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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 2
    ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः देवता - द्रुघण इन्द्रो वा छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उत्स्म॒ वातो॑ वहति॒ वासो॑ऽस्या॒ अधि॑रथं॒ यदज॑यत्स॒हस्र॑म् । र॒थीर॑भून्मुद्ग॒लानी॒ गवि॑ष्टौ॒ भरे॑ कृ॒तं व्य॑चेदिन्द्रसे॒ना ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । स्म॒ । वातः॑ । व॒ह॒ति॒ । वासः॑ । अ॒स्याः॒ । अधि॑ऽरथम् । यत् । अज॑यत् । स॒हस्र॑म् । र॒थीः । अ॒भू॒त् । मु॒द्ग॒लानी॑ । गवि॑ष्टौ । भरे॑ । कृ॒तम् । वि । अ॒चे॒त् । इ॒न्द्र॒ऽसे॒ना ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत्स्म वातो वहति वासोऽस्या अधिरथं यदजयत्सहस्रम् । रथीरभून्मुद्गलानी गविष्टौ भरे कृतं व्यचेदिन्द्रसेना ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । स्म । वातः । वहति । वासः । अस्याः । अधिऽरथम् । यत् । अजयत् । सहस्रम् । रथीः । अभूत् । मुद्गलानी । गविष्टौ । भरे । कृतम् । वि । अचेत् । इन्द्रऽसेना ॥ १०.१०२.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यत्) जब (इन्द्रसेना) विद्युत्तरङ्गधारा (मुद्गलानी) मुद्गलपक्षी के आकारवाली मुद्गलपत्नी जैसी यन्त्रकीली (गविष्टौ) वृषभगति में (रथीः) नेत्री-ले जानेवाली होती है, तो (भरे) संग्राम में-संग्राम के निमित्त (कृतम्) कार्यक्रम को (वि अचेत्) विशेषरूप से व्यक्त करती है, तब (अधिरथम्) रथ के अधीन यन्त्रयान में हुआ (वातः) वायु (अस्याः) इसके (वासः) आच्छादनस्थान को (उद्वहति स्म) उत्प्रेरित करता है, (सहस्रम्-अजयत्) तब शत्रु के सहस्र बल को जीतता है ॥२॥

    भावार्थ

    सांग्रामिक रथयान में विद्युत् की तरङ्गशक्ति काम करती है, जो एक यन्त्र की कीली में निहित होती है, उससे यन्त्र संग्राम में गति करता है, तब यान में स्थित वायु उसके आच्छादनपात्र को उभार देता है, तो शत्रु के बहुत बलों को प्रभावित करता है, जीतता है ॥२॥

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    विषय

    मुद्गलानी द्वारा रथ-संचालन

    पदार्थ

    [१] जीव 'मुगल' है, तो उसकी पत्नीरूप बुद्धि 'मुद्गलानी' है । आत्मा शरीर रथ का स्वामी है, तो बुद्धि इस रथ का सारथि है । (यत्) = जब यह बुद्धि (अधिरथम्) = इस रथ में स्थित होकर (सहस्रम्) = शतशः वासनाओं को (अजयत्) = जीतती है तो (वातः) = प्राण (अस्याः) = इसके (वास:) = आच्छादन व आवरणभूत वासनारूप वस्त्र को (उद्वहति स्म) = दूर करता है। प्राणसाधना से काम का विनाश होता है। यह काम ही बुद्धि पर परदा-सा पड़ा हुआ होता है। इस परदे के हट जाने से ज्ञान चमक उठता है । [२] इस ज्ञान की दीप्ति में ही प्रभु का आभास मिलता है। सो (गविष्टौ) = उस प्रभु के गवेषण में (मुद्गलानी) = ओषधि वनस्पतियों का सेवन करनेवाले जीव की पत्नी रूप बुद्धि (रथीः) = शरीर रथ की संचालिका (अभूत्) = होती है । [३] जब बुद्धि प्रभु के अन्वेषण के लिए प्रवृत्त होती है तो (इन्द्रसेना) = इस जितेन्द्रिय पुरुष की (सेना) = अर्थात् इन्द्रियाँ प्राण, मन व बुद्धि (भरे) = [= इस अध्यात्म-संग्राम में (कृतं व्यचेत्) = सफलता से प्राप्त होनेवाले फल का चयन करे, अर्थात् विजयी बने ।

