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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 62 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 3
    ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः देवता - विश्वे देवा आङ्गिरसो वा छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    य ऋ॒तेन॒ सूर्य॒मारो॑हयन्दि॒व्यप्र॑थयन्पृथि॒वीं मा॒तरं॒ वि । सु॒प्र॒जा॒स्त्वम॑ङ्गिरसो वो अस्तु॒ प्रति॑ गृभ्णीत मान॒वं सु॑मेधसः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । ऋ॒तेन॑ । सूर्य॑म् । आ । अरो॑हयन् । दि॒वि । अप्र॑थयन् । पृ॒थि॒वीम् । मा॒तर॑म् । वि । सु॒प्र॒जाः॒ऽत्वम् । अ॒ङ्गि॒र॒सः॒ । वः॒ । अ॒स्तु॒ । प्रति॑ । गृ॒भ्णी॒त॒ । मा॒न॒वम् । सु॒ऽमे॒ध॒सः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    य ऋतेन सूर्यमारोहयन्दिव्यप्रथयन्पृथिवीं मातरं वि । सुप्रजास्त्वमङ्गिरसो वो अस्तु प्रति गृभ्णीत मानवं सुमेधसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । ऋतेन । सूर्यम् । आ । अरोहयन् । दिवि । अप्रथयन् । पृथिवीम् । मातरम् । वि । सुप्रजाःऽत्वम् । अङ्गिरसः । वः । अस्तु । प्रति । गृभ्णीत । मानवम् । सुऽमेधसः ॥ १०.६२.३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 3
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (ये ऋतेन दिवि, सूर्यम्-आरोहयन्) जो उस ज्ञान या उस तेज से सरणशील-प्रगतिमान् श्रोता या सूर्य को मोक्षधाम में या द्युलोक में ले जाते हैं-स्थापित करते हैं, भली-भाँति प्रकाशित करते हैं (मातरं पृथिवीं वि-अप्रथयन्) निर्मात्री निर्माण करनेवाली प्रथनशीला और विशिष्ट प्रसिद्ध या प्रकाशित श्रवणशील स्त्री को बनाते हैं-करते हैं। अङ्गिरसः-वः-सुप्रजास्त्वम्-अस्तु, हे विद्वानों ! या किरणों ! तुम्हारे लिए सुसन्तान भाव, सुशिष्यभाव सुख वनस्पतिभाव हों। आगे पूर्ववत् ॥३॥

    भावार्थ

    विद्वानों के द्वारा प्राप्त ज्ञान से श्रोता मोक्ष को प्राप्त होता है और उसके यहाँ श्रवणशील स्त्री होने से वह उत्तम सन्तान, उत्तम शिष्य को प्राप्त करता है, होता है। एवं सूर्यकिरणें तेजोधर्म सूर्य को द्युलोक में चमकाती हैं और पृथिवी के प्रथनशील होने से उस पर उत्तम वनस्पतियाँ उत्पन्न होती हैं ॥३॥

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    विषय

    विद्वान् तेजस्वियों का कर्त्तव्य राजा का स्थापन, प्रजा का अभ्युदय, मानवों पर अनुग्रह। पक्षान्तर में—योगाभ्यास का वर्णन।

    भावार्थ

    (ये) जो (ऋतेन) सत्य ज्ञान के बल से (दिवि) राजसभा के ऊपर (सूर्यम्) सूर्य के सदृश तेजस्वी पुरुष को (आ अरोहयन्) उन्नत पद पर स्थापित करते हैं और (मातरम्) माता के समान (पृथिवीम्) पृथिवी वासिनी प्रजा को (वि अप्रथयन्) विविध प्रकारों से प्रथित, विस्तृत, समृद्ध एवं व्यापक करते हैं है (अंगिरसः) विद्वान्, तेजस्वी जनो ! (वः सुप्रजास्त्वम् अस्तु) आप लोगों की उत्तम सुखी प्रजाएं हों। हे (सु-मेधसः) उत्तम धारणा और उत्तम शत्रुनाशनी शक्ति सेना के स्वामी जनो ! आप लोग (मानवं प्रतिगृम्णीत) मानव समूह को अपने वश या शरण में लेओ। (२) इसी प्रकार जो (ऋतेन) आत्म बल से (सूर्यं दिवि आ) सूर्य नाम दक्षिण प्राण को ब्रह्माण्ड अर्थात् मूर्धा भाग में चढ़ा लेते हैं और (पृथिवीम् अप्रथयन्) गुदागत अपान को देह में विशेष रूप से व्याप्त कर लेते हैं वे (सुप्रजास्त्वम्) उत्तम प्रजा के पिता और उत्तम ज्ञानवान् होकर मननशील विद्वानों के ज्ञान-तत्त्व वा जीव के आत्मा के स्वरूप को ग्रहण, ज्ञान करते हैं, वे आत्मा तक पहुंचते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥

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    विषय

    सुप्रजास्त्व

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में कहा था कि ऋत के पालन से ज्ञान पर आ जानेवाले आवरण का नाश हो जाता है। इस आवरण के नष्ट होने से ज्ञान का सूर्य उसी प्रकार चमक उठता है जैसे कि मेघ के हटने पर आकाश में सूर्य चमक आता है। (ये) = जो (ऋतेन) = ऋत के पालन से (दिवि) = मस्तिष्करूप लोक में (सूर्यम्) = ज्ञान रूप सूर्य को (आरोहयन्) = आरूढ़ करते हैं और जो लोग (मातरम्) = भूमि माता के समान हितकर (पृथिवीम्) = इस शरीर रूप पृथिवी को (वि अप्रथयन्) = विस्तृत करते हैं, अर्थात् जो शरीर की शक्तियों को फैलाने का प्रयत्न करते हैं, (अंगिरसः) = हे रसमय अंगोंवाले पुरुषो ! (वः) = उन आपके लिये (सुप्रजास्त्वम्) = उत्तम सन्तानोंवाला होना (अस्तु) = हो । अर्थात् मस्तिष्क में ज्ञान- सम्पन्न तथा शरीर में शक्ति सम्पन्न अंगिरस उत्तम सन्तानों को प्राप्त करते हैं । [२] सन्तानों की उत्तमता माता-पिता की उत्तमता पर निर्भर करती है। माता-पिता ज्ञान व शक्ति का सम्पादन करके, मस्तिष्क व शरीर दोनों को अच्छा बनाकर, उत्तम सन्तानों को ही प्राप्त करते हैं । सन्तान भी ज्ञान व शक्ति को लेकर उत्पन्न होते हैं । इस प्रकार सन्तानों को अच्छा बनाकर हे (सुमेधसः) = उत्तम मेधावाले पुरुषो! आप (मानवम्) = मानव धर्म को (प्रति गृभ्णीत) = ग्रहण करनेवाले बनो । तुम्हारे सब कार्य अधिक से अधिक प्राणियों का हित करनेवाले हों ।

    भावार्थ

    भावार्थ - ऋत के द्वारा हमारा ज्ञान बढ़े और शरीर की शक्तियाँ सुसम्पन्न हों । परिणामतः हमारी सन्तानें भी उत्तम हों ।

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (ये-ऋतेन दिवि सूर्यम्-आरोहयन्) ये खलु तज्ज्ञानेन तत्तेजसा वा सरणशीलं प्रगतिमन्तं श्रोतारं सूर्यं वा मोक्षधाम्नि द्युलोके वा आरोहयन्ति नयन्ति-समन्तात् प्रकाशयन्ति वा (मातरं पृथिवीं वि-अप्रथयन्) निर्मात्रीं प्रथनशीलां “पृथिवीं व प्रथमानायै स्त्रियै” [ऋ० १।१८५।१ दयानन्दः] च विशिष्टतया प्रसिद्धां प्रकाशितां वा श्रोत्रीं स्त्रियं च कुर्वन्ति (अङ्गिरस-वः-सुप्रजास्त्वम्-अस्तु) हे विद्वांसः-किरणाः वा ! युष्मभ्यं सुसन्तानभावं सुशिष्यत्वं सुखवानस्पत्यादित्वं भवतु। अग्रे पूर्ववत् ॥३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Angirasas, nature’s powers of creation and evolution who, by the divine law and cosmic yajna of nature, raised the sun and set it there and formed and expanded mother earth, may you have the wealth of noble progeny. Enlightened sages of noble intellect and wisdom who study and research the laws of nature, pray take the children of humanity under your kind care.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांद्वारे प्राप्त झालेल्या ज्ञानाने श्रोता मोक्ष प्राप्त करतो व त्याच्याद्वारे श्रवणशील स्त्री असल्यास उत्तम संतान, उत्तम शिष्य प्राप्त करतो व सूर्यकिरण तेजस्वी सूर्याला द्युलोकात चमकवितात व पृथ्वी पृथनशील असल्यामुळे उत्तम वनस्पती उत्पन्न करते. ॥३॥

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