ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 2
प्र ते॑ अ॒स्या उ॒षस॒: प्राप॑रस्या नृ॒तौ स्या॑म॒ नृत॑मस्य नृ॒णाम् । अनु॑ त्रि॒शोक॑: श॒तमाव॑ह॒न्नॄन्कुत्से॑न॒ रथो॒ यो अस॑त्सस॒वान् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । प्र । अप॑रस्याः । नृ॒तौ । स्या॒म॒ । नृऽत॑मस्य । नृ॒णाम् । अनु॑ । त्रि॒ऽशोकः॑ । श॒तम् । आ । अ॒व॒ह॒न् । नॄन् । कुत्से॑न । रथः॑ । यः । अस॑त् । स॒स॒ऽवान् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते अस्या उषस: प्रापरस्या नृतौ स्याम नृतमस्य नृणाम् । अनु त्रिशोक: शतमावहन्नॄन्कुत्सेन रथो यो असत्ससवान् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । अस्याः । उषसः । प्र । अपरस्याः । नृतौ । स्याम । नृऽतमस्य । नृणाम् । अनु । त्रिऽशोकः । शतम् । आ । अवहन् । नॄन् । कुत्सेन । रथः । यः । असत् । ससऽवान् ॥ १०.२९.२
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(नृणां नृतमस्य ते अस्याः-उषसः) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! नायकों के भी अत्यन्त तुझ नायक की इस ज्ञानदीप्ति की (नृतौ प्र स्याम) नीति में हम प्रगतिशील हों (अपरस्याः प्र) आगामी दिन कल भी उस ज्ञानदीप्ति की नीति में हम प्रगतिशील हों (त्रिशोकः) तीनों-स्तुति प्रार्थना उपासनाओं में या ज्ञानकर्म-उपासनारूप त्रयी विद्या में वर्तमान ज्ञानप्रकाश जिसका है, वह ऐसा महाविद्वान् (शतं नॄन्-अनु आवहत्) बहुतेरे नायक जनों को तेरे ज्ञान वेद को प्राप्त करके अपने को उसके अनुकूल चलाता है (यः-कुत्सेन ससवान्) जो तेरा स्तुति करनेवाला ज्ञान का सम्भाजक-पूर्णज्ञानी है (रथः-असत्) वह सबका रमण आश्रय होता है ॥२॥
भावार्थ
महान् नेता परमात्मा की ज्ञानज्योति वेद सदा मार्गदर्शक है। उसमें वर्णित स्तुति, प्रार्थना, उपासना या ज्ञान, कर्म, उपासना में दीप्ति हुआ-प्रकाशमान हुआ परमात्मा का उपासक ज्ञान का धारण करनेवाला सबको ज्ञान देनेवाला आश्रय करने के योग्य है ॥२॥
विषय
ससवान्
पदार्थ
[१] हे प्रभो! (ते) = आपकी (अस्याः उषसः) = इस उषाकाल के तथा (अपरस्याः) = आनेवाली भी उषा के (प्रनृतौ) = प्रकृष्ट भवन में (प्रस्याम) = प्रकर्षेण हों। आप प्रत्येक उषःकाल में जिधर भी हमें ले चलनेवाले हों, उधर ही हम चलें। आप जो नाच नचायें, वही हमें रुचिकर हो । आप (नृणां नृतमस्य) = मनुष्यों के सर्वोत्तम नेता हैं। आपका नेतृत्व ही हमारा संचालक हो । [२] (अनु) = ऐसा होने पर ही, इसके बाद ही (कुत्सेन) = [कुथ हिंसायाम्] सब बुराइयों के संहार से (त्रिशोकः) = 'शरीर, मन व बुद्धि' तीनों की दीप्ति (नॄन्) = मनुष्यों को (शतं आवहत्) = सौ वर्ष तक ले चलनेवाली होती है । जब हम प्रभु की इच्छा के अनुसार जीवन को चलाते हैं, तो तीनों दीप्तियों को प्राप्त करते हैं और ये तीनों दीप्तियाँ हमारे जीवनों को सौ वर्ष तक ले चलने का कारण बनती हैं। [३] (यः रथः) = [रथः अस्य अस्ति इति रथः ] इस प्रकार जो भी उत्तम शरीररूप रथवाला व्यक्ति (असत्) = होता है वह (ससवान्) = सस्य को ही खानेवाला होता है, यह वानस्पतिक भोजन को ही करता है। वानस्पतिक भोजन सात्त्विक है, यही उपादेय है ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु की आज्ञा में चलें । सस्यभोजी बनें। इस प्रकार शरीर, मन व बुद्धि को दीप्त करनेवाले 'त्रिशोक' बनें।
