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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 80 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 80/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोतमो राहूगणः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    इन्द्रो॑ वृ॒त्रस्य॒ दोध॑तः॒ सानुं॒ वज्रे॑ण हीळि॒तः। अ॒भि॒क्रम्याव॑ जिघ्नते॒ऽपः सर्मा॑य चो॒दय॒न्नर्च॒न्ननु॑ स्व॒राज्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रः॑ । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑तः । सानु॑म् । वज्रे॑ण । ही॒ळि॒तः । अ॒भि॒ऽक्रम्य॑ । अव॑ । जि॒घ्न॒ते॒ । अ॒पः । सर्मा॑य । चो॒दय॑न् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रो वृत्रस्य दोधतः सानुं वज्रेण हीळितः। अभिक्रम्याव जिघ्नतेऽपः सर्माय चोदयन्नर्चन्ननु स्वराज्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रः। वृत्रस्य। दोधतः। सानुम्। वज्रेण। हीळितः। अभिऽक्रम्य। अव। जिघ्नते। अपः। सर्माय। चोदयन्। अर्चन्। अनु। स्वऽराज्यम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 80; मन्त्र » 5
    अष्टक » 1; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तस्य कर्त्तव्यानि कर्माण्युपदिश्यन्ते ॥

    अन्वयः

    हे विद्वन् ! यथेन्द्रः सूर्यो वज्रेण वृत्रस्याऽपोऽभिक्रम्य सानुं छिनत्ति तथा त्वं स्वराज्यमन्वर्चन् जिघ्नते सर्माय स्वबलं चोदयन् दोधतः शत्रोर्बलमभिक्रम्य सेनां छित्त्वा हीळितः सन् क्रोधमवसृज ॥ ५ ॥

    पदार्थः

    (इन्द्रः) उक्तपूर्वः (वृत्रस्य) मेघस्य (दोधतः) क्रुध्यतः। दोधतीति क्रुध्यतिकर्मा। (निघं०२.१२) (सानुम्) अङ्कानां संविभागम् (वज्रेण) तीव्रेण तेजसा (हीळितः) अनादृतः। अत्र वर्णव्यत्ययेनेकारः। (अभिक्रम्य) सर्वत उल्लङ्घ्य (अव) (जिघ्नते) हन्त्रे (अपः) जलानि (सर्माय) गच्छते (चोदयन्) प्रेरयन् (अर्चन्) (अनु) (स्वराज्यम्) ॥ ५ ॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवदविद्यां निवार्य विद्यां प्रकाश्य दुष्टान् संताड्य धार्मिकान् सत्कुर्वन्ति ते विद्वत्सु सत्कृता जायन्ते ॥ ५ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उस सभाध्यक्ष के कर्त्तव्य कर्मों का उपदेश अगले मन्त्र में किया है ॥

    पदार्थ

    हे विद्वान् ! जैसे (इन्द्रः) सूर्य्य (वज्रेण) किरणों से (वृत्रस्य) मेघ के (अपः) जलों को (अभिक्रम्य) आक्रमण करके (सानुम्) मेघ के शिखरों को छेदन करता है, वैसे (स्वराज्यम्) अपने राज्य का (अन्वर्चन्) सत्कार करता हुआ राजा (जिघ्नते) हनन करनेवाले (सर्माय) प्राप्त हुए शत्रु के पराजय के लिये अपनी सेनाओं को (चोदयन्) प्रेरणा करता हुआ (दोधतः) क्रुद्ध शत्रु के बल के आक्रमण से सेना को छिन्न-भिन्न करके (हीळितः) प्रजाओं से अनादर को प्राप्त होता हुआ शत्रु पर क्रोध को (अव) कर ॥ ५ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान अविद्यान्धकार को छुड़ा, विद्या का प्रकाश कर, दुष्टों को दण्ड और धर्मात्माओं का सत्कार करते हैं, वे विद्वानों में सत्कार को प्राप्त होते हैं ॥ ५ ॥

