ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 62/ मन्त्र 5
ऋषिः - नाभानेदिष्ठो मानवः
देवता - विश्वे देवा आङ्गिरसो वा
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
विरू॑पास॒ इदृष॑य॒स्त इद्ग॑म्भी॒रवे॑पसः । ते अङ्गि॑रसः सू॒नव॒स्ते अ॒ग्नेः परि॑ जज्ञिरे ॥
स्वर सहित पद पाठविऽरू॑पासः । इत् । ऋष॑यः । ते । इत् । ग॒म्भी॒रऽवे॑पसः । ते । अङ्गि॑रसः । सू॒नवः॑ । ते । अ॒ग्नेः । परि॑ । ज॒ज्ञि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विरूपास इदृषयस्त इद्गम्भीरवेपसः । ते अङ्गिरसः सूनवस्ते अग्नेः परि जज्ञिरे ॥
स्वर रहित पद पाठविऽरूपासः । इत् । ऋषयः । ते । इत् । गम्भीरऽवेपसः । ते । अङ्गिरसः । सूनवः । ते । अग्नेः । परि । जज्ञिरे ॥ १०.६२.५
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 62; मन्त्र » 5
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऋषयः-इत्-विरूपासः) मन्त्रार्थद्रष्टा, विशिष्टता से निरूपण करनेवाले विशेषरूप से विषय को खोलनेवाले होते हैं (ते-इत्-गम्भीरवेपसः) वे ही गम्भीर कर्म वाले-कर्मप्रवृत्तिवाले-असाधारण क्रियावाले होते हैं। (ते अङ्गिरसः सूनवः) वे परमात्मा के पुत्रसदृश होते हैं (ते अग्ने परिजज्ञिरे) क्योंकि परमात्मा को ध्यान करके प्रकट हुए होते हैं ॥५॥ आधिदैविक दृष्टि से– (विरूपासः-ऋषयः) विविध रूपवाले प्रसरणशील मेघ में उत्पन्न हुए विद्युत् के तरङ्गरूप कपिलादि वर्णवाले (गम्भीरवेपसः) गम्भीर कर्मवाले मेघ को गिराने रूप कर्मवाले (ते अङ्गिरसः सूनवः) वे विद्युदग्नि से उत्पन्न होनेवाले (ते अग्नेः परिजज्ञिरे) सामान्यरूप से अग्नि से उत्पन्न होते हैं।
भावार्थ
मन्त्रार्थों को जाननेवाले ऋषि मन्त्रों का यथार्थ प्रवचन किया करते हैं और वे यथार्थ कर्म का प्रतिपादन तथा आचरण करते हैं। वे ही परमात्मा के ध्यान से ऋषिरूप को धारण करते हैं, एवं मेघ में भिन्न-भिन्न रूपों में चमकनेवाले विद्युत्तरङ्गों का मेघ को गिराने का कर्म महत्त्वपूर्ण होता है ॥५॥
विषय
उत्तम शिष्यों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ऋषयः इत्) ऋषि, मन्त्रार्थों को देखने वाले तत्त्वदर्शी जन (वि-रूपासः इत्) विविध रूप वा रुचि वाले होते हैं। (ते इत् गम्भीर-वेपसः) वे गम्भीरता पूर्वक, कर्म करने वाले, विचारपूर्वक आचरण करने वाले होते हैं। (ते अङ्गिरसः) वे अति उज्ज्वल, तेजस्वी, (अग्नेः) ज्ञानमय गुरु, प्रभु के (सूनवः) पुत्रों के तुल्य, उनके शासन में रहने वाले होते हैं। वे (अग्नेः परि जज्ञिरे) अग्निवत्, तेजोमय गुरु, आचार्य से उत्पन्न होते और उसकी सब ओर से उपासना करते हैं। इति प्रथमो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
नाभानेदिष्ठो मानव ऋषिः। देवता-१-६ विश्वेदेवाङ्गिरसो वा। ७ विश्वेदेवाः। ८—११ सावर्णेर्दानस्तुतिः॥ छन्द:—१, २ विराड् जगती। ३ पादनिचृज्जगती। ४ निचृज्जगती। ५ अनुष्टुप्। ८, ९ निचृदनुष्टुप्। ६ बृहती। ७ विराट् पङ्क्तिः। १० गायत्री। ११ भुरिक् त्रिष्टुप्॥
