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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसुक्रः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्रेर॑य॒ सूरो॒ अर्थं॒ न पा॒रं ये अ॑स्य॒ कामं॑ जनि॒धा इ॑व॒ ग्मन् । गिर॑श्च॒ ये ते॑ तुविजात पू॒र्वीर्नर॑ इन्द्र प्रति॒शिक्ष॒न्त्यन्नै॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । ई॒र॒य॒ । सूरः॑ । अर्थ॑म् । न । पा॒रम् । ये । अ॒स्य॒ । काम॑म् । ज॒नि॒धाःऽइ॑व । ग्मन् । गिरः॑ । च॒ । ये । ते॒ । तु॒वि॒ऽजा॒त॒ । पू॒र्वीः । नरः॑ । इ॒न्द्र॒ । प्र॒ति॒ऽशिक्ष॑न्ति । अन्नैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रेरय सूरो अर्थं न पारं ये अस्य कामं जनिधा इव ग्मन् । गिरश्च ये ते तुविजात पूर्वीर्नर इन्द्र प्रतिशिक्षन्त्यन्नै: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । ईरय । सूरः । अर्थम् । न । पारम् । ये । अस्य । कामम् । जनिधाःऽइव । ग्मन् । गिरः । च । ये । ते । तुविऽजात । पूर्वीः । नरः । इन्द्र । प्रतिऽशिक्षन्ति । अन्नैः ॥ १०.२९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
    अष्टक » 7; अध्याय » 7; वर्ग » 22; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (तुविजात-इन्द्र) हे बहुत गुणों से प्रसिद्ध ऐश्वर्यवन् परमात्मन् ! सूर्य जैसे रश्मि को प्रेरित करता है, वैसे मुझ प्रार्थी मुमुक्षु को मोक्ष के प्रति प्रेरित कर (ये) जो मुमुक्षुजन (अस्य कामं जनिधाः-इव ग्मन्) इस मोक्ष के काम को भार्या के धारण करनेवाले गृहस्थ जैसे गृहस्थाश्रम को प्राप्त होते हैं, वैसे उपासक जन मोक्ष को प्राप्त होते हैं (च) और (गिरः-पूर्वीः) श्रेष्ठ स्तुतियाँ (ते) तेरे लिये (ये नरः) जो मुमुक्षुजन (अन्नैः प्रतिशिक्षन्ति) उपासनारस को प्रदान करते हैं ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा की स्तुति करनेवाले तथा उपासनारसों को भेंट देनेवाले उपासक जन अपने अभीष्ट मोक्ष को प्राप्त होते हैं, जैसे गृहस्थजन गृहस्थाश्रम के सुख को प्राप्त होते हैं ॥५॥

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    विषय

    भवसागर के पार

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो ! आप (सूरः न) = सूर्य के समान हैं, 'आदित्यवर्णम्' शब्द से आपका स्मरण होता है। सूर्य की तरह ही आप हमारे हृदयाकाशों को प्रकाशित करनेवाले तथा कर्मों में प्रेरित करनेवाले हैं। आप (अर्थम्) = धर्म, अर्थ, काम व मोक्षरूप पुरुषार्थों की (प्रेरय) = प्रेरणा दीजिये तथा इन पुरुषार्थों के द्वारा (पारं) = प्रेरय - इस भवसागर व अश्मन्वती नदी के पार प्राप्त कराइये । धर्मपूर्वक धन को कमाकर उचित आनन्दों का सेवन करते हुए ही हम मोक्ष के अधिकारी हो सकते हैं। यही मार्ग है, भवसागर को तैरने का । [२] प्रभु उन व्यक्तियों को भवसागर से तैराते हैं (ये) = जो (अस्य) = इस प्रभु की (कामम्) = कामना को, इच्छा को, (जनिधा इव) = विकास को धारण करनेवाले की तरह (ग्मन्) = प्राप्त होते हैं, अर्थात् प्रभु की कामना के अनुसार कर्मों को करते हैं। प्रभु ने वेद में जिस प्रकार आदेश दिया है, उसी प्रकार जो अपना आचरण बनाते हैं वे ही व्यक्ति प्रभु के प्रिय होते हैं और इन्हें ही प्रभु भवसागर से तैरानेवाले होते हैं। ये व्यक्ति की (जनि) = विकास का (धा) = धारण करते हैं । 'जनिधा' का अर्थ पत्नी का धारण करनेवाला, अर्थात् पति भी है। यहाँ 'परीमे गाम् अनेषत' इन वेद शब्दों के अनुसार वेदवाणी से परिणय करनेवाले ये वेदवाणी के पति ही 'जनिधा' हैं । वेदोपदिष्ट कर्मों के करने से ये सचमुच 'जनिधा' होते हैं । [३] हे (तुविजात) = इस महान् ज्ञान को उत्पन्न करनेवाले, (इन्द्र) = प्रभो ! ये (च नरः) = और जो लोग (ते) = आपकी (पूर्वीः) = हमारे जीवनों का पूरण करनेवाली (गिरः) = वेदवाणियों को (अन्नैः) = सात्त्विक अन्नों के सेवन के द्वारा, शुद्ध अन्तःकरणवाले होकर (प्रतिशिक्षन्ति) = एक-एक करके सीखते हैं, उन्हें आप पारं प्रेरय= भवसागर के पार प्राप्त कराइये ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सात्त्विक अन्नों के सेवन से वेदवाणियों को शुद्ध अन्तःकरणों से समझें । वेदोपदिष्ट प्रभु की इच्छाओं के अनुसार कार्य करें। प्रभु हमें भवसागर से पार उतारेंगे ।

