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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 11
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    न तस्य॑ विद्म॒ तदु॒ षु प्र वो॑चत॒ युवा॑ ह॒ यद्यु॑व॒त्याः क्षेति॒ योनि॑षु । प्रि॒योस्रि॑यस्य वृष॒भस्य॑ रे॒तिनो॑ गृ॒हं ग॑मेमाश्विना॒ तदु॑श्मसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    न । तस्य॑ । वि॒द्म॒ । तत् । ऊँ॒ इति॑ । सु । प्र । वो॒च॒त॒ । युवा॑ । ह॒ । यत् । यु॒व॒त्याः । क्षेति॑ । योनि॑षु । प्रि॒यऽउ॑स्रियस्य । वृ॒ष॒भस्य॑ । रे॒तिनः॑ । गृ॒हम् । ग॒मे॒म॒ । अ॒श्वि॒ना॒ । तत् । उ॒श्म॒सि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    न तस्य विद्म तदु षु प्र वोचत युवा ह यद्युवत्याः क्षेति योनिषु । प्रियोस्रियस्य वृषभस्य रेतिनो गृहं गमेमाश्विना तदुश्मसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    न । तस्य । विद्म । तत् । ऊँ इति । सु । प्र । वोचत । युवा । ह । यत् । युवत्याः । क्षेति । योनिषु । प्रियऽउस्रियस्य । वृषभस्य । रेतिनः । गृहम् । गमेम । अश्विना । तत् । उश्मसि ॥ १०.४०.११

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 11
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 20; मन्त्र » 1
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अश्विना) हे शिक्षित वृद्ध स्त्री-पुरुषो ! (तस्य तत्-उ सु न विद्म) हम नवगृहस्थ के उस सुफल को नहीं जानते हैं (प्र वोचत) तुम हमें उसका उपदेश दो (युवा ह यत्-युवत्याः-योनिषु क्षेति) जो युवा पति युवति पत्नी के साथ घरों में निवास करता है (प्रियोस्रियस्य) प्रिया-प्यारी उत्साही पत्नीवाले (रेतिनः) रेतस्वी-वीर्यवाले (वृषभस्य) वीर्यसेचक वर के (गृहं गमेम) घर को प्राप्त हों-जावें (उश्मसि) हम ये कामना करते हैं ॥११॥

    भावार्थ

    वृद्ध स्त्री-पुरुषों को नवविवाहित, गृहस्थधर्म के संचालन में समर्थ के घर में गृहस्थ आश्रम को सुचारु रूप में चलाने के लिए तथा उनके यहाँ सुसन्तान हो, यह कामना रखते हुए जाना चाहिए ॥११॥

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    विषय

    निषादः गृहिणी गृहमुच्यते - पति की योग्यताएँ

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र की अन्तिम पंक्ति से गृहस्थाश्रम का संकेत हुआ है । उसी का चित्रण करते हुए कहते हैं कि (यद्) = जब (युवा) = एक नौजवान 'अवगुणों को अपने से पृथक् करके गुणों को अपने साथ जोड़नेवाला पुरुष' (ह) = निश्चय से (युवत्याः) = एक युवति के (योनिसु) = गृहों में क्षेति निवास करता है, तो (तस्य न विद्म) = उस गृहस्थाश्रम के कर्त्तव्य को हम पूरा-पूरा नहीं जानते, (तद्) = उस कर्त्तव्य को (उ) = निश्चय से (सु प्रवोचत) = उत्तमता से हमारे लिये बतलाओ । यहाँ वर्णनशैली से यह स्पष्ट है कि 'गृहिणी गृहमुच्यते ' = पत्नी ही घर है। घर पत्नी ने बनाना है, उस घर में पति उत्तम निवासवाला होता है । [२] घर पत्नी का होता है, परन्तु प्रारम्भ में कन्या ही तो पितृगृह को छोड़कर पतिगृह में पहुँचती है। उस समय वह अश्विनी देवों से आराधना करती है कि (अश्विना) = हे प्राणापानो! (तद् उश्मसि) = हम यह चाहते हैं कि हम गृहं गमेम उस पति के घर को प्राप्त हों जो कि (प्रियोस्त्रियस्य) = [प्रियाः उस्त्रियाः यस्मैः उस्त्रिया = गौ, रश्मि] गौवों का प्रिय हो, घर में गौ रखने का चाव रखता हो । अथवा जिसे ज्ञान की रश्मियाँ प्रिय हैं, जो अनपढ़ व गंवार नहीं है, ज्ञान की रुचिवाला है। (वृषभस्य) = शक्तिशाली व गृहस्थ की गाड़ी को खेंचने में समर्थ है। (रेतिनः) = रेतस्वाला है, नपुंसक नहीं। वस्तुतः ऐसा व्यक्ति ही गृहस्थ में जाने का अधिकारी है। इससे भिन्न को गृहस्थ में जाने का अधिकार न होना चाहिए ।