विषय
विरूप ऋषि
पदार्थ
[१] (विरूपासः) = गत मन्त्रों के अनुसार अपने जीवनों को बनानेवाले व्यक्ति विशिष्टरूपवाले होते हैं, ये औरों की तुलना में कहीं आगे बढ़े हुए होते हैं, ये तेजस्विता से दीप्त होते हुए चमकते हैं, (इत्) = निश्चय से (ऋषयः) = तत्त्वद्रष्टा बनते हैं। शरीर में 'विरूप', मस्तिष्क में 'ऋषि' बनकर आदर्श पुरुष प्रतीत होते हैं। [२] (ते) = वे (इत्) = निश्चय से (गम्भीरवेपसः) = [गम्भीरकर्माणः] गम्भीर कर्मोंवाले होते हैं। ये प्रत्येक कर्म को उचित गम्भीरता के साथ करते हैं । [३] (ते) = वे (अंगिरसः सूनवः) = अंगिरस् के पुत्र कहलाते हैं । अर्थात् उत्कृष्ट अंगिरस होते हैं, इनके अंग-प्रत्यंग सब सशक्त बने रहते हैं, उसके अंगों में लोच-लचक बनी रहती है । [४] (ते) = वे (अग्नेः) = उस परमात्मा से (परिजज्ञिरे) = प्रादुर्भूत शक्तिवाले होते हैं, प्रभु की उपासना से इन्हें शक्ति प्राप्त होती है, इसकी शक्तियों के प्रादुर्भाव का रहस्य इनका प्रभु उपासन है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम 'तेजस्वी ज्ञानी-गम्भीरता से कर्मों को करनेवाले, सरस अंगोंवाले' बनें। ऐसा बनने के लिये प्रभु का उपासन करें।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऋषयः-इत् विरूपासः) मन्त्रार्थद्रष्टारः खलु विशिष्टतया निरूपणकर्त्तारो भवन्ति (ते-इत्-गम्भीरवेपसः) ते हि गम्भीरकर्म-प्रवृत्तयोऽसाधारणक्रियावन्तो भवन्ति “वेपः कर्मनाम” [निघ० २।११] “गम्भीरवेपसः गम्भीरकर्मणः” [निरुक्त ११।१६] (ते अङ्गिरसः सूनवः) परमात्माग्नेः सूनुसदृशाः (अग्नेः परिजज्ञिरे) यतस्ते परमात्माग्नौ परमात्मध्यानं कृत्वा प्रकटीकृताः-भूताः सन्ति। आधिदैविकदृष्ट्या तु (विरूपासः-ऋषयः) विविधरूपादिका ऋषयः प्रसरणशीलाः मेघे जाताः वैद्युततरङ्गाः कपिलादिवर्णकाः (गम्भीरवेपसः) गम्भीरकर्माणो मेघनिपातेन कर्मवन्तः (ते-अङ्गिरसः सूनवः) ते विद्युदग्नेर्जाताः (ते अग्नेः परिजज्ञिरे) सामान्यतो अग्नितत्त्वाज्जायन्ते ॥५॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Rshis are seers of various forms of existence including the structures and meanings of the voice divine. They are powers and performers of serious and mysterious actions. They are all Angirasas, children of the cosmic soul born as waves of cosmic energy. O cosmic soul, O cosmic energy, O Agni, they are your children, creators too in their own natural ways, born of you like sparks from the yajna fire.
मराठी (1)
भावार्थ
मंत्रार्थाला जाणणारे ऋषी मंत्रांचे यथार्थ प्रवचन करतात व ते यथार्थ कर्माचे प्रतिपादन व आचरण करतात. तेच परमेश्वराचे ध्यान करून ऋषिरूप धारण करतात व मेघात भिन्न भिन्न रूपात चमकणाऱ्या विद्युत तरंगांना मेघाला पाडण्याचे कर्म महत्त्वपूर्ण असते. ॥५॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal