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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वसुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - पादनिचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    कस्ते॒ मद॑ इन्द्र॒ रन्त्यो॑ भू॒द्दुरो॒ गिरो॑ अ॒भ्यु१॒॑ग्रो वि धा॑व । कद्वाहो॑ अ॒र्वागुप॑ मा मनी॒षा आ त्वा॑ शक्यामुप॒मं राधो॒ अन्नै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । ते॒ । मदः॑ । इ॒न्द्र॒ । रन्त्यः॑ । भू॒त् । दुरः॑ । गिरः॑ । अ॒भि । उ॒ग्रः । वि । धा॒व॒ । कत् । वाहः॑ । अ॒र्वाक् । उप॑ । मा॒ । म॒नी॒षा । आ । त्वा॒ । श॒क्या॒म् । उ॒प॒ऽमम् । राधः॑ । अन्नैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कस्ते मद इन्द्र रन्त्यो भूद्दुरो गिरो अभ्यु१ग्रो वि धाव । कद्वाहो अर्वागुप मा मनीषा आ त्वा शक्यामुपमं राधो अन्नै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः । ते । मदः । इन्द्र । रन्त्यः । भूत् । दुरः । गिरः । अभि । उग्रः । वि । धाव । कत् । वाहः । अर्वाक् । उप । मा । मनीषा । आ । त्वा । शक्याम् । उपऽमम् । राधः । अन्नैः ॥ १०.२९.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते) तेरे लिये (कः-मदः-रन्त्यः-भूत्) कौनसा स्तुतिसमूह-मन्त्रभाग रमण करने योग्य है, जो भी हो (दुरः-अभि धाव) उसे द्वार बनाकर प्राप्त हो (गिरः-वि० “धाव”) हमारे प्रार्थनावचनों के प्रति विशिष्टरूप से प्राप्त हो, उन्हें स्वीकार कर (मनीषा कद्-वाहः-अर्वाक्-मा-उप) स्तुति के द्वारा कब हमारे वहनीय-प्रापणीय तू मुझे-मेरी ओर प्राप्त होगा (अन्नैः) उपासना-रसों द्वारा (उपमं त्वा राधः) समीप वर्तमान तुझ आराधनीय परमात्मा को (आ शक्याम्) प्राप्त कर सकूँ ॥३॥

    भावार्थ

    उपासक को परमात्मा की ऐसे मन्त्रों द्वारा स्तुतियाँ करनी चाहिये, जिससे कि वह परमात्मा उन्हें स्वीकार करे और अपने अन्दर किये उपासनाभावों से वह प्राप्त हो सके ॥३॥

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    विषय

    अन्न व धन

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (ते मदः) = आपकी प्राप्ति का मद (कः) = अनिर्वचनीय आनन्द का देनेवाला है और (रन्त्यः) = रमणीय (भूत्) = है । आपको प्राप्त करनेवाला व्यक्ति एक अवर्णनीय सुख का अनुभव करता है और उसे सारा संसार सुन्दर ही सुन्दर प्रतीत होता है । [२] (अभ्युग्रः) = आप अतिशयेन तेजस्वी हो । (दुर:) = मेरे इन्द्रिय द्वारों को तथा (गिरः) = वाणियों को (विधाव) = विशेषरूप से शुद्ध कर दीजिये। प्रभु की तेजस्विता मेरी सब मलिनताओं को नष्ट करनेवाली होती है । [३] हे प्रभो ! (कद्) = कब आपकी कृपा होगी और मेरा (वाह:) = यह इधर- उधर मुझे भटकानेवाला मन [ वरु= To carry away] (अर्वाक्) = अन्तर्मुख होगा। कब यह मेरा मन बाह्य विषयों से निवृत्त होकर अन्दर ही स्थित होनेवाला होगा ? (कद्) = कब (मा) = मुझे (मनीषा) = बुद्धि (उप) = आपके समीप पहुँचानेवाली होगी ? [४] हे प्रभो! आप 'इन्द्रिय शुद्धि, मन की अन्तर्मुखी वृत्ति तथा मनीषा की प्राप्ति' के द्वारा मुझे इस योग्य बनाइये कि (उपमम्) = अन्तिकतम - अत्यन्त समीप हृदय में ही निवास करनेवाले (त्वा) = आपको (आ-शक्याम्) = प्राप्त होने में समर्थ होऊँ और साथ ही (अन्नैः) = अन्नों के साथ (राधः) = संसार के कार्यों के साधक धन को भी प्राप्त कर सकूँ। जीवनयात्रा में प्रभु प्राप्ति हमें मार्गभ्रष्ट नहीं होने देती तो यह 'अन्न व धन' हमें आगे बढ़ने के योग्य बनाते हैं। यह ठीक है कि उतना ही धन वाञ्छनीय है, जितना कि 'राध: 'कार्यसिद्धि के लिये आवश्यक है । कार्यसिद्धि से अधिक धन सदा हानिकर हो जाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु प्राप्ति के लिये यत्नशील हों । प्रभु हमारी इन्द्रियों को शुद्ध करें, मन को अन्तर्मुख करें तथा बुद्धि को प्राप्त करायें। हम अन्न व धन को तो प्राप्त करें ही, साथ ही हमारा लक्ष्य प्रभु प्राप्ति हो ।

