ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 7
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - आप्रियः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
ऊ॒र्ध्वो ग्रावा॑ बृ॒हद॒ग्निः समि॑द्धः प्रि॒या धामा॒न्यदि॑तेरु॒पस्थे॑ । पु॒रोहि॑तावृत्विजा य॒ज्ञे अ॒स्मिन्वि॒दुष्ट॑रा॒ द्रवि॑ण॒मा य॑जेथाम् ॥
स्वर सहित पद पाठऊ॒र्ध्वः । ग्रावा॑ । बृ॒हत् । अ॒ग्निः । सम्ऽइ॑द्धः । प्रि॒या । धामा॑नि । अदि॑तेः । उ॒पऽस्थे॑ । पु॒रःऽहि॑तौ । ऋ॒त्वि॒जा॒ । य॒ज्ञे । अ॒स्मिन् । वि॒दुःऽत॑रा । द्रवि॑णम् । आ । य॒जे॒था॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऊर्ध्वो ग्रावा बृहदग्निः समिद्धः प्रिया धामान्यदितेरुपस्थे । पुरोहितावृत्विजा यज्ञे अस्मिन्विदुष्टरा द्रविणमा यजेथाम् ॥
स्वर रहित पद पाठऊर्ध्वः । ग्रावा । बृहत् । अग्निः । सम्ऽइद्धः । प्रिया । धामानि । अदितेः । उपऽस्थे । पुरःऽहितौ । ऋत्विजा । यज्ञे । अस्मिन् । विदुःऽतरा । द्रविणम् । आ । यजेथाम् ॥ १०.७०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 7
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(ऊर्ध्वः-ग्रावा) उत्कृष्ट विद्वान् उपदेष्टा (बृहत्-समिद्धः-अग्निः) महान् ज्ञान से दीप्त अध्यापक (अदितेः-उपस्थे प्रिया धामानि) अखण्डित विद्यावाले विद्वान् के मस्तिष्क या हृदय में प्रिय ज्ञान (अस्मिन् यज्ञे) इस ज्ञानयज्ञ में (पुरोहितौ-ऋत्विजौ) सामने स्थित समय में ज्ञानदाता अध्यापक और उपदेशक (विदुष्टरा) अत्यन्त विद्वान् (द्रविणम्-आयजेथाम्) ज्ञानधन को भलीभाँति प्रदान करें ॥७॥
भावार्थ
उत्तम विद्यावाले अध्यापक और उपदेशक निरन्तर अपने मस्तिष्क या हृदय में विद्या को उत्तरोत्तर बढ़ाते रहते हैं। वे दूसरों को भी निरन्तर विद्यादान देते रहते हैं ॥७॥
विषय
विद्वान् उपदेष्टा का कर्त्तव्य।
भावार्थ
(ग्रावा) उत्तम उपदेश करने वाला विद्वान् और आज्ञापक वीर पुरुष मेघ के समान (ऊर्ध्वः) सर्वोपरि विराजे। वह (बृहत्) बड़ा (अग्निः) अग्नि के समान तेजस्वी, ज्ञानी होकर (सम्-इद्धः) खूब प्रदीप्त हो। (अदितेः उपस्थे) भूमि के ऊपर के स्थान में (धामानि) अनेक धाम, उत्तम स्थान, (प्रिया) प्रिय, रुचिकर, सब जीवों का पालक, धारक, पोषक हो। (पुरः-हितौ) सब के समक्ष स्थापित, कार्य में नियुक्त, (ऋत्विजा) ऋतु ऋतु में देने वाले, समय २ पर यज्ञ करने वाले विद्वान् स्त्री पुरुष जन (अस्मिन् यज्ञे) इस यज्ञ में (विदुः-तरा) एक दूसरे से अधिक ज्ञान बल और धन को जानने और प्राप्त करने वाले होकर (द्रविणं आ यजेथाम्) ज्ञान, धन, बल, वीर्य आदि दिया करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
जीवन यज्ञ के पुरोहित 'प्राणापान'
पदार्थ