    भावार्थ

    भावार्थ- -बुद्धि प्रभु-दर्शन में प्रवृत्त होती है, तो हमारी इन्द्रियाँ, मन व प्राण वासनाओं का पराजय करनेवाले होते हैं।

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    विषय

    वीर पुरुष का कार्य। पक्षान्तर में—वृष्टि द्वारा प्रजा-पोषण।

    भावार्थ

    (यत्) जब (वातः) वायु के समान बलशाली पुरुष (रथीः) रथस्वामी, महारथी होकर (सहस्रम्) सहस्रों, बलवान् शत्रुओं का (अजयत्) विजय करता है, तब वह (अधि रथम्) रथ के ऊपर रह कर (अस्याः) इस सेना वा भूमि का (वासः) वस्त्र के तुल्य लज्जा-संगोपन तथा रक्षा के कार्य को अपने ऊपर धारण करता है। उस समय वह अधीन सेना (गविष्टौ) भूमियों को प्राप्त करने के निमित्त (मुद्गलानी अभूत्) हर्षों, सुखजनक साधनों को प्राप्त कराने वाली होती है। और वही (इन्द्र-सेना) शत्रु के नाशक वीर पुरुष की सेना (भरे कृतम्) संग्राम में किये विजय-लाभ और लक्ष्मी-लाभ को (वि अचेत्) विशेष रूप से, विविध प्रकार से प्राप्त करे। (२) आधिभौतिक पक्ष में—जब वायु इस भूमि के ऊपर के आच्छादक मेघ को धारण करता है (रथीः) वेगवान् रसमय मेघ से युक्त होकर (सहस्रम्) तेजस्वी सूर्य को विजय कर लेता है तब (मुद्गलानी) सुखप्रद अन्नों को देने वाली (इन्द्र-सेना) अन्नप्रद सूर्य वा किसान की स्वामित्व वाली भूमि (गो-इष्टौ) भूमि-यज्ञ, कृषि के करने पर (भरे) प्रजापोषण के निमित्त (कृतम् वि-अचेत्) उत्पन्न अन्न को विविध रूप से प्राप्त करती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्मुद्गलो भार्म्यश्वः॥ देवता—द्रुघण इन्द्रो वा॥ छन्दः- १ पादनिचृद् बृहती। ३, १२ निचृद् बृहती। २, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८, १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यत्) यदा (इन्द्रसेना मुद्गलानी) विद्युत्तरङ्गधारा मुद्गलस्य मदङ्गिलस्य मुद्गलपक्षिविशेषाकृतिमतो यन्त्रस्य “मुद्गलः पक्षिविशेषः” [शब्दकल्पद्रुमः] पत्नीव-काचित् यान्त्रिकी कीली (गविष्टौ रथीः-अभूत्) गोवृषभस्तस्येष्टौ गत्यां रथी नेत्री भवति (भरे कृतं वि अचेत्) सङ्ग्रामे-सङ्ग्रामनिमित्तम् ‘निमित्तसप्तमी’ कृतं कार्यक्रमं विचिनोति व्यक्तं करोति, तदा (अधिरथं वातः) रथे तद्यन्त्रयाने जातो वायुः (अस्याः-वासः-उत् वहति स्म) अस्या आच्छादनस्थानमुत्प्रेरयति (सहस्रम्-अजयत्) शत्रोरसंख्यबलं जयति ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The wind raises and unfurls the banner of this force of Indra on the chariot which wins over thousands. The mace of the waxing force of Indra rides the chariot as commander in the heat of battle, the army moves and extends its exploits (against malice, hate and enmity).

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    युद्धातील रथयानात विद्युतची तरंगशक्ती काम करते. जी एका यंत्रकलेत असते. त्याद्वारे यंत्र युद्धात गती करते. तेव्हा यानातील वायू त्याच्या आच्छादन स्थानाला उत्प्रेरित करतो. तेव्हा शत्रूंचे आत्यंतिक बल निष्प्रभ करून त्यांना जिंकतो. ॥२॥

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