Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 46 के मन्त्र
1 2 3 4 5 6 7 8 9 10
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 46/ मन्त्र 4
    ऋषिः - वत्सप्रिः देवता - अग्निः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    म॒न्द्रं होता॑रमु॒शिजो॒ नमो॑भि॒: प्राञ्चं॑ य॒ज्ञं ने॒तार॑मध्व॒राणा॑म् । वि॒शाम॑कृण्वन्नर॒तिं पा॑व॒कं ह॑व्य॒वाहं॒ दध॑तो॒ मानु॑षेषु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    म॒न्द्रम् । होता॑रम् । उ॒शिजः॑ । नमः॑ऽभिः । प्राञ्च॑म् । य॒ज्ञम् । ने॒तार॑म् । अ॒ध्व॒राणा॑म् । वि॒शाम् । अ॒कृ॒ण्व॒न् । अ॒र॒तिम् । पा॒व॒कम् । ह॒व्य॒ऽवाह॑म् । दध॑तः । मानु॑षेषु ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मन्द्रं होतारमुशिजो नमोभि: प्राञ्चं यज्ञं नेतारमध्वराणाम् । विशामकृण्वन्नरतिं पावकं हव्यवाहं दधतो मानुषेषु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मन्द्रम् । होतारम् । उशिजः । नमःऽभिः । प्राञ्चम् । यज्ञम् । नेतारम् । अध्वराणाम् । विशाम् । अकृण्वन् । अरतिम् । पावकम् । हव्यऽवाहम् । दधतः । मानुषेषु ॥ १०.४६.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 46; मन्त्र » 4
    अष्टक » 8; अध्याय » 1; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मानुषेषु दधतः-उशिजः) मनुष्यों के मध्य में जो अपने अन्दर धारण करने के हेतु कामना रखनेवाले (मन्द्रं होतारम्) हर्षित करनेवाले तथा स्वीकार करनेवाले (यज्ञम्) सङ्गमनीय (अध्वराणां नेतारम्) अध्यात्ममार्ग में रमण करनेवालों के नेता (विशाम्-अरतिम्) मनुष्यादि प्रजाओं के स्वामी (पावकम्) पवित्रकारक (हव्यवाहम्) स्तुतिप्रार्थनोपहार के स्वीकार करनेवाले परमात्मा को (प्राञ्चम्-अकृण्वन्) साक्षात् करते हैं ॥४॥

    भावार्थ

    मनुष्यों में जो परमात्मा को अपने अन्दर धारण करने के अत्यन्त इच्छुक होते हैं और पवित्र आचरणवाले तथा श्रद्धा से उपासना करते हैं, वे ही प्राणिमात्र के स्वामी हर्षित करनेवाले परमात्मा का साक्षात्कार करते हैं ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    प्रभु का प्रसादन

    पदार्थ

    [१] (उशिजः) = मेधावी, प्रभु प्राप्ति की प्रबल कामनावाले लोग, (नमोभिः) = नमस्कार व नम्रता के द्वारा (अकृण्वन्) = प्रभु को प्रसन्न करते हैं अथवा प्रभु को अपना बनाते हैं । ये मेधावी लोग प्रभु को तभी अपना पाते हैं जब ये (मानुषेषु दधतः) = मनुष्यों में अपने को स्थापित करते हैं। मानवहित के लिये अपने को अर्पित करनेवाले लोग ही प्रभु के सच्चे भक्त होते हैं और प्रभु प्राप्ति के अधिकारी बनते हैं। [२] उस प्रभु को पाते हैं जो कि (मन्द्रम्) = आनन्दस्वरूप हैं तथा भक्तों को आनन्दित करनेवाले हैं। (होतारम्) = सब कुछ देनेवाले हैं । सब आवश्यक वस्तुएं प्राप्त कराके ही तो वे हमारे जीवनों को आनन्दित करते हैं । (प्राञ्चम्) = [ प्र अञ्च] सब आवश्यक साधन प्राप्त कराके वे हमें आगे ले चलनेवाले हैं । (यज्ञम्) = पूजनीय हैं, संगतिकरण योग्य हैं तथा अर्पणीय हैं, प्रभु के प्रति अपना अर्पण करके ही मनुष्य अपने कल्याण को सिद्ध करता है। विशां अध्वराणां नेतारम्-प्रजाओं के सब हिंसारहित यज्ञात्मक श्रेष्ठ कर्मों का वे प्रणयन करनेवाले हैं, प्रभु कृपा से ही सब यज्ञ पूर्ण हुआ करते हैं । (अरतिम्) = वे कहीं भी रति व रागवाले नहीं है। (पावकम्) = अपने भक्तों के जीवनों को पवित्र करनेवाले हैं। (हव्यवाहम्) = सब हव्य पदार्थों के वे प्राप्त करानेवाले हैं। हमें कर्मानुसार सब उत्तम वस्तुओं के देनेवाले हैं। इस प्रभु को मेधावी पुरुष मानवहित में लगकर नम्रतापूर्वक चलते हुए धारण करते हैं। प्रभु भक्त बनने के लिये 'सर्वभूतहितेरत' होना आवश्यक है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हम 'उशिक्' बनकर, मानवहित के कर्मों में अपने को स्थापित करते हुए, प्रभु को प्रसन्न करनेवाले होते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    सर्वस्तुत्य, सर्वस्वामी प्रभु।

