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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 4
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वां मृ॒गेव॑ वार॒णा मृ॑ग॒ण्यवो॑ दो॒षा वस्तो॑र्ह॒विषा॒ नि ह्व॑यामहे । यु॒वं होत्रा॑मृतु॒था जुह्व॑ते न॒रेषं॒ जना॑य वहथः शुभस्पती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वाम् । मृ॒गाऽइ॑व । वा॒र॒णा । मृ॒ग॒ण्यवः॑ । दो॒षा । वस्तोः॑ । ह॒विषा॑ । नि । ह्व॒या॒म॒हे॒ । यु॒वम् । होत्रा॑म् । ऋ॒तु॒ऽथा । जुह्व॑ते । न॒रा॒ । इष॑म् । जना॑य । व॒ह॒थः॒ । शु॒भः॒ । प॒ती॒ इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवां मृगेव वारणा मृगण्यवो दोषा वस्तोर्हविषा नि ह्वयामहे । युवं होत्रामृतुथा जुह्वते नरेषं जनाय वहथः शुभस्पती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवाम् । मृगाऽइव । वारणा । मृगण्यवः । दोषा । वस्तोः । हविषा । नि । ह्वयामहे । युवम् । होत्राम् । ऋतुऽथा । जुह्वते । नरा । इषम् । जनाय । वहथः । शुभः । पती इति ॥ १०.४०.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (युवाम्) हे स्थविर-वृद्ध स्त्री-पुरुषों ! तुम (मृगा-इव वारणा) गृहस्थ में जानेवाले उनके दुखों के निवारक (मृगण्यवः) तुम दोनों की खोज करनेवाले हम नवगृहस्थ (दोषा वस्तोः) दिन-रात (हविषा नि ह्वयामहे) उत्तम ग्रहण करने योग्य वस्तु के द्वारा तुम्हारा सत्कार करते हैं (युवां नरा) तुम नेता (शुभस्पती) कल्याणस्वामी-कल्याणप्रद (जनाय) जनमात्र के लिए (इषं वहथः) इष्ट सुख अन्न आदि को प्राप्त कराते हो (होत्राम्-ऋतुथा जुह्वते) सारे गृहस्थ तुम दोनों के लिए समय-समय पर सत्कार, उपहार देते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    वृद्ध गृहस्थ जन नवगृहस्थों के घरों में पहुँचें। उन्हें गृहस्थ-संचालन के अपने अनुभवों से अवगत कराएँ। नवगृहस्थ भी वृद्ध स्त्री-पुरुषों को समय–समय पर आमन्त्रित करें, उनका उपहार एवं सत्कार से स्वागत करें ॥४॥

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    विषय

    मृगा- वारणा

    पदार्थ

    [१] (युवम्) = आप दोनों (मृगा इव) = मृगों के समान हो 'मृग = to hurt, chese, pwrsue', दोषों का शिकार करनेवाले हो । (वारणा) = दोषों का निवारण करके शरीर को स्वस्थ बनाते हो । [२] (मृगण्यवः) = ' मृग अन्वेषणे ' = आत्मतत्त्व का अन्वेषण करनेवाले हम (दोषा वस्तोः) = दिन-रात (हविषा) = दानपूर्वक अदन से (निह्वयामहे) = आपको पुकारते हैं । प्राणापान की साधना के लिये युक्ताहारविहार होना आवश्यक है। त्यागपूर्वक अदन प्राणसाधना के लिये पथ्य के समान है। इस साधना से सब मलों का विनाश होकर प्रभु का दर्शन होता है । [३] हे प्राणापानो ! (युवम्) = आप दोनों (ऋतुथा) = समय-समय पर (होत्राम्) = दानपूर्वक यज्ञशेषरूप भोजन को (जुह्वते) = शरीर की वैश्वानर अग्नि में आहुत करते हो । हे (नरा) = नेतृत्व करनेवाले प्राणापानो! आप (जनाय) = लोगों के लिये (इषम्) = अन्न को (वहथः) = प्राप्त कराते हो । प्राणापान से युक्त होकर ही वैश्वानर अग्नि अन्न का पाचन करती है एवं अन्न को प्राप्त कराके व उसका ठीक से पाचन करके, हे प्राणापानो! आप (शुभस्पती) = सब शुभ बातों के रक्षण करनेवाले हो । प्राणापान ही शरीर को शुभ बनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणापान शरीर को निर्दोष बनाते हैं, प्रभु का दर्शन करते हैं, अन्न का ठीक से पाचन करते हैं और शरीर में सब शुभों का रक्षण करते हैं ।

