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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिग्बृहती स्वरः - मध्यमः

    प्रेह्य॒भी॑हि धृष्णु॒हि न ते॒ वज्रो॒ नि यं॑सते। इन्द्र॑ नृ॒म्णं हि ते॒ शवो॒ हनो॑ वृ॒त्रं जया॑ अ॒पोऽर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । इ॒हि॒ । अ॒भि । इ॒हि॒ । धृ॒ष्णु॒हि । न । ते॒ । वज्रः॑ । नि । यं॒स॒ते॒ । इन्द्र॑ । नृ॒म्णम् । हि । ते॒ । शवः॑ । हनः॑ । वृ॒त्रम् । जयाः॑ । अ॒पः । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेह्यभीहि धृष्णुहि न ते वज्रो नि यंसते। इन्द्र नृम्णं हि ते शवो हनो वृत्रं जया अपोऽर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। इहि। अभि। इहि। धृष्णुहि। न। ते। वज्रः। नि। यंसते। इन्द्र। नृम्णम्। हि। ते। शवः। हनः। वृत्रम्। जयाः। अपः। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 3
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यथा सूर्यस्य वज्रो वृत्रं हनोऽपो निर्यंसते तथा ये ते शत्रवस्तान् हत्वा स्वराज्यमन्वर्चन् हि नृम्णं प्रेहि, शवोऽभीहि शरीरात्मबलेन धृष्णुहि जया एवं कुर्वतस्ते पराजयो न भविष्यति ॥ ३ ॥

    पदार्थः

    (प्र) प्रकृष्टार्थे (इहि) प्राप्नुहि (अभि) आभिमुख्ये (इहि) जानीहि (धृष्णुहि) (न) निषेधे (ते) तव (वज्रः) किरणसमूहः (निः) क्रियायोगे (यंसते) यच्छन्ति (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष (नृम्णम्) धनम्। नृम्णमिति धननामसु पठितम्। (निघं०२.१०) (हि) किल (ते) तव (शवः) बलम् (हनः) हन्याः (वृत्रम्) मेघम् (जयाः) (अपः) जलानि (अर्चन्) सत्कुर्वन् (अनु) आनुकूल्ये (स्वराज्यम्) स्वस्य राज्यम् ॥ ३ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजजना सूर्यवत् प्रकाशितकीर्त्तयः सन्ति, ते राज्यैश्वर्यभोगिनो भवन्ति ॥ ३ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्रः) परमसुखकारक ! जैसे सूर्य का (वज्रः) किरणसमूह (वृत्रम्) मेघ को (हनः) मारता और (अपः) जलों को (निर्यंसते) नियम में रखता है, वैसे जो (ते) आपके शत्रु हैं, उन शत्रुओं का हनन करके (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करता हुआ (हि) निश्चय करके (नृम्णम्) धन को (प्रेहि) प्राप्त हो (शवः) बल को (अभीहि) चारों ओर से बढ़ा शरीर और आत्मा के बल से (धृष्णुहि) ढीठ हो तथा (जयाः) जीत को प्राप्त हो, इस प्रकार करते हुए (ते) आपका पराजय (न) न होगा ॥ ३ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजपुरुष सूर्यप्रकाश के तुल्य प्रसिद्ध कीर्त्तिवाले हैं, वे राज्य के ऐश्वर्य के भोगनेहारे होते हैं ॥ ३ ॥

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    विषय

    आक्रमण व धर्षण

    पदार्थ

    १. प्रभु प्रेरणा देते हैं कि प्रेहि [प्र इह] तू प्रकर्षण गतिवाला हो । तेरा जीवन क्रियाशील हो, अकर्मण्यता तुझे छु न जाए । (अभीहि) = तू कामादि वासनाओं के प्रति आक्रमण के लिए जानेवाला हो । तू वासनाओं पर आक्रमण कर । (धृष्णुहि) = इन वासनाओं का तू धर्षण करनेवाला हो । २. (ते वज्रः) = तेरा यह क्रियाशीलतारूप वज्र [वज् गतौ] (न नियंसते) = शत्रुओं से रोका नहीं जाता, अर्थात् तेरा जीवन कामादि वासनाओं में फंस जाने से अकर्मण्य - सा नहीं हो जाता । ३. हे (इन्द्र) = कामादि शत्रुओं का संहार करनेवाले जीव । (ते शवः) = तेरा बल (हि) = निश्चय से (नृम्णम्) = [नृणां नामकमभिभावकम्] शत्रुभूत मनुष्यों को पराजित करनेवाला है । इस बल से तू (वृत्रम्) = ज्ञान पर आवरण के रूप में आई हुई वासना को (हनः) = नष्ट करता है और (अपः) = रेतःकणों को जया - विजय के द्वारा प्राप्त करता है । वासना ही रेतः कणों के नाश का कारण बनती है, वासना को जीत लिया तो रेतः कणों का रक्षण होता ही है । ४. इस सारे कार्य के लिए तू (स्वराज्यमनु अर्चन) = आत्म - शासन की भावना का आदर करनेवाला हो । आत्मवान् बनकर ही तू उन्नति - पथ पर आगे बढ़ पाएगा ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम क्रियाशीलता के द्वारा वासना को समाप्त करें और रेतः कणों का विजय के द्वारा लाभ करें ।

