ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 63/ मन्त्र 8
त्वं त्यां न॑ इन्द्र देव चि॒त्रामिष॒मापो॒ न पी॑पयः॒ परि॑ज्मन्। यया॑ शूर॒ प्रत्य॒स्मभ्यं॒ यंसि॒ त्मन॒मूर्जं॒ न वि॒श्वध॒ क्षर॑ध्यै ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । त्याम् । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । दे॒व॒ । चि॒त्राम् । इष॑म् । आपः॑ । न । पी॒प॒यः॒ । परि॑ऽज्मन् । यया॑ । शूर॑ । प्रति॑ । अ॒स्मभ्य॑म् । यंसि॑ । त्मन॑म् । ऊर्ज॑म् । न । वि॒श्वध॑ । क्षर॑ध्यै ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं त्यां न इन्द्र देव चित्रामिषमापो न पीपयः परिज्मन्। यया शूर प्रत्यस्मभ्यं यंसि त्मनमूर्जं न विश्वध क्षरध्यै ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। त्याम्। नः। इन्द्र। देव। चित्राम्। इषम्। आपः। न। पीपयः। परिऽज्मन्। यया। शूर। प्रति। अस्मभ्यम्। यंसि। त्मनम्। ऊर्जम्। न। विश्वध। क्षरध्यै ॥
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 63; मन्त्र » 8
अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः सभाद्यध्यक्षविद्युतोर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥
अन्वयः
हे विद्युदिव परिज्मन् विश्वध शूर देवेन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! यथा त्वं यया नोऽस्माकं त्मनमात्मानं क्षरध्या ऊर्जं न संचलितुमन्नं पराक्रममिव यंसि त्यां तां चित्रामिषमस्मभ्यमापो न जलानीव प्रतिपीपयः पाययसि तथा वयमपि त्वां संतोषयेम ॥ ८ ॥
पदार्थः
(त्वम्) सभाद्यध्यक्षः सूर्यो वा (त्याम्) ताम् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सुखप्रद सुखहेतुर्वा (देव) विद्याशिक्षाप्रकाशक चक्षुर्हिता वा (चित्राम्) अद्भुतसुखप्रकाशिकाम् (इषम्) इच्छामन्नादिप्राप्तिं वा (आपः) जलानि (न) इव (पीपयः) पाययसि। ण्यन्तोऽयं प्रयोगः। (परिज्मन्) परितः सर्वतो जहि हिनस्ति दुष्टांस्तत्सम्बुद्धौ विद्युद्वा (यया) उक्तया (शूर) निर्भय निर्भयहेतुर्वा (प्रति) वीप्सायाम् (अस्मभ्यम्) (यंसि) दुष्टाचारान्निरुणत्सि। अत्र शपो लुक्। (त्मनन्) आत्मानम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्याकारलोपः। उपधादीर्घत्वनिषेधश्च। सायणाचार्य्येणेदं पदमुपधादीर्घत्वनिषेधकरं वचनमविज्ञायाशुद्धं व्याख्यातम्। (ऊर्जम्) पराक्रममन्नं वा (न) इव (विश्वध) विश्वं दधातीति तत्सम्बुद्धौ (क्षरध्यै) क्षरितुं संचलितुम् ॥ ८ ॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽन्नं क्षुधं यथा च जलं पिपासां निवार्य्य सर्वान् प्राणिनः सुखयतस्तथैव सभाद्यध्यक्षः सर्वान्सुखयेत् ॥ ८ ॥
हिन्दी (4)
विषय
अब सभाध्यक्षादि और विद्युत् अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥
पदार्थ
हे बिजुली के समान (परिज्मन्) सब ओर से दुष्टों के नष्ट करने (विश्वध) विश्व के धारण करने (शूर) निर्भय (देव) विद्या और शिक्षा के प्रकाश करने और (इन्द्र) सुखों के देनेवाले सभाध्यक्ष ! जैसे (त्वम्) आप (यया) जिससे (नः) हम लोगों के (त्मनम्) आत्मा को (क्षरध्यै) चलायमान होने को (ऊर्जम्) अन्न वा पराक्रम के (न) समान (यंसि) दुष्ट काम से रोक देते हो (त्यम्) उस (चित्राम्) अद्भुत सुखों को करनेवाली (इषम्) इच्छा वा अन्न को (अस्मभ्यम्) हम लोगों के लिये (आपो न) जलों के समान (प्रतिपीपयः) वार-वार पिलाते हो, वैसे हम भी आपको अच्छे प्रकार प्रसन्न करें ॥ ८ ॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्न क्षुधा को और जल तृषा को निवारण करके सब प्राणियों को सुखी करते हैं, वैसे सभापति आदि सबको सुखी करें ॥ ८ ॥
विषय
सादा खाना, पानी पीना [वानस्पतिक भोजन व पानी]
पदार्थ
