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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 95 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 95/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कुत्सः आङ्गिरसः देवता - सत्यगुणविशिष्टोऽग्निः शुद्धोऽग्निर्वा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उद्यं॑यमीति सवि॒तेव॑ बा॒हू उ॒भे सिचौ॑ यतते भी॒म ऋ॒ञ्जन्। उच्छु॒क्रमत्क॑मजते सि॒मस्मा॒न्नवा॑ मा॒तृभ्यो॒ वस॑ना जहाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । यं॒य॒मी॒ति॒ । स॒वि॒ताऽइ॑व । बा॒हू इति॑ । उ॒भे इति॑ । सिचौ॑ । य॒त॒ते॒ । भी॒मः । ऋ॒ञ्जन् । उत् । शु॒क्रम् । अत्क॑म् । अ॒ज॒ते॒ । सि॒मस्मा॑त् । नवा॑ । मा॒तृऽभ्यः॒ । वस॑ना । ज॒हा॒ति॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उद्यंयमीति सवितेव बाहू उभे सिचौ यतते भीम ऋञ्जन्। उच्छुक्रमत्कमजते सिमस्मान्नवा मातृभ्यो वसना जहाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत्। यंयमीति। सविताऽइव। बाहू इति। उभे इति। सिचौ। यतते। भीमः। ऋञ्जन्। उत्। शुक्रम्। अत्कम्। अजते। सिमस्मात्। नवा। मातृऽभ्यः। वसना। जहाति ॥ १.९५.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 95; मन्त्र » 7
    अष्टक » 1; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कालः कीदृश इत्युपदिश्यते ।

    अन्वयः

    हे मनुष्या यो भीम ऋञ्जन् कालो मातृभ्यः सवितेवोद्यंयमीति, बाहू उभे सिचौ यतते स कालोऽत्कं शुक्रं सिमस्मादुदजते, नवा वसना जहातीति जानीत ॥ ७ ॥

    पदार्थः

    (उत्) उत्कृष्टे (यंयमीति) पुनःपुनरतिशयेन नियमं करोति (सवितेव) यथा सूर्य्य आकर्षणेन भूगोलान् धरति तथा (बाहू) बलवीर्य्ये (उभे) द्यावापृथिव्यौ (सिचौ) वृष्टिद्वारा सेचकौ वाय्वग्नी (यतते) व्यवहारयति (भीमः) बिभेत्यस्मात्सः (ऋञ्जन्) प्राप्नुवन् (उत्) (शुक्रम्) पराक्रमम् (अत्कम्) निरन्तरम् (अजते) क्षिपति। व्यत्ययेनात्रात्मनेपदम्। (सिमस्मात्) सर्वस्माज्जगतः (नवा) नवीनानि (मातृभ्यः) मानविधायकेभ्यः क्षणादिभ्यः (वसना) आच्छादनानि (जहाति) त्यजति ॥ ७ ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। हे मनुष्या युष्माभिर्येन कालेन सूर्य्यादिकं जगज्जायते यो वा क्षणादिना सर्वमाच्छादयति सर्वनियमहेतुः सर्वेषां प्रवृत्त्यधिकरणोऽस्ति तं विज्ञाय यथासमयं कृत्यानि कर्त्तव्यानि ॥ ७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह समय कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (भीमः) भयङ्कर (ऋञ्जन्) सबको प्राप्त होता हुआ काल (मातृभ्यः) मान करनेहारे क्षण आदि अपने अवयवों से (सवितेव) जैसे सूर्य्यलोक अपनी आकर्षणशक्ति से भूगोल आदि लोकों का धारण करता है वैसे (उद्यंयमीति) बार-बार नियम रखता है (बाहू) बल और पराक्रम वा (उभे) सूर्य्य और पृथिवी (सिचौ) वा वर्ष के द्वारा सींचनेवाले पवन और अग्नि को (यतते) व्यवहार में लाता है, वह काल (अत्कम्) निरन्तर (शुक्रम्) पराक्रम को (सिमस्मात्) सब जगत् से (उद्) ऊपर की श्रेणी को (अजते) पहुँचाता और (नवा) नवीन (वसना) आच्छादनों को (जहाति) छोड़ता है, यह जानो ॥ ७ ॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! तुम लोगों को जिस काल से सूर्य आदि जगत् प्रकट होता है और जो क्षण आदि अङ्गों से सबका आच्छादन करता, सबके नियम का हेतु वा सबकी प्रवृत्ति का अधिकरण है, उसको जान के समय-समय पर काम करने चाहिये ॥ ७ ॥

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    विषय

    नव - वस्त्र - हान = मोक्ष

    पदार्थ

    १. गतमन्त्र का दक्षपति (उत्) = प्राकृतिक भोगों से ऊपर उठा हुआ (यंयमीति) = काम - क्रोध को पूर्णरूप से वश में [नियमन] करता है । सविता इव सूर्य की भाँति (बाहू) = इसकी भुजाएँ होती हैं । सूर्य जैसे चलता हुआ थकता नहीं , वैसे ही इसकी भुजाएँ सदा यत्नशील होती हैं । यह अकर्मण्य न होकर प्रभु के इस आदेश को समझता है - ‘कर्मणे हस्तौ विसृष्टौ’ । 

