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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 6
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒भे भ॒द्रे जो॑षयेते॒ न मेने॒ गावो॒ न वा॒श्रा उप॑ तस्थु॒रेवै॑:। स दक्षा॑णां॒ दक्ष॑पतिर्बभूवा॒ञ्जन्ति॒ यं द॑क्षिण॒तो ह॒विर्भि॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒भे इति॑ । भ॒द्रे इति॑ । जो॒ष॒ये॒ते॒ इति॑ । न । मेने॑ । गावः॑ । न । वा॒श्राः । उप॑ । त॒स्थुः॒ । एवैः॑ । सः । दक्षा॑णाम् । दक्ष॑ऽपतिः । ब॒भू॒व॒ । अ॒ञ्जन्ति॑ । यम् । द॒क्षि॒ण॒तः । ह॒विःऽभिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उभे भद्रे जोषयेते न मेने गावो न वाश्रा उप तस्थुरेवै:। स दक्षाणां दक्षपतिर्बभूवाञ्जन्ति यं दक्षिणतो हविर्भि: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उभे इति। भद्रे इति। जोषयेते इति। न। मेने। गावः। न। वाश्राः। उप। तस्थुः। एवैः। सः। दक्षाणाम्। दक्षऽपतिः। बभूव। अञ्जन्ति। यम्। दक्षिणतः। हविःऽभिः ॥ १.९५.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 6
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कालः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    भद्रे उभे रात्रिदिने मेने न यं समयं जोषयेते वाश्रा गावो नेवान्ये कालावयवा एवैरुपतस्थुर्दक्षिणतो हविर्भिर्य विद्वांसोऽञ्जन्ति स कालो दक्षाणामत्युत्तमानां पदार्थानां मध्ये दक्षपतिर्बभूव ॥ ६ ॥

    पदार्थः

    (उभे) द्यावापृथिव्यौ (भद्रे) सुखप्रदे (जोषयेते) सेवेते। अत्र स्वार्थे णिच्। (न) उपमार्थे (मेने) वत्सले स्त्रियाविव (गावः) धेनवः (न) इव (वाश्राः) वत्सान् कामयमानाः (उप) (तस्थुः) तिष्ठन्ते (एवैः) प्रापकैर्गुणैः सह (सः) (दक्षाणाम्) विद्याक्रियाकौशलेषु चतुराणां विदुषाम् (दक्षपतिः) विद्याचातुर्य्यपालकः (बभूव) भवति (अञ्जन्ति) कामयन्ते (यम्) कालम् (दक्षिणतः) दक्षिणायनकालविभागात् (हविर्भिः) यज्ञसामग्रीभिः ॥ ६ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यै रात्रिदिनादिकालावयवाः संसेवनीयाः। धर्मतस्तेषु यज्ञानुष्ठानादिश्रेष्ठव्यवहारा एवाचरणीया न त्वन्येऽधर्मादय इति ॥ ६ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह समय कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    (भद्रे) सुख देनेवाले (उभे) दोनों रात्रि और दिन (मेने) प्रीति करती हुई स्त्रियों के (न) समान (यम्) जिस समय को (जोषयेते) सेवन करते हैं (वाश्राः) बछड़ों को चाहती हुई (गावः) गौओं के (न) समान समय के और अङ्ग अर्थात् महीने वर्ष आदि (एवैः) सब व्यवहार को प्राप्त करानेवाले गुणों के साथ (उपतस्थुः) समीपस्थः होते हैं वा (दक्षिणतः) दक्षिणायन काल के विभाग से (हविर्भिः) यज्ञ सामग्री करके जिस समय को विद्वान् जन (अञ्जन्ति) चाहते हैं (सः) वह (दक्षाणाम्) विद्या और क्रिया की कुशलताओं में चतुर विद्वान् अत्युत्तम पदार्थों में (दक्षपतिः) विद्या तथा चतुराई का पालनेहारा (बभूव) होता है ॥ ६ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि रात-दिन आदि प्रत्येक समय के अवयव का अच्छी तरह सेवन करें। धर्म से उनमें यज्ञ के अनुष्ठान आदि श्रेष्ठ व्यवहारों का ही आचरण करें और अधर्म व्यवहार वा अयोग्य काम तो कभी न करें ॥ ६ ॥

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    विषय

    उत्तम बलों का पति

    पदार्थ

    १. (उभे) = गत मन्त्र में वर्णित काम - क्रोध दोनों प्रभु का प्रकाश होने पर (भद्रे) = कल्याणकारक व सुखदायी हो जाते हैं । काम तो वेदाधिगम [ज्ञानप्राप्ति] व शास्त्रविहित कर्मों को करने के लिए ही होता है और इस प्रकार कल्याण का साधन बनता है । क्रोध भी औरों पर न होकर अपने पर ही होता है । अपनी गिरावट पर क्रोध आने से यह क्रोध भी कल्याणकारक ही होता है , (जोषयेते न) = ये काम - क्रोध हमें प्रभु का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाला - सा बना देते हैं और इसीलिए ये (मेने) = [मानयन्ति एनाम्] प्रशंसनीय होते हैं । 