    भावार्थ

    (मन्द्रम्) अति आनन्ददायक, (होतारम्) सब को सुख देने वाले, सबको अपने भीतर लेने और अपने प्रति बुलाने वाले, (प्राञ्चम्) अति पूज्य, (यज्ञम्) सर्वदाता, सर्वोपास्य, सत्सङ्ग के योग्य, (अध्वराणां नेतारम्) न नष्ट होने वाले, नित्य तत्व के सञ्चालन करने वाले, (विशाम्) देह में प्रवेश करने वाले समस्त जीव-प्रजाओं के (अरतिम्) स्वामी, (पावकं) परम पावन, (हव्यवाहं) ग्राह्य विषय रूप जगत् को अपने शक्ति सामर्थ्य से उठाने और सञ्चालन करने वाले प्रभु को (मानुषेषु) मननशील पुरुषों के बीच में, वेदि में यज्ञाग्निवत् धारण स्थापन करने वाले (उशिजः) वशी, उसके चाहने वाले विद्वान् जन उसको (नमोभिः) विनययुक्त वचनों से (प्राञ्चं) प्रकट, व्यक्त, साक्षात् कर लेते हैं। उसी प्रकार हम भी करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वत्सप्रिर्ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्दः- १, २ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ३,५ आर्ची स्वराट् त्रिष्टुप्। ४, ८, १० त्रिष्टुप्। ६ आर्ची भुरिक् त्रिष्टुप्। ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत् त्रिष्टुप्। ९ निचृत् त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मानुषेषु दधतः-उशिजः) मनुष्येषु मनुष्याणां मध्ये ये दधानाः स्वान्तरे धारणहेतवे कामयमानाः स्तोतारः (मन्द्रं होतारम्) हर्षयितारमादातारं स्वीकर्तारम् (यज्ञम्) यजनीयं सङ्गमनीयम् (अध्वराणां नेतारम्) अध्यात्ममार्गे रममाणानां नेतारम् (विशाम्-अरतिम्) समस्तमनुष्यादिप्रजानां स्वामिनम् (पावकम्) पवित्रकारकम् (हव्यवाहम्) स्तुतिप्रार्थनोपहारस्य स्वीकर्तारं परमात्मानम् (प्राञ्चम्-अकृण्वन्) साक्षात् कुर्वन्ति ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Earnest men of love, passion and faith among people hold at heart and with homage serve Agni, the power that is joyous, yajnic creator giver and organiser, foremost leader directly realised, worthy of love and reverence, leading power of creative programmes of love and non-violence, cleanser and purifier, harbinger of holy materials for social development. They hold Agni at heart and create and exalt it as the prime power among the people.

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जी माणसे परमात्म्याला आपल्यात धारण करण्यास अत्यंत इच्छुक असतात, तसेच पवित्र आचरण करणारी व श्रद्धेने उपासना करणारी असतात तीच प्राणिमात्रांचा स्वामी व आनंददायक परमात्म्याचा साक्षात्कार करतात. ॥४॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top