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    विषय

    अशान्ति के कारणभूत वृत्र का विनाश

    पदार्थ

    १. वेद में क्रोध को नष्ट करने के स्थान में नियन्त्रित करने का उल्लेख है । इस क्रोध को वश में करके कामादि के प्रति सन्नद्ध करना चाहिए । उस समय यह क्रोध शत्रु पर आक्रमण के लिए उत्साह के रूप में प्रकट होता है । इसके अभाव में कुछ अकर्मण्यता - सी आ जाती है, तो (हीळितः) = कामादि से अनादृत हुआ - हुआ और अतएव उनपर क्रुद्ध हुआ - हुआ, उनपर आक्रमण के लिए उत्साहवाला (इन्द्रः) = यह शत्रुओं का संहार करनेवाला जितेन्द्रिय पुरुष (दोधतः) = अत्यन्त कम्पित होते हुए, अर्थात् प्रबल हलचल करते हुए (वृत्रस्य) = कामवासनारूप शत्रु के (सानुम्) = शिखर को (वज्रेण) = क्रियाशीलतारूप वज्र से (अभिक्रम्य) = आक्रमण करके (अवजिघ्नते) = [प्रहरति] प्रहृत करता है । वासना, जोकि हमारे जीवन को अत्यन्त अशान्त बनाये रखती है, उसे यह इन्द्र क्रियाशीलता के द्वारा समाप्त करता है । २. इस प्रकार वासना को समाप्त करके वह (अपः) = रेतः कणों को (सर्माय) = शरीर में प्रसृत होने के लिए (चोदयन्) = प्रेरित करता है । रेतः कण रुधिर के साथ सारे शरीर में व्याप्त होते हैं और शरीर में होनेवाली आधि - व्याधियों को समाप्त कर देते हैं । ३. ऐसा इन्द्र कर तभी पाता है जबकि वह (अर्चन अनु स्वराज्यम्) = आत्मशासन की भावना का समादर करता है । आत्मशासन की भावना के प्रबल होने पर ही हम वासना को समाप्त करते हैं और रेतः कणों को शरीर में ही व्याप्त करनेवाले होते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - अत्यन्त अशान्ति के कारणभूत वासनात्मक वृत्र को हम विनष्ट करें और सोमकणों को शरीर में ही व्याप्त करनेवाले हों ।

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    विषय

    पक्षान्तर में ईश्वरोपासना और परमेश्वर के स्वराट् रूप की अर्चना ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) सूर्य या विद्युत् जिस प्रकार ( दोधतः वृत्रस्य ) वायु वेगसे कांपते हुए मेघ के ( सानुम् ) उन्नत भाग को ( वज्रेण ) विद्युत् के आघात से ( अभिक्रम्य ) आक्रमण कर के ( अपः सर्माय ) जलों के बह जाने के लिये प्रेरित करता है उसी प्रकार ( स्वराज्यम् अनु अर्चन) अपने राजत्व पद की वृद्धि और प्रतिष्ठा करता हुआ-(दोधतः वृत्रस्य) क्रोध करते हुए, उमड़ते हुए शत्रु के ( सानुम् ) एक २ अंग को ( हीळितः ) स्वयं क्रुद्ध हो कर ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान् राजा ( अभिक्रम्य ) सब ओर से आक्रमण कर के और ( अपः ) जलधाराओं के समान सेनाओं को ( सर्माय ) भाग निकलने के लिये प्रेरित करता हुआ (अव जिघ्नते) उसे मार गिरावे । अथवा—(जिघ्नते सर्माय ) आगे बढ़ने वाले और प्रहार करते हुए शत्रु के पराजय के लिये उस को (अभिक्रम्य) सब तरफ़ से आक्रमण कर के (अव) नीचे दबावे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गोतमो राहूगण ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः—१, ११ निचृदास्तारपंक्तिः । ५, ६, ९, १०, १३, १४ विराट् पंक्तिः । २—४, ७,१२, १५ भुरिग् बृहती । ८, १६ बृहती ॥ षोडशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    विषय (भाषा)- फिर उस सभाध्यक्ष के कर्त्तव्य कर्मों का उपदेश इस मन्त्र में किया है ॥

