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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 46/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराडार्चीत्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इ॒मं त्रि॒तो भूर्य॑विन्ददि॒च्छन्वै॑भूव॒सो मू॒र्धन्यघ्न्या॑याः । स शेवृ॑धो जा॒त आ ह॒र्म्येषु॒ नाभि॒र्युवा॑ भवति रोच॒नस्य॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मम् । त्रि॒तः । भूरि॑ । अ॒वि॒न्द॒त् । इ॒च्छन् । वै॒भु॒ऽव॒सः । मू॒र्धनि॑ । अघ्न्या॑याः । सः । शेवृ॑धः । जा॒तः । आ । ह॒र्म्येषु॑ । नाभिः॑ । युवा॑ । भ॒व॒ति॒ । रो॒च॒नस्य॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमं त्रितो भूर्यविन्ददिच्छन्वैभूवसो मूर्धन्यघ्न्यायाः । स शेवृधो जात आ हर्म्येषु नाभिर्युवा भवति रोचनस्य ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमम् । त्रितः । भूरि । अविन्दत् । इच्छन् । वैभुऽवसः । मूर्धनि । अघ्न्यायाः । सः । शेवृधः । जातः । आ । हर्म्येषु । नाभिः । युवा । भवति । रोचनस्य ॥ १०.४६.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 46; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (त्रितः) मेधा द्वारा दुःख से अत्यन्त पार हुआ अथवा स्तुति-प्रार्थना-उपासनाओं से सम्पन्न या स्तुति-प्रार्थना-उपासना में वर्तमान आत्मा (वैभुवसः) विभु होता हुआ जो सबमें बसता है, उस परमात्मा का पुत्र या उपासक आत्मा (इमम्) इस परमात्मा को (इच्छन्) देखने-प्राप्त करने को चाहता हुआ (अघ्न्यायाः-मूर्धनि भूरि-अविन्दत्) अहन्तव्य वेदवाणी के मूर्धाभूत प्रणव-‘ओ३म्’ में अतिशय से प्राप्त करता है (सः-शेवृधः-जातः) वह परमात्मा सुखवर्द्धक प्रसिद्ध होता है (हर्म्येषु नाभिः) सुखपूर्ण घरों में-सुखस्थानों में केन्द्ररूप है (रोचनस्य युवा-आभवति) ज्ञानप्रकाशक-स्वरूप का सङ्गतिकर्ता अधिकारी बन जाता है ॥३॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य मेधावी और स्तुति, प्रार्थना, उपासना से सम्पन्न होता है, वह सर्वत्र व्यापक परमात्मा के प्रिय पुत्र के समान उपासक होता है। वह वाणी के मूर्धा स्वरूप ‘ओ३म्’ नाम के जप से सुखस्वरूप परमात्मा का साक्षात् करता है, जो सब सुखों में ऊँचा श्रेष्ठ सुख है ॥३॥

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    विषय

    ऋत्रित का प्रभु दर्शन

    पदार्थ

    [१] (इमम्) = इस परमात्मा को (त्रितः) = [ त्रीन् तनाति] ज्ञान, कर्म व उपासना तीनों का विस्तार करनेवाला (भूरि) = खूब (अविन्दत्) = प्राप्त करता है अथवा [भृ-पोषण] पोषण करनेवाले के रूप में प्राप्त करता है । (इन्दन्) = प्राप्त तभी करता है जब कि वह प्रभु प्राप्ति की प्रबल इच्छावाला होता है । (वैभूवसः) = प्राप्त करनेवाला वही है जो वैभूवस है, विभूवस् का पुत्र है, अर्थात् [विभौ वसति ] उस व्यापक प्रभु में वासवाला है। [२] यह उस प्रभु को (अघ्न्यायाः) = अहन्तव्य वेदवाणी के (मूर्धनि) = शिखर पर प्राप्त करता है। ऋग्वेद के द्वारा विज्ञान का अध्ययन करता हुआ यह इस सृष्टि में उस प्रभु की विभूति को देखता है। यजुर्वेद के द्वारा यज्ञमय जीवन बनाता हुआ अपने को पवित्र करने के लिये यत्नशील होता है और पवित्र बनकर साथ में प्रभु का उपासन करनेवाला बनता है और अब अथर्व० में पहुँचकर अथ अर्वाङ् । अन्तः निरीक्षण करता है और [अथर्व] स्थितप्रज्ञ बनकर प्रभु का दर्शन करनेवाला होता है, यह अथर्व ही वेदवाणी का मूर्धा है । यहाँ यह वैभूवस प्रभु को पानेवाला होता है। [३] प्रभु का दर्शन करता हुआ यह देखता है कि (स) = वे प्रभु (शेवृधः) = सुख के वर्धयिता हैं । (हर्म्येषु) = इन शरीर रूप गृहों में (आजातः) = प्रादुर्भूत हुए हुए (युवा) = सब बुराइयों के दूर करनेवाले और अच्छाइयों को इसके साथ जोड़नेवाले होते हैं और ये प्रभु (रोचनस्य) = देदीप्यमान ज्ञान ज्योति के (नाभिः) = [नह बन्धने] बाँधनेवाले भवति हैं । प्रभु प्राप्ति का परिणाम 'सुख, भद्रता व ज्ञान' की प्राप्ति है।