    २. कर्म के द्वारा शक्तिशाली व (भीमः) = शत्रुओं के लिए भयंकर होता हुआ यह (उभे सिचौ) = दोनों द्यावापृथिवी को - मस्तिष्क व शरीर को (ऋञ्जन्) = प्रसाधित व अलंकृत करता हुआ (यतते) = उद्योग करता है । यह मस्तिष्क में ज्ञान का और शरीर में शक्ति का सेचन करता है । इनको ज्ञान व शक्ति से सम्पन्न करने में यह यत्नशील होता है । इसका मस्तिष्क व शरीर दोनों मिलकर इसके जीवन को क्रियाशील बनाते हैं । 

    ३. इस क्रियाशीलता से इसका जीवन वासना - शून्य होता है और परिणामस्वरूप (अत्कम्) = निरन्तर गतिशील , बहने के स्वभाववाला (शुक्रम्) = वीर्य (उत् अजते) = ऊर्ध्वगतिवाला होता है । 

    ४. (सिमस्मात्) = शुक्र की ऊर्ध्वगति के कारण अङ्गों की पूर्णता से [सिम-whole] तथा (मातृभ्यः) = [मान पूजायाम्] निर्माणात्मक प्रशंसनीय कर्मों के द्वारा (नवा वसना) = नये शरीररूपी वस्त्रों को (जहाति) = छोड़नेवाला होता है । गीता में शरीर को वस्त्र से उपमित किया है । यह शरीर अब तो है ही , परन्तु शुक्ररक्षण होने पर पूर्ण स्वास्थ्य तथा प्रशंसनीय कर्मों को करने से यह स्थिति होती है कि नया शरीर नहीं मिलता अर्थात् मोक्ष प्राप्त हो जाता है । मातृ शब्द निर्माता के लिए आता है । यहाँ उस से निर्माणात्मक कर्मों का ग्रहण हुआ है । नववस्त्रों को छोड़ना ही नये शरीर का ग्रहण न करना है - यही मोक्ष है । 
     

    भावार्थ

    भावार्थ - काम - क्रोध को वश में करके मस्तिष्क व शरीर को ज्ञान व शक्ति से युक्त करके क्रियाशील बनने पर मनुष्य नये शरीर को ग्रहण नहीं करता - मुक्त हो जाता है । 
     

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    विषय

    उसका पराक्रम, साथ ही सूर्य का जलाकर्षण आदि वर्णन।

    भावार्थ

    ( सविता इव ) सूर्य जिस प्रकार ( सिचौ ) वृष्टि करने वाले वायु और मेघ दोनों को (ऋञ्जन्) अपने वश करता हुआ ( उत् यंयमीति ) ऊपर उठाता और नियम में रखता है और समस्त भूमण्डल से ( अत्कम् ) सार भूत, व्यापक, सूक्ष्म (शुक्रम्) जल को ऊपर खींच लेता है और पुनः बरसाकर भूमियों को नये हरे चोले पहना देता है उसी प्रकार जो नेता, सेनानायक (भीमः) शत्रुओं के लिये भयंकर होकर ( उभे सिचौ ) दोनों पक्षों की शस्त्र-वर्षण-कारी सेनाओं को ( बाहू ) दो बाजुओं के समान ( उद् यं यमीति ) युद्ध के लिये उद्यत करता है, उनको सदा आक्रमण के लिये तैयार रखता है और ( ऋञ्जन् ) उनको अच्छी प्रकार तैयार करता हुआ ( उत् यतते ) आक्रमण का उद्योग करता है वह ( सिमस्मात् ) समस्त राष्ट्र से ( शुक्रम् ) शीघ्र कार्य करने वाले चुस्त, बलवान्, पराक्रमशील ( अत्कम् ) निरन्तर गतिशील सैन्य-बल को ( उत्-अजते ) उठा लेता है, चुन लेता है और ( मातृभ्यः ) माता के समान अपने शरीर को अर्पण करके रक्षा करने वाली सेनाओं को ( नवा वसना ) नयी २ पोशाकें (जहाति) प्रदान करता है । अथवा—(मातृभ्यः) मातृ रूप भूमियों को नये वस्त्रों के समान नये रक्षक सैन्य प्रदान करता है।

    टिप्पणी

    शुक्रम् इत्युदकनाम । निघ० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कुत्स आंङ्गिरस ऋषिः॥ औषसगुणविशिष्टः सत्यगुणविशिष्टः, शुद्धोऽग्निर्वा देवता ॥ छन्द:-१, ३ विराट् त्रिष्टुप् । २, ७, ८, ११ त्रिष्टुप् । ४, ५, ६, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ६ भुरिक् पंक्तिः ॥ एकादशर्चं सूकम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो! ज्या काळापासून सूर्य इत्यादी जग प्रकट होते व जो क्षण इत्यादी अंगांनी सर्वांचे आच्छादन करतो. सर्वांच्या नियमाचा हेतू, सर्वांच्या प्रवृत्तीचे अधिकरण आहे. त्याला जाणून तुम्ही काळानुसार काम करा. ॥ ७ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    As the sun, this Agni raises its rays upward as two arms continuously and, growing awful and blazing, it joins both the horizons, brightening them both together. All round it radiates its light as if it offers new clothes to its mothers, the day and the night or the heaven and earth which hold the light in their lap.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How is that Kala (Time) is taught further in the seventh Mantra.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The time that stretches forth his arms and controls all like the sun controlling the worlds with his attraction, is fierce, comes again and again and controls moments, sets in motion strength and force, decorative earth and heaven, animals, winds and fire, that sprinkle through the rain. The Kala (Time) takes upwards all force continuously and puts off new garments.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    You should do all works punctually and regularly knowing the greatness of Kala (Time) who is the cause of the sun and other objects of the world, who covers all with various particles like moments, who is the controller of all and the course of all activity.

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