१. हे (इन्द्र) = वृष्टि आदि कर्मों को करनेवाले । (देव) = अनादि सब आवश्यक पदार्थों के देनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (नः) = हमारे लिए (त्यम्) = उस प्रसिद्ध (चित्राम्) = [चित्+रा] ज्ञान का वर्धन करनेवाले (इषम्) = अन्न को (परिज्मन्) = इस सूर्य के चारों ओर घूमनेवाली अथवा (परितः) व्याप्त - विस्तृत भूमि पर (पीपयः) = [प्रावर्धयः] खूब ही प्रवृद्ध कीजिये । उसी प्रकार प्रवृद्ध कीजिए न - जैसेकि (आपः) = जलों को आपने प्रवृद्ध किया है । हे प्रभो ! जैसे आप इस पृथिवी पर वर्तमान हम लोगों को जलों को प्राप्त कराते हैं, उसी प्रकार ज्ञानवर्धक सात्त्विक अन्नों को भी प्राप्त कराइए । २. हे (शूर) = शत्रुओं को शीर्ण करनेवाले प्रभो ! हमें वह अन्न प्राप्त कराइए (यया) = जिससे (अस्मभ्यम्) = हमारे लिए (त्मनम्) = आत्मतत्त्व को (प्रतियंसि) = प्राप्त कराते हो । आत्मतत्त्व को उसी प्रकार प्राप्त कराते हो (न) = जैसे (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को प्राप्त कराते हो । हे (विश्वधः) = विश्व को धारण करनेवाले प्रभो ! हमें वे अन्न प्राप्त कराइए जो (क्षरध्यै) = मलों का क्षरण करनेवाले हों । ऐसे अन्न ही स्वास्थ्य के लिए उपयोगी होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभुकृपा से हमें वे अन्न प्राप्त हों जो [क] बुद्धि - ज्ञानवर्धक हो [चित्राम्], [ख] आत्मतत्व का दर्शन करानेवाले हों, [ग] ऊर्जम् बल और प्राणशक्ति को प्राप्त करनेवाले हों, [घ] मलों के क्षरण करनेवाले हों ।
विषय
जल और अन्न के समान प्रजा का पोषण ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) राजन् ! वीर सेना-सभाध्यक्ष ! जिस प्रकार मेध या विद्युत् ( परिज्मन् ) इस पृथ्वी के ऊपर ( आपः ) जलों को वर्षाता, सबको बढ़ाता है । ( त्मनं ऊर्जं क्षरध्यै यंसि ) जल के रूप में सब तरफ़ बहने के लिए अपने को त्याग देता है उसी प्रकार हे ( देव ) दानशील राजन् ! ( त्वं ) तू भी ( परिज्मन् ) इस पृथिवी पर ( आपः न ) जलों के सम्मान (त्यां) उस उस, नाना प्रकार की ( चित्राम् ) अद्भुत २ ( इषम् ) अन्न समृद्धि, तथा सेनाओं को (पीपयः) बढ़ा । हे ( शूर ) शूरवीर ! ( यया ) जिसके द्वारा तू ( अस्मभ्यम् ) हमारे उपकार और रक्षा के लिए ( त्मनम् ) अपने को ( ऊर्जं न ) अन्न के समान (प्रतियंसि) दूसरों के उपकारार्थ समर्पित करता है अर्थात् जिस प्रकार अन्न अपनी सत्ता को खोकर अन्य प्राणियों के देहों को पुष्ट करता है उसी प्रकार हे राजन् ! तू हम प्रजाओं की रक्षा और पुष्टि के लिए युद्धादि में अपने आप को बलि कर । हे (विश्वघ) समस्त राष्ट्र को धारण करनेहारे ! तू ( ऊर्जं न ) अन्न और जल के समान ही ( क्षरध्यै ) बहने और सर्वत्र पराक्रम और त्याग द्वारा बरसने के लिए तैयार रह ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नोधा गौतम ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ७,९, भुरिगार्षी पङ्क्तिः । विराट् त्रिष्टुप् । ५ भुरिगार्षी जगती । ६ स्वराडार्षी बृहती ॥ नवर्चं सूक्तम् ॥
विषय
अब सभाध्यक्ष आदि, विद्युत् और अग्नि के गुणों का उपदेश किया है ॥
सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः
हे विद्युत् इव परिज्मन् विश्वध शूर देव इन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! यथा त्वं यया नः अस्माकं त्मनम् आत्मानं क्षरध्या ऊर्जं न संचलितुम् अन्नं पराक्रमम् इव यंसि त्यां तां चित्राम् इषम् अस्मभ्यम् आपः न जलानि इव प्रति पीपयः पाययसि तथा वयम् अपि त्वां संतोषयेम ॥८॥
पदार्थ
