भूत्) होवे ॥ ६ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि सब धर्मसम्बन्धी कार्य्यों में ईश्वर वा सभाध्यक्ष का सहाय लेके सम्पूर्ण कार्यों को सिद्ध करें ॥ ६ ॥
विषय
प्रभुरक्षण से युद्धविजय
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो (त्वां ह) = आपको ही (त्यत्) = वह (अर्णसातौ) = [अर्णानां सातिर्यस्मिन्] गतिशीलता को प्राप्त करानेवाले–युद्ध के समय सबकी क्रिया बढ़ जाती है (स्वर्मीळ्हे) = स्वर्ग - सुख का सेचन करनेवाले (आजौ) = संग्राम में (नरः) = उन्नति - पथ पर चलनेवाले व्यक्ति (हवन्ते) = पुकारते हैं । युद्ध में विजय के लिए आपकी ही आराधना करते हैं । युद्धों में क्रियाशीलता तो बढ़ ही जाती है, युद्धों में पीठ न दिखाकर मृत्यु होने पर स्वर्ग मिलता है । इन युद्धों में विजय के लिए प्रभु का आराधन करने से उत्साह बना रहता है । २. हे (स्वधावः) = आत्मधारण - शक्ति से युक्त प्रभो ! (समर्ये) = संग्राम में (तव इयं ऊतिः) = आपकी यह रक्षणक्रिया (वाजेषु) = शक्तियों की प्राप्ति के निमित्त (अतसाय्या) = प्राप्तव्य (आभूत्) = सर्वथा होती है । वस्तुतः आपका यह रक्षण ही योद्धाओं को शक्तिशाली बनाता है और वे युद्ध में विजय प्राप्त करने में समर्थ होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु - कृपा से ही युद्धों में विजय प्राप्त होती है ।
विषय
मेघ के समान प्रजारक्षक का कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) वीर ! शत्रुहन्तः ! ऐश्वर्यवन् ! सेनापते ! परमेश्वर ! राजन् ! ( अर्णसातौ ) जलों के प्राप्त कराने और (स्वर्मीढे) जल के वर्षण आदि के अवसर पर जिस प्रकार लोग विद्युत् और मेघों को ला बरसाने वाले वायुओं को चाहते हैं उसी प्रकार ( नरः ) वीर नायक पुरुष (अर्णसातौ) धन प्राप्त कराने वाले ( स्वर्मीढे ) सुखों के वर्षण करने वाले ( आजौ ) युद्धकाल में ( त्यत् त्वा ह ) तुझ को ही ( हवन्ते ) पुकारते और स्मरण करते हैं । हे ( स्वधावः ) स्वयं समस्त राष्ट्र के धारण करने के सामर्थ्य से युक्त ! हे वज्रवन् ! हे जलों के धारक मेघ के समान अन्नों के स्वामिन् ! हे जीवों के स्वामिन् ! (समर्ये) संग्राम में (वाजेषु) और ऐश्वर्य और अन्नादि के प्राप्त करने के अवसरों में ( तव ) तेरा ( इयम् ) यह ( ऊतिः ) प्रजा के रक्षा करने का कार्य (अतसाय्या भूत्) बराबर चलता रहे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
फिर मनुष्यों को ईश्वर और सभापति आदि के सहायता की इच्छा कहाँ-कहाँ करनी चाहिये, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे स्वधाव इन्द्र जगदीश्वर सभाद्यध्यक्ष ! नरः त्यत् अर्णसातौ स्वर्मीढ आजौ त्वां ह खलु आ हवन्ते यतः तव या इयं समर्य्ये वाजेषु अतसाय्य ऊतिः वर्त्तते सा अस्मान् प्राप्ता भूत् ॥६॥
पदार्थ
हे (स्वधावः) प्रशस्तं स्वधान्नं विद्यते तस्य तत्सम्बुद्धौ=देवों को यज्ञ में हवि के रूप में अपने प्रशस्त अन्न आदि को भेंट करनेवाले, (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक =परम ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले, (जगदीश्वर) सभाद्यध्यक्ष=सभा आदि के अध्यक्ष परमेश्वर ! (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्याः=नेतृत्व करनेवाले मनुष्य, (त्यत्) तस्मिन्=उसमें, (अर्णसातौ) अर्णानां विजयप्रापकाणां योद्धॄणां सातिर्यस्मिंस्तस्मिन्=जिसमें विजय प्राप्त करनेवाले योद्धाओं की तीव्र वेदना है, ऐसे, (स्वर्मीढे) स्वः सुखस्य मीढः सेचनं यस्मिन् तस्मिन्=सुख का सिंचन करनेवाले, (आजौ) संग्रामे = संग्राम में, (त्वाम्) जगदीश्वरं सभाध्यक्षं वा=परमेश्वर या सभा के अध्यक्ष के, (ह) खलु=निश्चित रूप से, (आ) अभितः=हर ओर से, (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते प्रेप्सन्ते= स्पर्द्धा की कामना करते हैं, (यतः)=क्योंकि, (तव) =तुम्हारा, (या)=जो, (इयम्) वक्ष्यमाणा=कहे गये, (समर्य्ये) संग्रामे= संग्राम में, (वाजेषु) विज्ञानान्नसेनादिषु= विशेष ज्ञान, अन्न और सेना आदि में, (अतसाय्या) अतन्ति निरन्तरं सुखानि गच्छन्ति यया सा= जिसमें निरन्तर सुख मिलते हैं, और, (ऊतिः) रक्षणादिका=रक्षण आदि, (वर्त्तते)=हैं, (सा)=वह, (अस्मान्)= हमें, (प्राप्ता)= प्राप्त, (भूत्) भवतु=होवे ॥६॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में श्लेषालङ्कार है। मनुष्यों के द्वारा सब धर्म के कार्यों के करने में ईश्वर और सभा के अध्यक्ष की सहायता नित्य सङ्गृहीत करके कार्य को सिद्ध करना चाहिए ॥६॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (स्वधावः) देवों को यज्ञ में हवि के रूप में अपने प्रशस्त अन्न आदि को भेंट करनेवाले और (इन्द्र) परम ऐश्वर्य को प्राप्त करानेवाले (जगदीश्वर) सभा आदि के अध्यक्ष परमेश्वर ! (नरः) नेतृत्व करनेवाला जो मनुष्य है, (त्यत्) उसमें, (अर्णसातौ) जिसमें विजय प्राप्त करनेवाले योद्धाओं की तीव्र वेदना है, ऐसे (स्वर्मीढे) सुख का सिंचन करनेवाले (आजौ) संग्राम में, (त्वाम्) परमेश्वर या सभा के अध्यक्ष से (ह) निश्चित रूप से (आ) हर ओर से (हवन्ते) स्पर्द्धा की कामना करते हैं, (यतः) क्योंकि (तव) तुम्हारे (या) जो, (इयम्) कहे गये (समर्य्ये) संग्राम में और (वाजेषु) विशेष ज्ञान, अन्न और सेना आदि (अतसाय्या) जिसमें निरन्तर सुख मिलते हैं और (ऊतिः) रक्षण आदि (वर्त्तते) हैं, (सा) वह (अस्मान्) हमें (प्राप्ता) प्राप्त (भूत्) होवे ॥६॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वाम्) जगदीश्वरं सभाध्यक्षं वा (ह) खलु (त्यत्) तस्मिन् (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रापक (अर्णसातौ) अर्णानां विजयप्रापकाणां योद्धॄणां सातिर्यस्मिंस्तस्मिन् (स्वर्मीढे) स्वः सुखस्य मीढः सेचनं यस्मिन् तस्मिन्। (नरः) नयनकर्त्तारो मनुष्याः (आजौ) संग्रामे (हवन्ते) स्पर्द्धन्ते प्रेप्सन्ते (तव) (स्वधावः) प्रशस्तं स्वधान्नं विद्यते तस्य तत्सम्बुद्धौ (इयम्) वक्ष्यमाणा (आ) अभितः (समर्य्ये) संग्रामे (ऊतिः) रक्षणादिका (वाजेषु) विज्ञानान्नसेनादिषु (अतसाय्या) अतन्ति निरन्तरं सुखानि गच्छन्ति यया सा। अत्रातधातोर्बाहुलकादौणादिक आय्यप्रत्ययोऽसुगागमश्च। सायणाचार्य्येणेदं पदमतधातोराय्यप्रत्ययं वर्जयित्वा साय्यप्रत्ययान्तरं कल्पित्वाऽडागमेन व्याख्यातं तदशुद्धम् (भूत्) भवतु ॥६॥ विषयः- पुनर्मनुष्यैरीश्वरसभाध्यक्षयोः सहायः क्व क्व प्रेप्सितव्य इत्युपदिश्यते ॥ अन्वयः- हे स्वधाव इन्द्र जगदीश्वर सभाद्यध्यक्ष ! नरस्त्यन्नर्णसातौ स्वर्मीढ आजौ त्वां ह खल्वाहवन्ते। यतस्तव येयं समर्य्ये वाजेष्वतसाय्योतिर्वर्त्तते साऽस्मान् प्राप्ता भूत् ॥६॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र श्लेषालङ्कारः। मनुष्यैः सर्वेषु धर्म्यकार्येषु कर्तव्येष्वीश्वरस्य सभाध्यक्षस्य च सहायं नित्यं सङ्गृह्य कार्य्यसिद्धिः कर्त्तव्या ॥६॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात श्लेषालंकार आहे. माणसांनी धर्मांसंबंधी सर्व कार्यात ईश्वर व सभाध्यक्षाचे साह्य घेऊन संपूर्ण कार्य सिद्ध करावे. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
In the tumult of the battles of the brave for victory and the showers of peace and joy, the leaders of humanity call upon you, Indra, to join the strife and win. Lord of innate wealth and power, may this help and protection of yours be available to us in our joint ventures and our battles for food, knowledge, science and social progress.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