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    विषय

    उससे मोक्ष-याचना।

    भावार्थ

    हे (तु वि-जात) बहुत से लोकों को उत्पन्न करने वाले ! हे (इन्द्र) ऐश्वर्यवन् ! (ये) जो (जनिधाः-इव) पत्नी के धारण पोषण करने वाले गृहस्थों के समान (ते अस्य कामं ग्मन्) इस साक्षात् तेरे कामना योग्य वा कान्तियुक्त उज्ज्वल स्वरूप को प्राप्त होते, जान लेते हैं, और (ये) जो (नरः) मनुष्य (तेः पूर्वीः गिरः) तेरी ज्ञानपूर्ण सनातन वाणियों को (अन्नैः) अन्नों सहित (प्रति-शिक्षन्ति) अन्यों को देते और सिखाते हैं उनको तू (सूरः) सूर्य के समान सर्वप्रेरक होकर (अर्थं न) धन को धनस्वामी के तुल्य (अर्थं पारं) प्राप्तव्य परम पार मोक्ष पद को (प्रेरय) प्राप्त करा। इति द्वाविंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसुक्र ऋषिः। इन्द्रो देवता॥ छन्दः- १, ५, ७ विराट् त्रिष्टुप् । २, ४, ६ निचृत् त्रिष्टुप्। ३, ८ पादनिचृत् त्रिष्टुप्॥ अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (तुविजात-इन्द्र) बहुगुणप्रसिद्ध-ऐश्वर्यवन् परमात्मन् (सूरः न-अर्थं पारं प्रेरय) सूर्यो यथा रश्मिं प्रेरयति तथा त्वमर्थमर्थवन्तमर्थिनं मुमुक्षुं पारं मोक्षं प्रति प्रेरय (ये) ये मुमुक्षवः (अस्य कामं जनिधाः-इव ग्मन्) अस्य मोक्षस्य कामं धारयन्तो भार्या धारयन्तो गृहस्था इव गृहस्थाश्रमं प्राप्नुवन्ति तद्वदुपासकाः सन्ति (च) अथ च (गिरः पूर्वीः) स्तुतीः श्रेष्ठाः (ते) तुभ्यम् (ये नरः) ये मुमुक्षवो जनाः (अन्नैः प्रतिशिक्षन्ति) उपासनारसान् “द्वितीयार्थे तृतीया व्यत्ययेन” प्रयच्छन्ति ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, like the sun that leads from darkness to light, inspire and lead humanity to the attainment of their desire for freedom across the world, all who entertain this ambition like their love for home life earlier. O lord of infinite manifestation, bless all those people who adore you with songs of universal exhortation, who guide others to sing and pray with universal voice, and who offer homage to divinity with foods and charity in various forms.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वराची स्तुती करणारे व उपासना रस समर्पित करणारे उपासक लोक आपले अभीष्ट मोक्ष प्राप्त करतात जसे गृहस्थ गृहस्थाश्रमाचे सुख प्राप्त करतात. ॥५॥

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