    भावार्थ

    भावार्थ - घर का निर्माण पत्नी ने करना है। पति वही ठीक है जो कि अनपढ़ व कमजोर नहीं । अनपढ़ व कमजोर पति गृहस्थ को स्वर्ग नहीं बना सकता ।

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    विषय

    युवा-युवतियों का गृहस्थ-प्रवेश के पूर्व माता पितादि से योग्य शिक्षा की प्रार्थना

    भावार्थ

    युवक युवति जन अपने आप्त माता पितादि से कहते हैं—(यत्) जो (युवा) युवा पुरुष (युवत्याः योनिषु) युवती स्त्री के साथ गृहों में (क्षेति) निवास करता है हम अबोध, अननुभवी नवयुवक युवतिजन (तस्य न विद्म) उस गृहस्थ के विषय में कुछ नहीं जानते (तत् उ सु प्र वोचत) हे विद्वान् पुरुषो ! आप लोग हमें उसका अच्छी प्रकार उत्तम रीति से उपदेश करो। हे (अश्विना) माता पिता आप्त जनो ! हम नवयुवतियां (प्रिय-उस्त्रियस्य) युवति वधू को प्रेम करने वाले, (वृषभस्य) प्रेम से बांधने वाले, बलवान् (रेतिनः) वीर्यवान् पति के (गृहं गमेम) घर को जावें, हम (तत् उष्मसि) सदा उसी को चाहा करें। नवयुवतियों का यही उचित विचार होना चाहिये कि वे गृहस्थ की सब बात जानें और पति को प्राप्त हो पतिगृह को चाहा करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अश्विना) हे शिक्षितौ स्थविरौ स्त्रीपुरुषौ ! (तस्य तत् उ सु न विद्म) वयं नवगृहस्थाः तस्य गृहस्थाश्रमस्य तदेव सुफलं न जानीमः (प्रवोचत) इदमुपदिशत, ‘बहुवचनमादरार्थम्’ (युवा ह यत्-युवत्याः-योनिषु क्षेति) यत्-युवा युवत्या गृहेषु गृहसम्बन्धिनीषु निवसति (प्रियोस्रियस्य) प्रिया-उस्रिया उत्साहिनी युवतिर्वधूर्यस्य तस्य वरस्य (रेतिनः) रेतस्विनो वीर्यवतः (वृषभस्य) वीर्यं सेक्तुं समर्थस्य (गृहं गमेम) गृहं गच्छावः, अत्र तयोः स्वीकारोक्तिः स्त्रीपुरुषयोः “अस्मदो द्वयोश्च” [अष्टा०१।२।५९] द्विवचने बहुवचनम् (उश्मसि) वयं कामयामहे ॥११॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    We know not of that mystery of life, O Ashvins, pray speak of that mystery, that bond and felicity, to the youth who lives in the home of his youthful wife. We only wish that we may find a sweet home with a loving, generous, virile young man, loving at heart and winsome to his wife.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वृद्ध स्त्री-पुरुषांनी नवविवाहित, गृहस्थ धर्माच्या संचालनात समर्थ असलेल्यांच्या घरात गृहस्थाश्रम सुचारू रूपाने चालावा व त्यांच्या येथे सुसंतान व्हावे अशी कामना करावी. ॥११॥

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