for what objects the help of God and the President of the Assembly should be sought by people is taught in the 6th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O God the Lord of all food and wealth or the President of the Assembly etc. men invoke Thee in all thick thronged and happiness-bestowing battles for the victory. May thy protection which gives us happiness constantly be got by us in all battles and in the acquisition of knowledge, food and army etc.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(अर्णसातौ) अर्णानां विजयप्रापकाणां योद्धृणांसातिर्यस्मिन् | = In the battle where the victors gain. (ऋ - गति प्रापणयोः षणु - संभक्तौ Tr.) ( समर्येषु ) संग्रामेषु = In battles. (अतसाय्या) प्रतति निरंतरं सुखानि गच्छति यया सा अत्र अत-सातत्यगमने इति धातोर्बाहुलकादौणादिक आय्य्प्रत्ययः असुगामश्च | सायणाचार्येण इदं पदम् अतधातोराय्य प्रत्ययं वर्जयित्वा साय्यप्रत्ययान्तरं कल्पित्वाऽडागमेन व्याख्यातं तदशुद्धम् || =That which constantly leads to happiness. Sayanacharya has wrongly explained the derivation of |अतसाय्या |
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Men should accomplish all their righteous act with the help of God and the President of the Assembly.
Subject of the mantra
Then in this mantra it has been preached about where human beings should seek the help of God and the Chairman the Assembly et cetera.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (svadhāvaḥ)= Supreme Lord, who offers His bountiful food grains as sacrificial offerings to the deities in yajna and, (indra)= one who attains ultimate opulence, (jagadīśvara)= God, President of the Assembly etc., (naraḥ)= the man who leads, (tyat) =in that,, (arṇasātau)= In which there is intense pain of conquering warriors, like this, (svarmīḍhe)=giver of happiness, (ājau)=in war, (tvām)=by God or the President of the Assembly, (ha) =definitely, (ā) =from all sides, (havante)= wish for competition, (yataḥ) =because, (tava) =your, (yā) =those, (iyam) =said, (samaryye) =in the war and, (vājeṣu)= special knowledge, food and army etc., (atasāyyā) =in which there is continuous happiness and, (ūtiḥ) =protection etc., (varttate) =are, (sā) =that, (asmān) =to us, (prāptā) =attain, (bhūt) =be.
English Translation (K.K.V.)
O Supreme Lord, who offers His bountiful food grains as sacrificial offerings to the deities in yajna and who presides over the Assemblies and enables them to attain supreme opulence! In the man who is the leader, in whom there is the intense pain of the conquering warriors, in the battle that irrigates such happiness, from God or the President of the Assembly, we definitely wish for competition from all sides, because as you have said, may we get more special knowledge, food and army etc. in battle which provides continuous happiness and protection et cetera.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is paronomasia as figurative in this mantra. In carrying out all righteous activities through human beings, the work should be accomplished by daily gathering the help of God and the Chairman of the Assembly.
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