    सन्धिविच्छेदसहितोऽन्वयः

    सन्धिच्छेदसहितोऽन्वयः- हे विद्वन् ! यथा इन्द्रः सूर्यः वज्रेण वृत्रस्य अपः अभिक्रम्य सानुं छिनत्ति तथा त्वं स्वराज्यम् अनु अर्चन् जिघ्नते सर्माय स्वबलं चोदयन् दोधतः शत्रोः बलम् अभिक्रम्य सेनां छित्त्वा हीळितः सन् क्रोधम् अवसृज ॥५॥

    पदार्थ

    पदार्थः- हे (विद्वन्)= विद्वान् ! (यथा)=जैसे, (इन्द्रः) उक्तपूर्वः- परमैश्वर्यप्रद=परम ऐश्वर्य के देनेवाला राजन् (सूर्यः)= सूर्य के, (वज्रेण) (वृत्रस्य) मेघस्य=बादल के, (अपः) जलानि =जलों को, (अभिक्रम्य) सर्वत उल्लङ्घ्य= पूरा पार करके, (सानुम्) अङ्कानां संविभागम्=गोद के प्रत्येक भाग को, (छिनत्ति)=छिन्न-भिन्न करता है, (तथा)=वैसे ही, (त्वम्)=तुम, (स्वराज्यम्) =अपने राज्य की, (अनु) आनुकूल्ये=भलाई के लिये, (अर्चन्) सत्कुर्वन्=उत्तम कार्य करते हुए, (जिघ्नते) हन्त्रे= प्रहार करते हो। (सर्माय) गच्छते= जाते हुए, (स्वबलम्) =अपने बल को, (चोदयन्) प्रेरयन्=प्रेरित करते हुए, (दोधतः) क्रुध्यतः=क्रोध करते हुए, (शत्रोः)=शत्रु के, (बलम्)=बल को, (अभिक्रम्य) सर्वत उल्लङ्घ्य=पूरी तरह से पार करके, (सेनाम्)=सेना को, (छित्त्वा)=मार करके, उसका (हीळितः) अनादृतः=अपमान करते, (सन्)=हुए, (क्रोधम्) =क्रोध को, (अव) =शुद्धता से, (सृज) (सृज)=पैदा करो ॥५॥

    महर्षिकृत भावार्थ का भाषानुवाद

    महर्षिकृत भावार्थ का अनुवादक-कृत भाषानुवाद- इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो सूर्य के समान अविद्या को दूर करके, विद्या का प्रकाश करके, दुष्टों को दण्ड दे करके धार्मिकों का आदर करते हैं, वे विद्वानों में पूजनीय प्राप्त हो जाते हैं॥५॥

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)

    पदार्थान्वयः(म.द.स.)- हे (विद्वन्) विद्वान् ! (यथा) जैसे (सूर्यः) सूर्य के (वज्रेण) तीव्र तेज से (वृत्रस्य) बादल के (अपः) जलों को (अभिक्रम्य) पूरी तरह से पार करके, [बादल की] (सानुम्) गोद के प्रत्येक भाग को (छिनत्ति) छिन्न-भिन्न करता है, (तथा) वैसे ही (इन्द्रः) परम ऐश्वर्य के देनेवाला राजन्, (त्वम्) तुम (स्वराज्यम्) अपने राज्य की (अनु) भलाई के लिये (अर्चन्) उत्तम कार्य करते हुए (जिघ्नते) प्रहार करते हो। (सर्माय) जाते हुए और (स्वबलम्) अपने बल को (चोदयन्) प्रेरित करते हुए, (दोधतः) क्रोध करते हुए, (शत्रोः) शत्रु के (बलम्) बल को (अभिक्रम्य) पूरी तरह से पार करके (सेनाम्) सेना को (छित्त्वा) मार करके, उसका (हीळितः) अपमान करते (सन्) हुए (क्रोधम्) क्रोध को (अव) शुद्धता से (सृज) पैदा करो ॥५॥