विषय
तीनों शक्तियों से युक्त शतपति नायक महारथि का स्थापन। उसके अधीन सेना का प्रयाण।
भावार्थ
(यः) जो तू (त्रि-शोकः) तीन ज्योतियों से युक्त,वा सूर्यवत् तीनों लोकों में व्याप्त प्रकाश वाला, तेजस्वी, मन्त्र, बल और धन तीनों से चमकने वाला होकर (अनु) अपने पीछे (शतं नॄन् अवहन्) सौ नायकों को लेकर चलता हुआ, (कुत्सेन) शत्रु को काटने में समर्थ शस्त्र बल से (रथः) महारथ होकर (ससवान्) शत्रुओं का अन्त कर देता है उस (नृणां नृतमस्य) नायकों में उत्तम नायक (ते) तेरे (अस्याः उषसः) इस शत्रुदाहक सेना और (अपरस्याः) और दूसरी सेना के (नृतौ) संचालन करने में हम (प्र प्र स्याम) खूब २ आगे बढ़ें ! अथवा, उस तेरे शासन में (अस्याः अपरस्याः उषसः) इस दिन और अन्य दिनों भी खूब २ बढ़ें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुक्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(नृणां नृतमस्य ते अस्याः-उषसः) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! नायकानामप्यत्यन्तनायकस्य तवास्याः खलूषसो वेदज्ञानदीप्तेः सम्प्रति प्राप्तायाः (नृतौ प्र स्याम) नयने नीत्यां प्रगतिशीलाः स्याम (अपरस्याः प्र) आगामिनि दिने श्वोऽपि वेदज्ञानदीप्तेर्नयने मार्गे प्रगतिशीला भवेम (त्रिशोकः) तिसृषु स्तुतिप्रार्थनोपासनासु यद्वा तिसृषु विद्यासु वर्त्तमानो ज्ञानप्रकाशो यस्य तथाभूतो महाविद्वान् “शोचति ज्वलतिकर्मा” [निघ० १।१६] (शतं नॄन् अनु आवहत्) बहून् नायकान् जनान् तव ज्ञानं वेदमवाप्य स्वमनु वहति पश्चाच्चालयति शिष्यान् सम्पादयति (यः कुत्सेन ससवान्) यो हि तव कुत्सः स्तुतिकर्त्ता “कुत्सः कर्त्ता स्तुतीनाम्” [निरु० ३।१२] ज्ञानस्य सम्भाजकः “ससवान् सम्भाजकः” [ऋ० ३।२२।१ दयानन्दः] (रथः असत्) सर्वेषां रमणाश्रयो भवति ॥२॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, ruler of the world, manliest leader of the leaders of humanity, lord of triple splendour of knowledge, action and spiritual advancement, who command a hundred heroes by virtue of power and thunder, source of peace, advancement and bliss, may we ever abide in the light and joy of the dawn of today and of other days to come in our course of life.
मराठी (1)
भावार्थ
महान नेता असलेल्या परमात्म्याची ज्ञानज्योती वेद सदैव मार्गदर्शक आहे. त्यात वर्णित स्तुती, प्रार्थना, उपासना किंवा ज्ञान, कर्म, उपासनेमध्ये दीप्त झालेला, प्रकाशमान झालेला परमात्म्याचा उपासक हा ज्ञानधारक असून, सर्वांना ज्ञान प्रदान करणारा, आश्रय घेण्यायोग्य आहे. ॥२॥
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