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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 102 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 102/ मन्त्र 7
    ऋषिः - मुद्गलो भार्म्यश्वः देवता - द्रुघण इन्द्रो वा छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त प्र॒धिमुद॑हन्नस्य वि॒द्वानुपा॑युन॒ग्वंस॑ग॒मत्र॒ शिक्ष॑न् । इन्द्र॒ उदा॑व॒त्पति॒मघ्न्या॑ना॒मरं॑हत॒ पद्या॑भिः क॒कुद्मा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । प्र॒ऽधिम् । उत् । अ॒ह॒न् । अ॒स्य॒ । वि॒द्वान् । उप॑ । अ॒यु॒न॒क् । वंस॑गम् । अत्र॑ । शिक्ष॑न् । इन्द्रः॑ । उत् । आ॒व॒त् । पति॑म् । अघ्न्या॑नाम् । अरं॑हत । पद्या॑भिः । क॒कुत्ऽमा॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत प्रधिमुदहन्नस्य विद्वानुपायुनग्वंसगमत्र शिक्षन् । इन्द्र उदावत्पतिमघ्न्यानामरंहत पद्याभिः ककुद्मान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । प्रऽधिम् । उत् । अहन् । अस्य । विद्वान् । उप । अयुनक् । वंसगम् । अत्र । शिक्षन् । इन्द्रः । उत् । आवत् । पतिम् । अघ्न्यानाम् । अरंहत । पद्याभिः । ककुत्ऽमान् ॥ १०.१०२.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 102; मन्त्र » 7
    अष्टक » 8; अध्याय » 5; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (विद्वान्) विद्वान् चालक (वंसगम्) वृषभयान के सम्भजनीय अङ्ग-मुख्य अङ्ग को (शिक्षन्) प्रेरित करता है (इन्द्रः) विद्युत् अग्नि (अघ्न्यानाम्) अहन्तव्य तरङ्गमालाओं के (पतिम्) रक्षक मूलयन्त्र को (उत् आवत्) उत्तेजित करता है, पुनः (ककुद्मान्) गति तरङ्गवाला कृत्रिम वृषभ-वृषभरथ (पद्याभिः) पादस्थानीय चक्रकलाओं के द्वारा (अरंहत) गति करता है ॥७॥

    भावार्थ

    वृषभ आकृतिवाले यान के मुख्य अङ्ग को चालक प्रेरणा करता है, तो विद्युत् अग्नि अपने तरङ्गों के रक्षक पात्र को उत्तेजित करता है, तो वह गतिमान् वृषभयान चलनेवाले गतिचक्रों से चला करता है ॥७॥

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    विषय

    ज्ञान शक्ति व जितेन्द्रियता

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (विद्वान्) = ज्ञानी पुरुष (अस्य प्रधिम्) = इस ब्रह्माण्ड के प्रकृष्ट धारक अथवा प्रधिभूत प्रभु को (उद् अहन्) = [ हन् गतौ ] उत्कर्षेण प्राप्त होता है । चक्र जिस प्रकार प्रधि के द्वारा सुरक्षित रहता है, इसी प्रकार यह ब्रह्माण्ड प्रभु के द्वारा सुरक्षित है । इस प्रभु की प्राप्ति के लिए ज्ञान को प्राप्त करना आवश्यक है। [२] (अत्र) = इस जीवन में (शिक्षन्) = [ शक् सन्] अपने को शक्तिशाली बनाने की कामनावाला (वंसगम्) = वननीय [= सुन्दर] गतिवाले प्रभु को (उपायुनक्) = अपने साथ समीपता से जोड़ता है। प्रभु की प्राप्ति सबल को होती है, 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' निर्बल से ये प्रभु प्राप्त होने योग्य नहीं । प्रभु प्राप्ति के लिए जहाँ ज्ञान की आवश्यकता है, वहाँ शक्ति का भी उतना ही महत्त्व है । 'ब्रह्म व क्षत्र' का विकास हमें प्रभु प्राप्ति के योग्य बनाता है [३] (इन्द्र:) = जितेन्द्रिय पुरुष (अघ्न्यानां अहन्तव्य) = न नष्ट करने योग्य, सदा अध्ययन के योग्य ज्ञान की वाणियों के (पतिम्) = स्वामी प्रभु को (उद् आवत्) = उत्कर्षेण प्राप्त होता है [अव् गतौ ] । प्रभु प्राप्ति के लिए जहाँ ज्ञान व शक्ति का सम्पादन आवश्यक है, वहाँ जितेन्द्रियता भी उतनी ही महत्त्वपूर्ण है। वस्तुतः जितेन्द्रियता ही ज्ञान व शक्ति का मूल है। ज्ञान प्राप्ति में लगे रहना जितेन्द्रियता का साधन हो जाता है। [४] इस प्रकार (पद्याभिः) = ज्ञान, शक्ति व जितेन्द्रियता के मार्गों से चलता हुआ (ककुद्मान्) = शिखरवाला, अर्थात् उन्नति पर्वत के शिखर पर पहुँचनेवाला व्यक्ति अरंहत तीव्र गति से प्रभु की ओर बढ़ता है। मस्तिष्क का विकास करता हुआ यह ज्ञानशिखर पर पहुँचता है । मन का विकास करता हुआ जितेन्द्रियों का अग्रणी बनता है। शरीर का विकास करता हुआ शक्ति का पुञ्ज बनता है। इस प्रकार इसका उन्नति पर्वत ज्ञान, शक्ति व जितेन्द्रियतारूप तीन शिखरोंवाला होता है। यही व्यक्ति प्रभु को प्राप्त करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम ज्ञानी, जितेन्द्रिय व शक्ति सम्पन्न बनकर प्रभु को प्राप्त करें ।