    संस्कृत भाग

    इन्द्रः॑ । वृ॒त्रस्य॑ । दोध॑तः । सानु॑म् । वज्रे॑ण । ही॒ळि॒तः । अ॒भि॒ऽक्रम्य॑ । अव॑ । जि॒घ्न॒ते॒ । अ॒पः । सर्मा॑य । चो॒दय॑न् । अर्च॑न् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् ॥ विषयः- पुनस्तस्य कर्त्तव्यानि कर्माण्युपदिश्यन्ते ॥ भावार्थः(महर्षिकृतः)- अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये सूर्यवदविद्यां निवार्य विद्यां प्रकाश्य दुष्टान् संताड्य धार्मिकान् सत्कुर्वन्ति ते विद्वत्सु सत्कृता जायन्ते ॥५॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे सूर्याप्रमाणे अविद्यांधकार नष्ट करून विद्येचा प्रकाश करतात व दुष्टांना दंड देऊन धर्मात्मा लोकांचा सत्कार करतात. ते विद्वानांमध्ये सत्कार करण्यायोग्य ठरतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Indra, lord ruler of might, hero of war, adored and passionate, striking with the thunderbolt on the top of the ferocious cloud of evil fighting against sustenance of life, exhorts his own forces of freedom and, in reverence and homage to the land of freedom and self- governance, breaks the cloud to let the waters of light and life aflow.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of Indra are taught further in the fifth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned Indra (President of the council of Ministers) Just as the sun attacks all over with his fierce heat and cuts off the different portions of the cloud, so do thou assert thy sovereignty and send thy troops to attack the army of thy · enemy that might be going about killing and destroying in thy kingdom. If thy foe happens to disperse thy troop and if, therefore, thy subjects disparage thee, let thy wrath itself be upon thy enemy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (बोधत:) क्रुध्यत: दोधतीति क्रुध्यतिकर्मा (निघ० २.१२ ) = Of an angry person. (सानुम्) अंगानां संविभागम् = Different parts. (हील्तिः) अनादृतः = Insulted or disregarded. (हेड़- प्रनादरे ) (समर्यते) गच्छते = Going about.

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons are respected among the enlightened men who like the sun, dispel the darkness of ignorance, illuminate knowledge, punish the wicked and respect the righteous.

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    Subject of the mantra

    Then, the duties of the Chairman of the Assembly have been preached in this mantra.

    Etymology and English translation based on Anvaya (logical connection of words) of Maharshi Dayanad Saraswati (M.D.S)-

    He=O! (vidvan) =scholar, (yathā) =like, (sūryaḥ) =of Sun, (vajreṇa)= intense brightness, (vṛtrasya) =of cloud, (apaḥ) =to waters, (abhikramya)=crossing completely, [bādala kī]=of cloud, (sānum)= every part of the cloud's lap, (chinatti)= disintegrates, (tathā) =similarly, (indraḥ)=The king who gives ultimate opulence, (tvam) =you, (svarājyam) =of own kingdom, (anu) =for welfare, (arcan) =doing noble deeds, (jighnate)=you attack (sarmāya) =while leaving and, (svabalam) =to own strength, (codayan) =inspiring, (dodhataḥ)=getting angry, (śatroḥ) =of enemy, (balam) =strength, (abhikramya) =completely overcoming, (senām) =to army, (chittvā) =killing, it’s, (hīḻitaḥ +san) =insulting, (krodham) =to anger, (ava) =with purity (sṛja) =generate.

    English Translation (K.K.V.)

    O scholar! Just as the sun's intense brightness completely penetrates the waters of the cloud and disintegrates every part of the cloud's lap, in the same way, O king! who bestows supreme opulence, you strike, doing noble deeds for the welfare of your kingdom. While going and inspiring your strength, being angry, completely overcoming the enemy's force, you attack, killing the army, insulting him, generate anger with purity.

    TranslaTranslation of gist of the mantra by Maharshi Dayanandtion of gist of the mantra by Maharshi Dayanand

    There is silent vocal simile as a figurative in this mantra. Like the Sun, those who remove nescience, manifest knowledge and respect the righteous by punishing the wicked, become revered among the scholars.

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