ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 152/ मन्त्र 3
वि रक्षो॒ वि मृधो॑ जहि॒ वि वृ॒त्रस्य॒ हनू॑ रुज । वि म॒न्युमि॑न्द्र वृत्रहन्न॒मित्र॑स्याभि॒दास॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठवि । रक्षः॑ । वि । मृधः॑ । ज॒हि॒ । वि । वृ॒त्रस्य॑ । हनू॒ इति॑ । रु॒ज॒ । वि । म॒न्युम् । इ॒न्द्र॒ । वृ॒त्र॒ऽह॒न् । अ॒मित्र॑स्य । अ॒भि॒ऽदास॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
वि रक्षो वि मृधो जहि वि वृत्रस्य हनू रुज । वि मन्युमिन्द्र वृत्रहन्नमित्रस्याभिदासतः ॥
स्वर रहित पद पाठवि । रक्षः । वि । मृधः । जहि । वि । वृत्रस्य । हनू इति । रुज । वि । मन्युम् । इन्द्र । वृत्रऽहन् । अमित्रस्य । अभिऽदासतः ॥ १०.१५२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 152; मन्त्र » 3
अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 10; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र) हे परमात्मन् या राजन् ! (रक्षः-वि जहि) जिससे रक्षा करनी चाहिये, ऐसे दुष्ट को विनष्ट कर (मृधः-वि) संग्रामकर्ताओं को नष्ट कर (वृत्रस्य) आक्रमणकारी के (हनू) मुख के ऊपर नीचे के दोनों अङ्गों को (रुज) पीड़ित कर, भग्न कर (वृत्रहन्) हे आक्रमणकारी के हनन करनेवाले ! (अभिदासतः) सामने मारनेवाले (अमित्रस्य) शत्रु के (मन्युम्) क्रोध को (वि) विनष्ट कर ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा या राजा संग्रामकर्ताओं का विनाशक, आक्रमणकारी शत्रु के मुख के ऊपर नीचे दोनों अङ्गों को भग्न करनेवाला, आक्रमणकारी का हननकर्ता सामने आकर नाशकारी शत्रु के क्रोध को विलीन करनेवाला होता है ॥३॥
विषय
वृत्र [विनाश] दंष्ट्रा भंग
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले, (वृत्र- हन्) = ज्ञान की आवरणभूत वासना का विनाश करनेवाले प्रभो ! आप (रक्षः) = अपने रमण के हेतु औरों के विनाश का कारण बननेवाली लोभवृत्ति को (विजहि) = विनष्ट करिये । (मृधः) = अग्नि के रूप से हमारा हिंसन करनेवाली इस क्रोधाग्नि को आप (वि) = [ जहि ] विनष्ट करिये । तथा (वृत्रस्य) = कामवासना के भी हनू दंष्ट्राओं को विरुज भग्न कर दीजिये। यह कामवासनारूप शेरनी हमें अपने दंष्ट्राओं से विदीर्ण न कर दे । [२] हे इन्द्र ! (अभिदासतः) = हमें अपना दास बनानेवाले व हमारा उपक्षय करनेवाले (अमित्रस्य) = हमारी मृत्यु का कारण बननेवाले इन काम आदि शत्रुओं के (मन्युम्) = क्रोध को व उग्रता को (वि) [ जहि ] = विनष्ट करिये। ये काम-क्रोध आदि शत्रु अपनी उग्रता को हमारे सामने खो बैठें। ये पूर्णरूप से हमारे वश में हों। हम इनके दास न हों।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु कृपा से हम लोभ, क्रोध व काम की उग्रता को विनष्ट करके इनपर प्रभुत्व को पा सकें।
विषय
उससे विघ्ननाश आदि की प्रार्थना।
भावार्थ
(रक्षः वि जहि) विघ्नकारी राक्षसों को विविध प्रकार से नाश कर। (मृधः वि जहि) हिंसक शत्रुओं और संग्राम करने वालों को भी विशेष रूप से ताड़ित कर। हे (वृत्र-हन्) शत्रु के नाशक ! तू (वृत्रस्य) बढ़ते लोभादि शत्रु के (हनू-विरुज) आघातकारी साधनों वा खाने के दाढ़ों के तुल्य साधनों को विशेष रूप से तोड़ डाल। हे (इन्द्र) आत्मन् ! तू (अभि-दासतः) हम को सब प्रकार से नाश करने वाले (अमित्रस्य) शत्रु के (मन्युम् वि जहि) क्रोध का नाश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः शासो भारद्वाजः॥ इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, २, ४ निचृदनुष्टुप्। ३ अनुष्टुप्। ५ विराडनुष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र) परमात्मन् राजन् ! वा (रक्षः-वि जहि) रक्षितव्यं यस्मात् तं दुष्टं विनाशय (मृधः-वि) संग्रामकर्तॄन् विनाशय (वृत्रस्य हनू रुज) आक्रमणकारिणः हनू-मुखस्याङ्गविशेषो पीडय (वृत्रहन्) आक्रमणकारिणो हन्तः ! ( अभिदासतः-अमित्रस्य मन्युं वि) सम्मुखं नाशयतः शत्रोः क्रोधं विगमय ॥३॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Destroyer of the demon and the destroyer, break the jaws of evil. O Indra, destroyer of evil and darkness, shatter the mind and morale of the enemy who tries to suppress, subdue and enslave us.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा किंवा राजा युद्धकर्त्यांचा विनाशक, आक्रमणकाऱ्याचा हननकर्ता, समोर येऊन नाश करणाऱ्या शत्रूच्या क्रोधाला विलीन करणारा असतो. ॥३॥
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