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    विषय

    स्वराज्य की वृद्धि, और उनके उपायों का उपदेश ।

    भावार्थ

    हे राजन् ! तू ( स्वराज्यम् अनु अर्चन् ) अपने राज्यपद की ही प्रतिदिन प्रतिष्ठा करता हुआ ( प्र इहि ) आगे बढ़, प्रयाण कर ( अभिइहि ) अभिमुख शत्रु को लक्ष्य करके जा । (धृष्णुहि) उनको परास्त कर । (ते) तेरा ( वज्रः ) शस्त्रास्त्र बल सूर्य की किरणों के समान (न नियंसते ) कभी रोका नहीं जा सकता । हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! ( ते शवः ) , तेरा बल (नृम्णं हि) ही परम धन है, वह सब मनुष्यों और नायकों को अपने अधीन दबाकर रखने में समर्थ है। तू ( वृत्रं हनः ) मेघ के समान फैलते हुए शत्रु को ( हनः ) मार, दण्डित कर । ( अपः जय ) समस्त राष्ट्रवासिनी प्रजाओं को विजय कर । अथवा जलों के समान वेग से भागने वाली शत्रु सेनाओं को जीत ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर शत्रुओं के विरुद्ध कैसा व्यवहार हो, इस विषय का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे इन्द्र ! यथा सूर्यस्य वज्रः वृत्रं हनः अपः निः यंसते तथा ये ते शत्रवः तान् हत्वा स्वराज्यम् अनु अर्चन् हि नृम्णं प्र इहि शवः अभि इहि शरीर आत्मबलेन धृष्णुहि जया एवं कुर्वतः ते पराजयः न भविष्यति ॥३॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (इन्द्र) सभाद्यध्यक्ष=सभा आदि के अध्यक्ष ! (यथा)=जैसे, (सूर्यस्य)= सूर्य के, (वज्रः) किरणसमूहः= किरणों के समूह, (वृत्रम्) मेघम्=बादल को, (हनः) हन्याः=छिन्न-भिन्न करके, (अपः) जलानि=जलों को, (निः) क्रियायोगे=अच्छे प्रकार से, (यंसते) यच्छन्ति=प्रदान करते हैं, (तथा)=वैसे ही, (ये)=जो, (ते) तव=तुम्हारे, (शत्रवः)= शत्रु हैं, (तान्)=उनको, (हत्वा)=मार करके, (स्वराज्यम्) स्वस्य राज्यम्=अपने राज्य की, (अनु) आनुकूल्ये=अनुकूलता में, (अर्चन्) सत्कुर्वन्=अच्छे कार्य करते हुए, (हि) किल=निश्चय से ही, (नृम्णम्) धनम्=धन को, (प्र) प्रकृष्टार्थे=उत्कृष्ट रूप से,(इहि) प्राप्नुहि=प्राप्त कीजिये, (शवः) बलम्=बल को, (अभि) आभिमुख्ये=सामने से, (इहि) जानीहि=जानिये, (शरीर)= शरीर और, (आत्मबलेन)=आत्मबल से, (धृष्णुहि) = आत्मविश्वासी, (जयाः)=विजय, (एवम्)=ऐसे ही, (कुर्वतः)=करते हुए, (ते) तव=तुम्हारी, (पराजयः)= पराजय, (न) निषेधे=नहीं, (भविष्यति)=होगी ॥३॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजपुरुष सूर्य के समान प्रकाशित कीर्त्तिवाले होते हैं, वे राज्य के ऐश्वर्य का भोग करनेवाले होते हैं ॥३॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (इन्द्र) सभा आदि के अध्यक्ष ! (यथा) जैसे (सूर्यस्य) सूर्य के (वज्रः) किरणों के समूह (वृत्रम्) बादल को (हनः) छिन्न-भिन्न करके (अपः) जलों को (निः) अच्छे प्रकार से (यंसते) प्रदान करते हैं। (तथा) वैसे ही (ये) जो (ते) तुम्हारे (शत्रवः) शत्रु हैं, (तान्) उनको (हत्वा) मार करके, (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अनु) भलाई के लिये (अर्चन्) अच्छे कार्य करते हुए, (हि) निश्चय से ही (नृम्णम्) धन को (प्र) उत्कृष्ट रूप से (इहि) प्राप्त कीजिये और (शवः) बल को (अभि) सामने से (इहि) जानिये। (शरीर) शरीर के और (आत्मबलेन) आत्मबल से (धृष्णुहि) आत्मविश्वासी होकर (एवम्) ऐसे ही (जयाः) विजयी (कुर्वतः) होते हुए (ते) तुम्हारी (पराजयः) पराजय (न) नहीं (भविष्यति) होगी ॥३॥