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    विषय

    प्रभु की प्राप्ति।

    भावार्थ

    (विद्वान्) ज्ञानवान् पुरुष, (अस्य प्रधिम्) इस संसार के सर्वोत्कृष्ट धारक पालक प्रभु को (उत् अहन्) उत्तम रीति से प्राप्त करे। वह (इन्द्रः) तत्वदर्शी पुरुष (अत्र) इसी देह में (शिक्षन्) अपने को समर्पण करता हुआ (वंसगम्) समस्त लोकों के संञ्चालक, और उनमें व्यापक, (अध्न्यानां पतिम्) अविनाशी शक्तियों के पालक प्रभु को (उत् आवत्) उत्तम पद पर प्राप्त करता है, और (कुकुद्मान्) श्रेष्ठ होकर (पद्याभिः अरंहत) उत्तम चलने योग्य मार्गों से गति करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्मुद्गलो भार्म्यश्वः॥ देवता—द्रुघण इन्द्रो वा॥ छन्दः- १ पादनिचृद् बृहती। ३, १२ निचृद् बृहती। २, ४, ५, ९ निचृत् त्रिष्टुप्। ६ भुरिक् त्रिष्टुप्। ७, ८, १० विराट् त्रिष्टुप्। ११ पादनिचृत् त्रिष्टुप्।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (विद्वान् वंसगं शिक्षन्) विद्वान् यन्ता-चालकः सम्भजनीयमङ्गं शास्ति प्रेरयति (इन्द्रः-अघ्न्यानां-पतिम्-उत्-आवत्) विद्युदग्निः स्वकीयानामहन्तव्यतरङ्गमालानां रक्षकं मूलयन्त्रमुत्तेजयति पुनः (ककुद्मान्-पद्याभिः-अरंहत) गतितरङ्गवान् कृत्रिमवृषभः “ककि गत्यर्थः” [भ्वादि०] उतिप्रत्ययः-औणादिकः पादस्थानीयचक्र-कलाभिर्गच्छति ॥७॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And taking on to the steering wheel of the system, the scholar leader should take to the leading power, at the same time energising it. Thus does Indra animate and drive the master power of the circuit of currents, imperishable energies, and, more and more powerful, moves on his mission by motions of the wheels.$(The mantra may be applied to the individual human system and its spiritual advancement. Indra, the soul, takes on the Buddhi, intelligential steering wheel, controlling the master power of the senses, that is, the mind, and using the senses of perception and will for onward motion, lives a dynamic life of success and progress.)

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वृषभाकृतीयुक्त यानाच्या मुख्य अंगाला चालक प्रेरित करतो. तो विद्युत अग्नी आपल्या तरंगांच्या रक्षक पात्राला उत्तेजित करतो तेव्हा ते गतिमान वृषभयान गतिचक्राने चालते. ॥७॥

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