हे (विद्युत्)= विद्युत् के, (इव)=समान, (परिज्मन्) परितः सर्वतो जहि हिनस्ति दुष्टांस्तत्सम्बुद्धौ विद्युद्वा =हर ओर से दुष्टों को मारनेवाले अथवा बिजली को, (विश्वध) विश्वं दधातीति तत्सम्बुद्धौ =सबमें धारण करानेवाले, (शूर) निर्भय निर्भयहेतुर्वा= निर्भय या निर्भय करने के कारण, (देव) विद्याशिक्षाप्रकाशक चक्षुर्हिता वा= विद्या और शिक्षा के प्रकाशक अथवा नयनों के हितकारी, (इन्द्र) सुखप्रद सुखहेतुर्वा=सुख प्रदान करनेवाले या सुख के कारण, (सभाद्यध्यक्ष)=सभा आदि के अध्यक्ष ! (यथा)=जिस प्रकार से, (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः सूर्यो वा= सभा आदि के अध्यक्ष या सूर्य, (यया) उक्तया=कहे गये, (नः) अस्माकम्=हमारे लिये, (त्मनन्) आत्मानम्=अपने, (क्षरध्यै) क्षरितुं संचलितुम् =चलने के लिये, (ऊर्जम्) पराक्रममन्नं वा=पराक्रम या अन्न के, (न) इव=समान, (यंसि) दुष्टाचारान्निरुणत्सि= दुष्टों आचरणों को रोक देते हो, (त्याम्) ताम्=उस, (चित्राम्) अद्भुतसुखप्रकाशिकाम्= अद्भुत सुख का प्रकाश करनेवाले को, (इषम्) इच्छामन्नादिप्राप्तिं वा=इच्छा या अन्न आदि प्राप्त करनेवाले को, (अस्मभ्यम्)=हमारे लिये, (आपः) जलानि=जलों के, (न) इव=समान, (प्रति) वीप्सायाम्=प्रत्येक को, (पीपयः) पाययसि= पिलाते हो, (तथा)=वैसे ही, (वयम्)=हम, (अपि)=भी, (त्वाम्)=तुम को, (संतोषयेम)=संतुष्ट करें ॥८॥
महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे अन्न से भूख को और जल से प्यास का निवारण करके सब प्राणियों को सुखी होते हैं, वैसे ही सभा आदि के अध्यक्ष सबको सुखी करें ॥८॥
पदार्थान्वयः(म.द.स.)
हे (विद्युत्) विद्युत् के (इव) समान (परिज्मन्) हर ओर से दुष्टों को मारनेवाले अथवा विद्युत् को (विश्वध) सब में धारण करानेवाले, (शूर) निर्भय या निर्भय होने के कारण, (देव) विद्या और शिक्षा के प्रकाशक अथवा नयनों के हितकारी, (इन्द्र) सुख प्रदान करनेवाले या सुख के कारण (सभाद्यध्यक्ष) सभा आदि के अध्यक्ष ! (यथा) जिस प्रकार से (त्वम्) सभा आदि के अध्यक्ष या सूर्य (यया) कहे गये हैं, वे (नः) हमारे लिये (त्मनन्) अपने (क्षरध्यै) चलने के लिये (ऊर्जम्) पराक्रम या अन्न के (न) समान (यंसि) दुष्ट आचरणों को रोक देते हो। (त्याम्) उस (चित्राम्) अद्भुत सुख का प्रकाश करनेवाले, (इषम्) इच्छा या अन्न आदि प्राप्त करनेवाले को (अस्मभ्यम्) हमारे लिये (आपः) जलों के (न) समान (प्रति) प्रत्येक को (पीपयः) पिलाते हो, (तथा) वैसे ही (वयम्) हम (अपि) भी (त्वाम्) तुम को (संतोषयेम) संतुष्ट करें ॥८॥
संस्कृत भाग
पदार्थः(महर्षिकृतः)- (त्वम्) सभाद्यध्यक्षः सूर्यो वा (त्याम्) ताम् (नः) अस्माकम् (इन्द्र) सुखप्रद सुखहेतुर्वा (देव) विद्याशिक्षाप्रकाशक चक्षुर्हिता वा (चित्राम्) अद्भुतसुखप्रकाशिकाम् (इषम्) इच्छामन्नादिप्राप्तिं वा (आपः) जलानि (न) इव (पीपयः) पाययसि। ण्यन्तोऽयं प्रयोगः। (परिज्मन्) परितः सर्वतो जहि हिनस्ति दुष्टांस्तत्सम्बुद्धौ विद्युद्वा (यया) उक्तया (शूर) निर्भय निर्भयहेतुर्वा (प्रति) वीप्सायाम् (अस्मभ्यम्) (यंसि) दुष्टाचारान्निरुणत्सि। अत्र शपो लुक्। (त्मनन्) आत्मानम्। अत्र वाच्छन्दसि सर्वे विधयो भवन्तीत्याकारलोपः। उपधादीर्घत्वनिषेधश्च। सायणाचार्य्येणेदं पदमुपधादीर्घत्वनिषेधकरं वचनमविज्ञायाशुद्धं व्याख्यातम्। (ऊर्जम्) पराक्रममन्नं वा (न) इव (विश्वध) विश्वं दधातीति तत्सम्बुद्धौ (क्षरध्यै) क्षरितुं संचलितुम् ॥८॥ विषयः- पुनः सभाद्यध्यक्षविद्युतोर्गुणा उपदिश्यन्ते ॥ अन्वयः- हे विद्युदिव परिज्मन् विश्वध शूर देवेन्द्र सभाद्यध्यक्ष ! यथा त्वं यया नोऽस्माकं त्मनमात्मानं क्षरध्या ऊर्जं न संचलितुमन्नं पराक्रममिव यंसि त्यां तां चित्रामिषमस्मभ्यमापो न जलानीव प्रतिपीपयः पाययसि तथा वयमपि त्वां संतोषयेम ॥८॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथाऽन्नं क्षुधं यथा च जलं पिपासां निवार्य्य सर्वान् प्राणिनः सुखयतस्तथैव सभाद्यध्यक्षः सर्वान्सुखयेत्॥८