    संस्कृत भाग

    प्र । इ॒हि॒ । अ॒भि । इ॒हि॒ । धृ॒ष्णु॒हि । न । ते॒ । वज्रः॑ । नि । यं॒स॒ते॒ । इन्द्र॑ । नृ॒म्णम् । हि । ते॒ । शवः॑ । हनः॑ । वृ॒त्रम् । जयाः॑ । अ॒पः । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनः स कीदृश इत्युपदिश्यते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजजना सूर्यवत् प्रकाशितकीर्त्तयः सन्ति, ते राज्यैश्वर्यभोगिनो भवन्ति ॥३॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. ज्या राजपुरुषांची सूर्यप्रकाशाप्रमाणे कीर्ती असते. ते राज्याचे ऐश्वर्य भोगतात ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord of power and brilliance, ruler of the land, go forward. Go forward all round. Shake the evil. Irresistible is your thunderbolt of light and power. Your power and force is the wealth of the nation. Destroy the demon of want and drought, release and win the waters, plenty and prosperity and, in homage and reverence advancing the freedom and self-government of humanity, move ahead and higher.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is Indra is taught further in the 3rd Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (President of the council of Ministers or Assembly) like the sun that shatters the could by his rays and controls the waters, do thou put down thy enemies and making thy rule acceptable and respected, advance in wealth. Go forward and be bold; thy power of conquering thy foes can not be checked. Thy strength can bend all thy foes can not be checked. Acquire full power and becoming bold and valiant in body and spirit, be always victorious. By doing so, there will be no defeat for thee.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (वज्रः) किरणसमूहः = Band of rays. (नृम्णम्) धनम् (नृम्णम् इति धननाम निघ० २.१० ) = Wealth. (शव:) बलम् = Power of strength.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those officers of the state state who are illustrious like the sun, enjoy the prosperity of the State.

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    Subject of the mantra

    Then, how to behave against enemies?This has been preached in the mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (indra) =President of the Assembly etc., (yathā) =like, (sūryasya) =of the Sun, (vajraḥ) =groups of rays, (vṛtram) =to cloud, (hanaḥ)=by disintegrating, (apaḥ) =to waters, (niḥ)= in a better way, (yaṃsate) =provide, (tathā) =similarly, (ye) =those, (te) =your, (śatravaḥ) =enemies are, (tān) =to them, (hatvā) =after killing, (svarājyam) =of own kingdom, (anu) =for welfare, (arcan) =doing good deeds, (hi) =definitely, (nṛmṇam) =to wealth, (pra) utkṛṣṭa rūpa se (ihi) prāpta kījiye aura (śavaḥ) bala ko (abhi) =excellently, (ihi) =know, (śarīra) =of body and, (ātmabalena)=by self-confidence, (dhṛṣṇuhi) =being self-confident, (evam) =similarly, (jayāḥ) =victorious, (kurvataḥ) =being, (te) =your, (parājayaḥ) =defeat, (na) n=not, (bhaviṣyati) =will be.

    English Translation (K.K.V.)

    O President of the Assembly etc.! Just as the sun's rays disintegrate the clouds and provide water in a better way. Similarly, by killing your enemies, and doing good deeds for the welfare of your kingdom, surely acquire wealth excellently and know the force up front. By being confident in your body and yourself and becoming victorious like this, you will not be defeated.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Those royal staffers whose fame shine like the Sun, are the ones who enjoy the opulence of the kingdom.

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