    भावार्थ

    भावार्थ-त्रित वैभूवस प्रभु का दर्शन करता है और सुख, भद्रता व ज्ञान का भागी होता है।

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    विषय

    मोक्ष में युक्तात्मा का प्राप्य प्रभु सर्वज्ञ, सर्वेश्वर, तेजोमय है।

    भावार्थ

    (इमं) इस ज्ञानमय, परम अग्नि को (वैभूवसः) व्यापक महान् शक्तिमान् प्रभु में बसने वाला, (त्रितः) तीनों लोकों, वेदों और अपने तीन जन्मों को जानने वाला वा तीनों दुःखों से पार उतरा हुआ मुक्त जीव, (इच्छन्) चाहता हुआ ही उसे (भूरि) बहुत २ (अविन्दत्) पा लेता है। तब (सः) वह (शेवृधः) उस शान्तिमय प्रभु में शक्ति से बढ़कर शक्तिशाली होकर (हर्म्येषु जातः) बड़े २ प्रासादों में उत्पन्न राजपुत्र के तुल्य बड़े २ लोकों में भी (युत्रा) बलवान् युवावत् होकर (रोचनस्य) अति तेज का (नाभिः) सूर्यवत् केन्द्र होजाता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३,५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ८, १० त्रिष्टुप्। ६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत् त्रिष्टुप्। ९ निचृत् त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (त्रितः) मेधया दुःखादत्यन्ततीर्णः, “त्रितः-तीर्णतमो मेधया” [निरु० ४।६] तिसृभिः स्तुतिप्रार्थनोपासनाभिः सम्पन्नः, यद्वा स्तुतिप्रार्थनोपासनासु वर्तमान आत्मा (वैभुवसः) विभुः सन् वसति सर्वत्रेति विभुवसः परमात्मा तस्य यः पुत्र उपासको वा-आत्मा (इमम्) एनं परमात्मानम् (इच्छन्) द्रष्टुं प्राप्तुं कामयमानः (अघ्न्यायाः-मूर्धन् भूरि-अविन्दन्) अहन्तव्याया वेदवाचो मूर्धभूते ‘ओ३म्’ इति प्रणवे-अतिशयेन बहुभावेन वा विन्दति प्राप्नोति (सः-शेवृधः जातः) स परमात्मा सुखस्य वर्धको जातः (हर्म्येषु नाभिः) गृहेषु सुखगृहेषु सुखलोकेषु केन्द्रभूतोऽस्ति (रोचनस्य युवा-आभवति) ज्ञानप्रकाशस्वरूपस्य मिश्रयिता सङ्गतिकर्त्ता-अधिकारी समन्ताद् भवति ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The ardent lover of divinity, Trita, the man having got over threefold suffering of body, mind and soul through knowledge, good work and meditation, finds this Agni presence on top of inviolable nature and earthly life in the absolute state of consciousness. Thus realised in spiritual manifestation, Agni, harbinger and augmenter of spiritual felicity, becomes the centre hold of happy homes and a youthful presence of divinity in the mind of enlightened souls.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो मनुष्य मेधावी असून स्तुती, प्रार्थना, उपासनेने संपन्न होतो. तो उपासक सर्वत्र व्यापक वैभवशाली परमात्म्याच्या प्रिय पुत्राप्रमाणे असतो. तो वाणीचे मूर्धास्वरूप ‘ओ३म्’ नावाच्या जपाने सुखस्वरूप परमेश्वराचा साक्षात्कार करतो जे सुख सर्व सुखांहून उच्च श्रेष्ठ सुख आहे. ॥३॥

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