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अन्न क्षुधेचे व जल तृषेचे निवारण करून सर्व प्राण्यांना सुख देते. तसे सभापती इत्यादींनी सर्वांना सुखी करावे. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Indra, brilliant lord of generosity, ever present and all protective, brave hero, ruler and holder of the world, like the flow of nature’s waters, let that various and wondrous energy, mind and means flow freely for us for the expression and fulfilment of our spiritual self by which you again and again direct and guide the conduct of our soul as well as the psychic flow of our energy.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of the President of the Assembly and electricity are taught further in the 8th Mantra.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O President of the Assembly like electricity, destroying the wicked, O illuminator of knowledge and education, O brave, as thou suppliest us with abundant food and fulfillest our noble desires which manifest wonderful happiness for our movement every where. like the water which satisfies a man, we also please thee.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(इषम्) इच्छाम् अन्नादिप्राप्ति वा =Desire and the acquisition of food etc. (परिज्मन्) परिसर्वतः जहि हिनस्ति दुष्टान् तत् सम्बुद्धौ विधुद्वा | =O destroyer of the wicked or electricity.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As food and water satisfy all beings by removing hunger and thirst, the same manner, the President of the Assembly should make people, happy and contented.
Subject of the mantra
Now the qualities of Chairman of the Assembly etc., electricity and fire have been preached.
Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-
He=O! (vidyut) =of lightening, (iva) =like, (parijman)=the destroyer of evil from all sides or the lightning, (viśvadha) =who makes possessed the lightning in everyone, (śūra)=being fearless or cause of fearlessness, (deva)= the revealer of knowledge and education or the benefactor of the eyes, (indra)=the provider and cause of happiness, (sabhādyadhyakṣa)=President of the Assembly etc. (yathā) =in which way, (tvam)=the President of the Assembly etc. or Sun, (yayā) =have been said, they, (naḥ) =for us, (tmanan) =own, (kṣaradhyai) =for moving, (ūrjam)=of bravery or food (na) =like, (yaṃsi)= stop evil practices, (tyām) =that, (citrām)=the one who illuminates wonderful happiness, (iṣam)=to the one who receives a wish or food etc., (asmabhyam) =for us, (āpaḥ) =of waters, (na) =like, (prati) =to everyone, (pīpayaḥ) =make drink, (tathā) =similarly, (vayam) =we, (api) =also, (tvām) =to you, (saṃtoṣayema) =satisfy.
English Translation (K.K.V.)
O one who kills the wicked from all sides like the lightning or who makes the lightning in everyone, being fearless or cause of fearlessness, the revealer of knowledge and education or the benefactor of the eyes, the provider and cause of happiness or the President of the Assembly etc.! Just as the President of the Assembly etc. or the Sun is said to be there, he stops evil deeds like valour or food for his performance for us. You, the one who illuminates that wonderful happiness, the one who obtains desires or food etc., make everyone drink water for us, in the same way, may we also satisfy you.
TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand
There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Just as all living beings become happy by satisfying hunger with food and thirst with water, in the same way the President of the Assembly should make everyone happy.
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