Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 40 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 40/ मन्त्र 9
    ऋषिः - घोषा काक्षीवती देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    जनि॑ष्ट॒ योषा॑ प॒तय॑त्कनीन॒को वि चारु॑हन्वी॒रुधो॑ दं॒सना॒ अनु॑ । आस्मै॑ रीयन्ते निव॒नेव॒ सिन्ध॑वो॒ऽस्मा अह्ने॑ भवति॒ तत्प॑तित्व॒नम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    जनि॑ष्ठ । योषा॑ । प॒तय॑त् । क॒नी॒न॒कः । वि । च॒ । अरु॑हम् । वी॒रुधः॑ । दं॒सनाः॑ । अनु॑ । आ । अ॒स्मै॒ । री॒य॒न्ते॒ । नि॒व॒नाऽइ॑व । सिन्ध॑वः । अ॒स्मै । अह्ने॑ । भ॒व॒ति॒ । तत् । प॒ति॒ऽत्व॒नम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    जनिष्ट योषा पतयत्कनीनको वि चारुहन्वीरुधो दंसना अनु । आस्मै रीयन्ते निवनेव सिन्धवोऽस्मा अह्ने भवति तत्पतित्वनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    जनिष्ठ । योषा । पतयत् । कनीनकः । वि । च । अरुहम् । वीरुधः । दंसनाः । अनु । आ । अस्मै । रीयन्ते । निवनाऽइव । सिन्धवः । अस्मै । अह्ने । भवति । तत् । पतिऽत्वनम् ॥ १०.४०.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 40; मन्त्र » 9
    अष्टक » 7; अध्याय » 8; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (योषा जनिष्ट) जब समागमयोग्य ब्रह्मचारिणी हो जाती है, तब (कनीनकः-पतयत्) कन्या की कामना करनेवाला वर भी प्राप्त हो जाता है, उसका स्वामित्व करता है (च) तथा (वीरुधः-अरुहन्) जैसे ओषधियाँ उगती और बढती हैं, वैसे (दंसनाः-अनु) कर्मों के अनुसार (अस्मै) इस वर के लिए (सिन्धवः-निवना-इव रीयन्ते) सुख-सम्पत्तियाँ ऐसे प्राप्त होती हैं, जैसे नदियाँ निम्न स्थान को प्राप्त होती हैं (अस्मै-अह्ने तत् पतित्वनं भवति) इस अहन्तव्य वर के लिए गृहस्थसम्बन्धी स्वामित्व प्राप्त हो जाता है ॥९॥

    भावार्थ

    कन्या और कुमार ब्रह्मचर्य के पालन से जब एक-दूसरे की कामना करने और समागम के योग्य हों, तो उनका विवाह होना चाहिए, बिना कामना और योग्यता के नहीं। तभी पवित्र आचरण आदि द्वारा गृहस्थ में सुख सम्पतियाँ, नदियाँ जैसे निम्न स्थान में प्राप्त होती हैं, वैसे प्राप्त होती हैं ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पति, नकि दास

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार प्राणसाधना के होने पर एक घर में पत्नी (योषा) = गुणों का अपने साथ मिश्रण करनेवाली व अवगुणों को अपने से दूर करनेवाली (जनिष्ट) = हो जाती है। और (पतयत्) = पति की तरह आचरण करनेवाला पुरुष [ पतिरिवाचरति, आत्मानं पतिं करोति, णिच् प्रत्यये] (कनीनकः) [ कन दीप्तौ] = दीप्त जीवनवाला होता है । (च) = और इन पति-पत्नी के (दंसना अनु) = कर्मों के अनुपात में ही (वीरुधः वि अरुहन्) = ओषधियाँ विशिष्ट रूप से उत्पन्न होती हैं । अर्थात् प्राणशक्ति सम्पन्न होकर ये पति-पत्नी क्रियाशील होते हैं और अन्नादि के उत्पादन की तरह विविध निर्माण के कार्यों को करनेवाले होते हैं। [२] सब सांसारिक (वसु) = ऐश्वर्य (अस्मै) = इस व्यक्ति के लिये (आरीयन्ते) = चारों ओर से प्राप्त होते हैं, (इव) = जैसे (निवना) = निम्न मार्ग से (सिन्धवः) = नदियाँ (रीयन्ते) = बहती हैं । प्राणसाधना से उत्पन्न क्रियाशीलता इसे सब वसुओं का आधार बनाती है। [३] (तत्) = तब (अस्मा) = इस अह्न एक-एक क्षण को न हिंसित करनेवाले सतत क्रियाशील पुरुष के लिये (पतित्वनम्) = स्वामित्व (भवति) = होता है । यह अपनी इन्द्रियों, मन व बुद्धि का पति बनता है, न कि दास । यही जीव की सर्वोत्कृष्ट स्थिति है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्राणसाधना से अवगुण दूर होकर गुणों की प्राप्ति होती है। प्राणसाधक चमकता है, यह वसुओं का आधार बनता है और अपनी इन्द्रियादि का पति बनता है न कि दास ।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    स्त्री के कर्त्तव्य। उत्तम पुत्र प्राप्त करे, अपने सामर्थ्यानुसार उन्नत पद पावे, जलधाराओं के तुल्य तेजस्वी पुरुष को प्राप्त हो, सौभाग्यवती हो। इसी प्रकार प्रजा भी चाहे कि उसका राजा उत्तम हो।

