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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 187 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 187/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वत्स आग्नेयः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    यो अ॒स्य पा॒रे रज॑सः शु॒क्रो अ॒ग्निरजा॑यत । स न॑: पर्ष॒दति॒ द्विष॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒स्य । पा॒रे । रज॑सः । शु॒क्रः । अ॒ग्निः । अजा॑यत । सः । नः॒ । प॒र्ष॒त् । अति॑ । द्विषः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अस्य पारे रजसः शुक्रो अग्निरजायत । स न: पर्षदति द्विष: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । अस्य । पारे । रजसः । शुक्रः । अग्निः । अजायत । सः । नः । पर्षत् । अति । द्विषः ॥ १०.१८७.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 187; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 8; वर्ग » 45; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (यः) जो परमेश्वर (अस्य) इस (रजसः) अन्तरिक्ष के (पारे) ऊपर स्वामी रूप से (शुक्रः) शुभ्र (अग्निः) अग्रणायक (अजायत) प्रसिद्ध है (स नः०) पूर्ववत् ॥५॥

    भावार्थ

    परमेश्वर इस महान् आकाश के भी ऊपर स्वामी रूप से प्रकाशमान अग्रणायक है, दुष्टों को दूर करता है, वह स्तुति करने योग्य है ॥५॥

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    विषय

    रजोगुण से परे

    पदार्थ

    [१] (यः) = जो प्रभु (अस्य रजसः) = इस रजोगुणात्मक संसार से (पारे) = पार हैं, इसमें असक्त हैं, (शुक्रः) = अत्यन्त दीप्त हैं, (अग्निः अजायत) = सब के अग्रेणी हुए हैं, (सः) = वे प्रभु (नः) = हमें (द्विषः) = सब द्वेष की भावनाओं से (अतिपर्षत्) = पार करें। [२] प्रभु कृपा से जब हम रजोगुण से ऊपर उठ पायेंगे तब हमारे हृदय ज्ञान की ज्योति से दीप्त होंगे। उस समय हम निरन्तर उन्नतिपथ पर आगे बढ़ रहे होंगे। द्वेष की भावनाएं उस समय समाप्त हो जायेंगी।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु स्मरण हमें रजोगुण से ऊपर उठाकर निद्वेष बनाता है। सम्पूर्ण सूक्त द्वेष से ऊपर उठने की बात कह रहा है । पाँच बार इस भाव को कहने का प्रयोजन यह है कि हम 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र व निषाद' किसी से भी द्वेष न करें । द्वेष से ऊपर उठने के लिये आवश्यक है कि हम 'श्येन' - गतिशील बने रहें, 'आग्नेय' अग्नि पुत्र 'अगि गतौ ' = खूब गतिशील । इसी श्येन आग्नेय का अगला सूक्त है-

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    विषय

    वह हमें पापों से पार करे।

    भावार्थ

    (यः) जो (अस्य रजसः पारे) इस लोक के पार, रजोगुण से परे (शुक्रः अग्निः अजायत) कान्तियुक्त, सबको भस्म करने वाला, अग्निवत् स्वयं प्रकाश आत्मा प्रकट है (सः नः द्विषः अति पर्षत्) वह हमें सब कष्टों से पार करे। इति पञ्चचत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्वत्स आग्नेयः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १ निचृद् गायत्री। २—५ गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (यः-अस्य रजसः पारे) यः परमेश्वरोऽस्यान्तरिक्षस्योपरि स्वामिरूपेण (शुक्रः-अग्निः-अजायत) शुभ्रोऽग्रणायकः प्रसिद्धो भवति (स नः० ) पूर्ववत् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    That Agni, self-refulgent supreme power that exists and manifests in and over and above this firmament and the oceanic depth of immeasurable space may, we pray, cast off our enemies and render us clean and free at peace.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर या महान आकाशाच्याही वरचा स्वामी आहे. तो प्रकाशमान व अग्रनायक आहे. दुष्टांना दूर करतो. तो स्तुती करण्यायोग्य आहे. ॥५॥

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