[१] वेद में 'अश्मा भवतु नस्तनूः' इत्यादि मन्त्रभागों में शरीर को 'अश्मा' बनाने के लिये कहा गया है। यह (ग्रावा अश्मा) = पत्थर के समान दृढ़ शरीर (ऊर्ध्वः) = उन्नत हो । हमारे शरीर की शक्तियों का विकास ठीक प्रकार से हो । [२] शारीरिक उन्नति के साथ (अग्नि:) = ज्ञानाग्नि भी (बृहत्) = खूब (समिद्धः) = दीप्त हो । मस्तिष्क ज्ञानाग्नि से चमक उठे। इस ज्ञानाग्नि ने ही तो हमारे सब कर्मों को पवित्र करता है 'न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते । [३] शरीर को उन्नत व मस्तिष्क को ज्ञानदीप्त बनाने के बाद हम चाहते हैं कि (अदितेः) = उस अविनाशी प्रभु के (उपस्थे) = उपस्थान में, उपासना में उसकी गोद में बैठने पर (प्रिया धामानि) = हमें प्रिय तेज प्राप्त हों । प्रभु के उपासन से हम प्रभु के समान तेजस्वी बनें और ये तेज, किसी की हानि न करते हुए, रक्षणात्मक कार्यों में ही विनियुक्त हों, और इस प्रकार ये तेज प्रिय हों। [४] 'शरीर की दृढ़ता व उन्नति, मस्तिष्क की ज्ञानदीप्ति तथा हृदय में प्रभु के उपासन की वृत्ति' ये सब बातें प्राणसाधना की अपेक्षा करती हैं। प्राणापान को यहाँ 'पुरोहितौ' कहा है। ये सब इन्द्रियों के प्रमुख स्थान में रखे गये हैं, ये ही ज्येष्ठ व वसिष्ठ हैं। जीवन यज्ञ के ये प्रमुख संचालक हैं, 'तत्र जागृतः अस्वप्नगौ सत्रसदौ च देवौ' । अन्य इन्द्रियाँ सो जाती हैं, पर ये प्राणापान जागते ही रहते हैं। ये (सत्र सदौ) = ऋत्विजा - प्रत्येक ऋतु में इस जीवन-यज्ञ को चलानेवाले हैं । (विदुष्टरा) = [विद् लाभे] जीवन यज्ञ के लिये आवश्यक सब सामग्री को प्राप्त करानेवाले हैं। ये (अस्मिन् यज्ञे) = इस जीवन-यज्ञ में (द्रविणम्) = आवश्यक सम्पत्ति को (आयजेशाम्) = सब प्रकार से हमारे साथ संगत करनेवाले हैं । वस्तुतः ये प्राणापान ही शरीर, मस्तिष्क व हृदय को उन्नत करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्राणसाधना द्वारा जीवन के लिये आवश्यक सामग्री को जुटाएँ ।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(ऊर्ध्वः-ग्रावा) उत्कृष्टो विद्वान्-उपदेष्टा “विद्वांसो हि ग्रावाणः” [श० ३।९।३।१४] (बृहत्-समिद्धः-अग्निः) बृहत् महान् ज्ञानदीप्तोऽव्यापकः (अदितेः-उपस्थे प्रिया धामानि) अखण्डितविद्यावतो विदुषः “अदितिः सर्वे विद्वांसः” [ऋ० १।९८।३ दयानन्दः] उपतिष्ठन्ते विद्या यस्मिन् तस्मिन् मस्तिष्के हृदये वा प्रियाणि ज्ञानानि (अस्मिन् यज्ञे) अस्मिन् ज्ञानयज्ञे (पुरोहितौ-ऋत्विजौ) पुरःस्थितौ समये ज्ञानदातारौ-अध्यापकोपदेशकौ (विदुष्टरा) अत्यन्तविद्वांसौ (द्रविणम्-आयजेथाम्) ज्ञानधनं समन्ताद् दत्तम् ॥७॥
इंग्लिश (1)
Meaning
When the sounding stone for soma goes up, the lighted fire rises in flames, and the havi vessels shine bright and lovely on the vedi in the lap of mother Infinity, then may the priest and the yajaka, Agni and Adityas, both brilliant and divine more and ever more create the wealth of life for humanity. (Yajna here is a metaphor of the creative endeavour of noble humanity in corporate action.)
मराठी (1)
भावार्थ
उत्तम विद्यायुक्त अध्यापक व उपदेशक निरंतर आपल्या मस्तकात किंवा हृदयात विद्या उत्तरोत्तर वाढवितात. ते दुसऱ्यांनाही निरंतर विद्यादान करतात. ॥७॥
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