    २. अब हमारे जीवनों में (वाश्राः) = बच्चों के लिए प्रेम से रम्भाती हुई (गावः न) = गौओं के समान (वाश्राः गावः) = ज्ञान का उपदेश करती हुई वेदवाणियाँ (एवैः) = कर्मों के हेतु से (उपतस्थुः) = हमें प्राप्त होती है । हम वेदज्ञान को प्राप्त करते हैं और उनमें उपदिष्ट यज्ञात्मक कर्मों को करनेवाले बनते हैं । 

    ३. (सः) = वह वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति (दक्षाणां दक्षपतिः) = उत्तम बलों का स्वामी (बभूव) = होता है । उन बलों का स्वामी होता है जो बल [दक्ष to grow] उन्नति व विकास का ही कारण बनते हैं । 

    ४. यह वेदोपदिष्ट मार्ग पर चलनेवाला व्यक्ति वह होता है (यम्) = जिसको (दक्षिणतः) = वाम व कुटिलता से विपरीत , दक्षिण व सरल [दक्षिणे सरलोदारौ] मार्ग से अर्जित धन (हविर्भिः) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (अञ्जन्ति) = अलंकृत जीवनवाला बनाते हैं , अर्थात् यह वैदिक जीवनवाला व्यक्ति न्याय मार्ग से ही धनों का अर्जन करता है और उन्हें सदा यज्ञों में विनियुक्त करता हुआ यज्ञशेष का ही सेवन करनेवाला होता है । इस प्रकार इसका जीवन सद्गुणों से मण्डित हो जाता है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - काम - क्रोध के नियन्त्रित होने पर हमारा जीवन वैदिक बनता है । हम उत्तम बलों के पति होते हैं और सरल मार्ग से धनों को कमाते हुए यज्ञशेष का सेवन करनेवाले होते हैं । 
     

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    विषय

    उभय पक्ष की सेनाओं के बीच में वीर की स्थिति ।

    भावार्थ

    ( भद्रे मेने न ) सेवने योग्य, शोभन अंग वाली, सुखप्रद दो स्त्रियां जैसे एक ही पुरुष को प्रेम करें उस प्रकार मानो ( उभे ) दोनों पक्षों की प्रजाएं ( यं ) जिस उत्तम पुरुष को ( जोषयेते ) प्रेम करती हैं ( वाश्राः गावः न ) जिस प्रकार हंभारती हुई गोवें ( एवैः ) अपने शीघ्रतापूर्वक गमनों द्वारा अपने बच्चों को पहुंचती है उस प्रकार (गावः) भूमि वासी प्रजाजन भी ( यम् उपतस्थुः ) जिसके पास प्रेम से पहुंचते हैं और जिस प्रकार (हविर्भिः) नाना यज्ञ-सामग्रियों से ( दक्षिणतः ) दक्षिणायन काल में अथवा दायें हाथ से अग्नि को प्रज्वलित करते हैं उसी प्रकार (यं) जिस वीर नायक विद्वान् जन को (हविर्भिः) नाना स्वीकार योग्य उपायों द्वारा ( दक्षिणतः ) दक्षिण अर्थात् दायें हाथ की ओर ( अञ्जन्ति ) सुशोभित करते हैं, ( सः ) वह ( दक्षाणाम् ) समस्त क्रियाकुशल पुरुषों में से ( दक्षपतिः ) सबका स्वामी, सबसे बड़ा ( बभूव ) हो । (२) सूर्य को आकाश और पृथ्वी दोनों सेवते हैं, किरणें उसे अपने प्रकाशों से प्राप्त होती हैं । ( दक्षिणतः ) दक्षिणायन काल में वे किरणें उसके प्रकाश को अधिक उज्ज्वल कर देते हैं। वह सब यज्ञ क्रियासाधकों का स्वामी है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी रात्र व दिवस इत्यादी प्रत्येक काळाच्या अवयवांचा चांगल्या प्रकारे स्वीकार करावा. त्यात धर्मयुक्त यज्ञाच्या अनुष्ठानाने श्रेष्ठ व्यवहाराचे आचरण करावे. अधर्म व्यवहार किंवा अयोग्य काम तर कधीच करू नये. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Both night and day, noble and loving, nurse and serve the sun, Agni, just as lowing cows stay by the calves with all their love and care. Of those dedicated experts of yajna who serve Agni with oblations, he rises above all who offers the oblations from the south.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Kala (Time) is taught in the sixth Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Both the auspicious ones (day and night) or heaven and earth serve him (Kala or Time) with their attributes like two female attendants, as lowing cows desiring calves follow their paths. He is the lord of might and the protector of the knowledge and dexterity among mighty experts in knowledge, arts and handicrafts. All other parts or divisions desire him with oblations in the Dakshirnayana or Sun's progress south of the equator-winter solitice or sitting in the right side of the fire.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    (मेने) वत्सले स्त्रियो इव = Like two women or female attendants. (एव:) प्रापकैः गुणै: सह = With their attributes. (दक्षाणाम्) विद्याक्रियाकौशलेषु चतुराणाम् = Of the persons experts in knowledge, arts and handicrafts. (अंजन्ति)कामयन्ते = Desire

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is Upamalankara or simile used in the Mantra. Men should serve or utilise day and night and other parts of Time. They should perform only righteous acts like the Yajnas (non-violent sacrifices) in them and should never do unrighteous act

    Translator's Notes

    एवै: is derived from इण्-गतो इण् क्रीडायां वन् इतिभावे वन् प्रत्ययः दक्ष इति बलनाम (निघ० २.९ ) ।

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