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    विषय

    सूर्य मेघवत् उनके कर्तव्य। वे सिंहों के समान रक्षक वीर हों, शिक्षित हों।

    भावार्थ

    जिस प्रकार (मृगण्यवः) मृगया करने वाले (मृगा वारणा) सिंह सिंहिनी और हाथी हथिनी दोनों को (हविषा नि ह्वयन्ते) खाद्य पदार्थ द्वारा ग्रहण करते हैं उसी प्रकार हम लोग भी अभिषेकादि से शुद्ध, पवित्र, आचारवान् नायक नायकादि को चाहने वाले (मृगा इव युवां) सिंह सिंहनी के तुल्य बलवान् तुम दोनों को और (वारणा युवां) दुःखों के वारण वा दूर करने वाले आप दोनों को (हविषा) उत्तम अन्न कर आदि द्वारा (नि ह्वयामहे) नियम से आदर पूर्वक बुलावें। हे (नरा) उत्तम नायको ! (युवं) आप दोनों को लक्ष्य कर आप की हितकामना से (ऋतुथा होत्राम् जुह्वते) समय २ पर ऋतु २ में उत्तम वाणी को प्रदान करते हैं, तुमको लक्ष्य कर अग्निहोत्रादि कर्म करते हैं, क्योंकि आप दोनों (शुभस्पती) जलों के पालक सूर्य मेघवत् शुभ गुणों, व्रतों वा कर्मों के पालक होकर (जनाय इषं वहथः) समस्त मनुष्यों के लाभार्थ सेना, अन्न और उत्तम इच्छा, प्रेरणा, संदेश, उपदेश आदि को धारण करते हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (युवाम्) हे अश्विनौ स्थविरौ स्त्रीपुरुषौ ! (मृगा-इव वारणा) गृहस्थेषु गन्तारौ दुःखनिवारकौ-एव, “इवोऽपि दृश्यते पादपूरणः” [निरु० १।११] (मृगण्यवः) युवामन्वेषका वयं नवगृहस्थाः ‘मृग अन्वेषणे’ [चुरादिः] (दोषा वस्तोः) नक्तं दिवा (हविषा निह्वयामहे) उत्तमग्रहणयोग्येन वस्तुना निमन्त्रयामहे-सत्कुर्मः (युवम्) युवाम् (नरा) नेतारौ (शुभस्पती) कल्याण-स्वामिनौ-कल्याणप्रदौ (जनाय) जनमात्राय (इषं वहथः) इष्टं सुखमन्नादिकं वा प्रापयथः (होत्राम्-ऋतुथा जुह्वते) सर्वे गृहस्था युवाभ्यां समये समये प्रशंसां ददति प्रशंसां कुर्वन्ति ॥४॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Looking and searching for you as seekers and saviours, we invoke and invite you with homage day and night. All house holders invoke you and offer you homage of havi according to the seasons, and you, leading lights for humanity, treasure holds of good and promoters of the auspicious, bring food and energy for the people.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    वृद्ध गृहस्थांनी नवगृहस्थांच्या घरी पोचावे. त्यांना गृहस्थीसंबंधी आपले अनुभव कथन करावे. नवगृहस्थांनीही वृद्ध स्त्री-पुरुषांना वेळोवेळी आमंत्रण करावे. त्यांना उपहार देऊन सत्कार करून त्यांचे स्वागत करावे. ॥४॥

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