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    विषय

    प्रभु की वा शासक की समर्चा की उत्सुकता।

    भावार्थ

    हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! प्रभो ! (ते) तेरा (कः मदः) कौन सा हर्ष वा तृप्तिकारक पदार्थ (रन्त्यः) तुझे अधिक सुख देने वाला है। तू (उग्रः) बलवान् होकर (दुरः) द्वारों को (अभि धाव) लक्ष्य कर वेग से जा। और (गिरः वि धाव) उत्तम स्तुतियों को प्राप्त कर। (वाहः) सुख-समृद्धि को प्राप्त कराने वाला तू (कत् अर्वाक्) कब हमारे सन्मुख हो और (मा मनीषा उप कत्) उत्तम मन की अभिलाषा मुझे कब पूर्ण होगी, और मैं (उपमं) अपने समीप स्थित हुए (त्वा) तुझे (कद्) कब (अन्नैः) अन्नों द्वारा स्वामी को जैसे वैसे (राधः आ शक्याम्) आराधना द्वारा तुझे प्रसन्न कर सकूंगा ?

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्र) हे ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! (ते) तुभ्यम् (कः मदः रन्त्यः-भूत्) कः स्तुतिसमूहः स्तुतिमन्त्रभागो रमणयोग्यो भवति योऽपि स्यात् (दुरः अभि धाव) तं द्वारमभिलक्ष्य प्राप्तो भव “दुरः” बहुवचनं व्यत्ययेन (गिरः वि० “धाव”) अस्माकं प्रार्थनावाचः प्रति विशिष्टतया प्राप्तो भव ताः स्वीकुरु (मनीषा कद्-वाहः-अर्वाक्-मा-उप) स्तुत्या “मनीषा मनीषया स्तुत्या” [निरु० २।२५] कदाऽस्माकं वहनीयः प्रापणीयस्त्वं मामभिमुखमुप गमिष्यसि (अन्नेः) सोमैरुपासनारसैः “अन्नं वै सोमः” [श० ३।९।१।८] (उपमं त्वा राधः) समीपं वर्त्तमानं त्वां राधनीयं परमात्मानम् (आ शक्याम्) प्राप्तुं शक्नुयाम्-इत्याशासे ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    What is the most exhilarating song of prayer and presentation dear to you? O lustrous lord of force and power, come to us by the doors of yajna in response to our songs of invocation. Harbinger of power and peace, when shall I see you face to face? When will my prayer be fruitful? When shall I be able to regale you with homage and adoration, most eminent master and ruler?

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    उपासकाने मंत्रांद्वारे परमेश्वराची अशी स्तुती केली पाहिजे की ज्यामुळे परमेश्वराने त्याचा स्वीकार करावा व त्याच्या उपासना भावनेने तो प्राप्त व्हावा. ॥३॥

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