    भावार्थ

    (याषा जनिष्ट) स्त्री भूमिवत् सौभाग्यवती होकर सन्तान उत्पन्न करे। (कनीनकः पतयत्) उज्ज्वल बालक उसे प्राप्त हो। और (वीरुधः) जल-वृष्टियों के अनुरूप लताओं के समान स्त्री-जन वा प्रजाएं (दंसनाः अनु) अपने २ कर्मों के अनुरूप (वि अरुहन् च) विविध प्रकार से उन्नति पथ पर चढ़ें, बढ़ें। (निवना इव सिन्धवः) नीचे प्रदेशों की ओर जलधाराओं के समान वे प्रजाएं (अस्मै) इस तेजस्वी पुरुष को (आ रीयन्ते) सब ओर से प्राप्त हों। और (अस्मे अह्ने) शत्रुओं से न मारे जाने योग्य इस वीर पुरुष का (तत्) तब ही (पतित्वनम्) पतित्व, उत्तम स्वामित्व होता है। अर्थात् स्त्री का सौभाग्य उत्तम बालक जनना और पति का सौभाग्य, सौभाग्यतम स्त्री का लाभ तथा नाना प्रजाओं को प्राप्त करना है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिर्घोषा काक्षीवती॥ अश्विनौ देवते॥ छन्द:– १, ५, १२, १४ विराड् जगती। २, ३, ७, १०, १३ जगती। ४, ९, ११ निचृज्जगती। ६,८ पादनिचृज्जगती॥ चतुर्दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (योषा जनिष्ट) यदा समागमयोग्या ब्रह्मचारिणी जायते, तदा (कनीनकः-पतयत्) कन्याकामो वरोऽपि कन्यां प्राप्नोति तत्स्वामित्वं करोति वा (च) तथा (वीरुधः-अरुहन्) यथा-ओषधयो विरोहन्ति वर्धन्ते तथा (दंसनाः-अनु) कर्माणि अनुसृत्य “दंसनाः कर्माणि” [ऋ० ५।८७।८] (अस्मै) अस्मै वराय (सिन्धवः-निवना-इव रीयन्ते) सुखसम्पत्तयः सिन्धवो नद्यो यथा निम्नं स्थानं प्रति प्राप्नुवन्ति (अस्मै-अह्ने तत् पतित्वनं भवति) अस्मै-अहन्तव्याय तद् गार्हस्थ्यं पतित्वं भवति ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The maiden is grown mature, the suitor comes seeking and proposes for marriage, the plants and creepers bloom according to innate power and potential, streams and rivers, desires and passions for living and continuing, flow down the slopes for the young man, and that is the stage for matrimony when the day of youthfulness is on the high and irrepressible.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    कन्या व कुमार ब्रह्मचर्याच्या पालनाने जेव्हा एक दुसऱ्याची कामना करण्यायोग्य व समागमायोग्य असतील तर त्यांचा विवाह झाला पाहिजे. कामनेशिवाय व योग्यतेशिवाय विवाह करता कामा नये. नद्या जशा निम्न स्थानी वाहतात तसेच पवित्र आचरण इत्यादीद्वारे गृहस्थाश्रमात सुख संपत्ती प्राप्त होते. ॥९॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top