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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 187 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 187/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वत्स आग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यः पर॑स्याः परा॒वत॑स्ति॒रो धन्वा॑ति॒रोच॑ते । स न॑: पर्ष॒दति॒ द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । पर॑स्याः । प॒रा॒ऽवतः॑ । ति॒रः । धन्व॑ । अ॒ति॒ऽरोच॑ते । सः । नः॒ । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः परस्याः परावतस्तिरो धन्वातिरोचते । स न: पर्षदति द्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । परस्याः । पराऽवतः । तिरः । धन्व । अतिऽरोचते । सः । नः । पर्षत् । अति । द्विषः ॥ १०.१८७.२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 187; मन्त्र » 2
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 45; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (परस्याः) परदिशा से (परावतः) दूर देश से (धन्व) अन्तरिक्ष में (तिरः) विस्तीर्ण हुआ (अतिरोचते) बहुत प्रकाशित हो रहा है, (स-नः०) पूर्ववत् ॥२॥

    भावार्थ

    परमात्मा के लिए कोई दिशा या देश दूर नहीं है, वह हृदयाकाश में अत्यन्त प्रकाशित रहता है, द्वेष करनेवाले शत्रुओं को दूर रखता है ॥२॥

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    विषय

    सर्वत्र रोचमान प्रभु

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो प्रभु (परस्याः परावतः) = दूर से दूर स्थान में स्थित हुए हुए भी (धन्व) = सम्पूर्ण अन्तरिक्ष को (तिर:) = [cross wise] एक सिरे से दूसरे सिरे तक (अतिरोचते) = अतिशयेन प्रकाशित कर रहे हैं, (स) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः) = सब द्वेषवृत्तियों से (अतिपर्षत्) = पार ले जायें। [२] सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में उस एक प्रभु का ही शासन है, हम सब उस प्रभु की ही प्रजा हैं। यह चिन्तन हमें परस्पर प्रेमवाला बनाता है, इस प्रेम में हम सर्वत्र प्रभु का प्रकाश देखते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्वत्र प्रभु के प्रकाश को देखते हुए हम द्वेष से ऊपर उठें।

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    विषय

    बलशाली सुखों का वर्षक, दुष्टनाशक प्रभु।

    भावार्थ

    (यः) जो (परस्याः परावतः) दूर से भी दूर स्थान से, (तिरः धन्व) अन्तरिक्षवत् सब पार कर (अति रोचते) खूब प्रकाशित होता है। (सः नः द्विषः अतिपर्षत्) वह सूर्यवत् तेजस्वी प्रभु हमें समस्त बाहरी और भीतरी शत्रुओं से पार करे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्स आग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृद् गायत्री। २—५ गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः परस्याः परावतः) यः परमेश्वरः परस्यादिशो दूरदेशाच्च (धन्व तिरः-अतिरोचते) अन्तरिक्षे “धन्व-अन्तरिक्षनाम” [निघ० १।३] “सुपां सुलुक्” [अष्टा० ७।१।३९] इति ङिविभक्तेर्लुक्, विस्तीर्णः सन् बहु प्रकाशते (स नः० ) पूर्ववत् ॥२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni who pervades and shines beatific from far and farther, over the deserts and across the spaces, casts away all our jealous, malignant and enemy forces, and washes us clean and immaculate.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्यासाठी कोणतीही दिशा किंवा देश (स्थान) दूर नाही. तो हृदयाकाशात प्रकाशित असतो. द्वेष करणाऱ्या शत्रूंना दूर ठेवतो. ॥२॥

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