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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 46 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 46/ मन्त्र 8
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र जि॒ह्वया॑ भरते॒ वेपो॑ अ॒ग्निः प्र व॒युना॑नि॒ चेत॑सा पृथि॒व्याः । तमा॒यव॑: शु॒चय॑न्तं पाव॒कं म॒न्द्रं होता॑रं दधिरे॒ यजि॑ष्ठम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । जि॒ह्वया॑ । भ॒र॒ते॒ । वेपः॑ । अ॒ग्निः । प्र । व॒युना॑नि । चेत॑सा । पृ॒थि॒व्याः । तम् । आ॒यवः॑ । शु॒चय॑न्तम् । पा॒व॒कम् । म॒न्द्रम् । होता॑रम् । द॒धि॒रे॒ । यजि॑ष्ठम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र जिह्वया भरते वेपो अग्निः प्र वयुनानि चेतसा पृथिव्याः । तमायव: शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं दधिरे यजिष्ठम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । जिह्वया । भरते । वेपः । अग्निः । प्र । वयुनानि । चेतसा । पृथिव्याः । तम् । आयवः । शुचयन्तम् । पावकम् । मन्द्रम् । होतारम् । दधिरे । यजिष्ठम् ॥ १०.४६.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 46; मन्त्र » 8
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अग्निः) ज्ञानप्रकाशक परमात्मा (जिह्वया) वेदवाणी द्वारा वा स्तुति द्वारा (वेपः प्रभरते) मनुष्यों में कर्म-कर्मशक्ति को प्रकृष्टरूप से भरता है-धरता है (पृथिव्याः-वयुनानि चेतसा प्र) प्रथित-विस्तृत सृष्टि के प्रज्ञानों को वेदज्ञान से मनुष्यों में प्रकृष्टरूप से धारण करता है (तं शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं यजिष्ठम्) उस ज्ञान से प्रकाशमान, पवित्रकारक, स्तुति करने योग्य, स्वीकर्त्ता, बहुसङ्गमनीय परमात्मा को (आयवः-दधिरे) मनुष्य लोग धारण करते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    परमात्मा वेदद्वारा मनुष्यों को कर्मविधान का उपदेश देता है तथा वेद के द्वारा ही विस्तृत सृष्टि के ज्ञानक्रमों को भी जनाता है। वह परमात्मा सबके द्वारा स्तुति करने और धारण करने योग्य है ॥८॥

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    विषय

    वेप व अग्नि

    पदार्थ

    [१] 'धूञ् कम्पने' धातु से 'धूम' शब्द बनता है, शत्रुओं को कम्पित करनेवाला । उसी का पर्यायवाची 'वेप' शब्द है, यह 'वेप् कम्पने' से बना है। यह (वेपः) = कामादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाला (अग्निः) = अग्रणी, प्रगतिशील पुरुष (जिह्वया) = अपनी जिह्वा से प्रभरते प्रभु के नामों को धारण करता है। वस्तुतः प्रभु-स्तवन करता हुआ ही यह कामादि शत्रुओं को कम्पित करके दूर भगाता है। [२] यह (वेप चेतसा) = चित्त से वयुनानि [ वयुनं वेतेः कान्तिर्वा प्रज्ञा वा नि० ५ । १५] प्रज्ञानों को तथा (पृथिव्याः) = [ पृथिवी शरीरम् ] शरीर से स्वास्थ्यजनित कान्ति को (प्र) [ भरते] = धारण करता है। कामादि शत्रुओं के दूर होने पर ज्ञान का आवरण नष्ट होता है और ज्ञान की दीप्ति तो चमक ही उठती है, शरीर के स्वास्थ्य की उन्नति से शरीर भी कान्तिमय हो जाता है । [३] (आयवः) = ये [इ-गतौ] प्रगतिशील पुरुष (तम्) = उस प्रभु को (दधिरे) = धारण करते हैं, जो प्रभु (शुचयन्तम्) = [ शुच् दीप्तौ ] अपने भक्तों को ज्ञान से दीप्त करते हैं, (पावकम्) = पवित्र करनेवाले हैं, (मन्द्रम्) = आनन्दस्वरूप व आनन्द को देनेवाले हैं, (होतारम्) = सब कुछ प्राप्त कराते हैं, [सृष्टियज्ञ के महान् होता हैं] तथा (यजिष्ठम्) = अत्यन्त पूज्य हैं [ यज् - पूजा] । यह प्रभु का पूजन ही वस्तुतः भक्त को 'वेप व अग्नि' बनने की क्षमता प्रदान करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु भजन करते हुए, काम को कम्पित करके, उन्नति पथ पर आगे बढ़ें।

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    विषय

    सर्वज्ञानप्रद प्रभु

    भावार्थ

    जो (अग्नि:) अग्निवत् तेजस्वी पुरुष, विद्वान्, वा नायक (जिह्वया) वाणी द्वारा (वेपः प्र भरते) कर्म और ज्ञान को धारण कराता है और (पृथिव्याः वयुनानि) पृथिवी के ज्ञानों को (चेतसा प्र भरते) अपने चित्त वा ज्ञान से धारण करता है, (तम्) उस (पावकम्) परम पावन (मन्द्रम्) अति स्तुत्य, हर्षदायी, (होतारम्) सर्वैश्वर्यों के दाता, (यजिष्ठम्) अति पूजनीय को देववत् (आयवः) समस्त मनुष्य (दधिरे) धारण करते हैं वा करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३,५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ८, १० त्रिष्टुप्। ६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत् त्रिष्टुप्। ९ निचृत् त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अग्निः) ज्ञानप्रकाशकः परमात्मा (जिह्वया) वेदवाचा स्तुतिवाचा वा “जिह्वा वाङ्नाम” [निघ० १।११] (वेपः प्रभरते) कर्म “वेपः कर्मनाम” [निघ० २।१] मनुष्येषु प्रकृष्टं धारयति (पृथिव्याः-वयुनानि चेतसा प्र) प्रथितायाः सृष्टेश्चेतयित्रा वेदज्ञानेन प्रज्ञानानि मनुष्येषु प्रकृष्टं धारयति (तं शुचयन्तं पावकं मन्द्रं होतारं यजिष्ठम्) तं ज्ञानेन प्रकाशमानं पवित्रकारकं स्तुत्यं स्वीकर्तारं बहुसङ्गमनीयम् (आयवः-दधिरे) मनुष्याः “आयवः-मनुष्यनाम” [निघ० २।३] धारयन्ति ॥८॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light of omniscience, vests humanity with the wisdom, will and power of action, and also with the awareness of the laws of the expansive universe, by the flames of its powerful Vedic voice of revelations. And the people hold, adore, serve and follow that Agni, the most lovable and adorable, purifying, sanctifying and joyous power which is the high priest of the dynamics of existence, the receiver and a thousandfold giver.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा वेदाद्वारे माणसांना कर्मविधानाचा उपदेश देतो व वेदाद्वारेच विस्तृत सृष्टीच्या ज्ञानक्रमांना जाणवून देतो. तो परमात्मा सर्वांनी स्तुती करण्यायोग्य व धारण करण्यायोग्य आहे. ॥८॥

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