ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 70/ मन्त्र 8
ऋषिः - सुमित्रो वाध्र्यश्चः
देवता - आप्रियः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
तिस्रो॑ देवीर्ब॒र्हिरि॒दं वरी॑य॒ आ सी॑दत चकृ॒मा व॑: स्यो॒नम् । म॒नु॒ष्वद्य॒ज्ञं सुधि॑ता ह॒वींषीळा॑ दे॒वी घृ॒तप॑दी जुषन्त ॥
स्वर सहित पद पाठतिस्रः॑ । दे॒वीः॒ । ब॒र्हिः । इ॒दम् । वरी॑यः । आ । सी॒द॒त॒ । च॒कृ॒म । वः॒ । स्यो॒नम् । म॒नु॒ष्वत् । य॒ज्ञम् । सुऽधि॑ता । ह॒वींषि॑ । इळा॑ । दे॒वी । घृ॒तऽप॑दी । जु॒ष॒न्त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तिस्रो देवीर्बर्हिरिदं वरीय आ सीदत चकृमा व: स्योनम् । मनुष्वद्यज्ञं सुधिता हवींषीळा देवी घृतपदी जुषन्त ॥
स्वर रहित पद पाठतिस्रः । देवीः । बर्हिः । इदम् । वरीयः । आ । सीदत । चकृम । वः । स्योनम् । मनुष्वत् । यज्ञम् । सुऽधिता । हवींषि । इळा । देवी । घृतऽपदी । जुषन्त ॥ १०.७०.८
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 70; मन्त्र » 8
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 22; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(तिस्रः-देवीः) हे तीन देवियों ! (इदं वरीयः-बर्हिः-आसीदत) अध्यात्मयज्ञ के आसन पर विराजमन होओ (वः स्योनं चकृम) तुम्हारे लिए हम सुखसम्पादन करते हैं (इळा देवी घृतपदी) स्तुति, कामना-प्रार्थना, तेजःस्वरूप उपासना (मनुष्वत्-यज्ञम्) मनुष्यवाले यज्ञ में (सुधिता हवींषि जुषन्त) अच्छे हित करनेवाले मन बुद्धि चित्त अहङ्कारों को सेवन करो ॥८॥
भावार्थ
अध्यात्मयज्ञ के साधनेवाली तीन भावनाएँ और धारणाएँ जो कि स्तुति प्रार्थना और उपासना हैं, ये सफल तब हो सकती हैं, जब इनके अनुसार मन, बुद्धि, चित्त और अहङ्कार हों ॥८॥
विषय
इडा, आदि तीन देवियें और उनके कर्त्तव्य।
भावार्थ
हे (तिस्रः देवी:) तीनों देवियो ! तीनों प्रकार की स्त्रियां (इदं वरीयः) इस सर्वश्रेष्ठ बड़े, पूज्य (बर्हिः) आसन वा वृद्धियुक्त आश्रय पर (आ सीदत) विराजो। (वः) आप लोगों के लिये हम इसको (स्योनं) सुखकारी (चकृम) करते हैं। आप तीनों (इडा) इला, (देवी) ज्ञानयुक्त, तेजोयुक्त सरस्वती, और (घृत-पदी) दीप्त, तेजोयुक्त पद वाली भारती, तीनों (मनुष्वत् यज्ञं) मनुष्यों से युक्त यज्ञ और (सुधिता हवींषि) आदरपूर्वक रक्खे हवियों, अन्नादि सुख साधनों को (जुषन्त) सेवन करें। इला-अन्न, पृथिवी आदि के गुण वाली वा वाणी के समान ग्राह्य। सरस्वती-‘सरः’ उत्तम प्रशस्त ज्ञान से युक्त विदुषी। भारती-भरत अर्थात् मनुष्यों को ज्ञानोपदेश करने चाली अर्थात् कुमारी, गृहस्थ माताएं और वृद्ध उपदेशिकाएं ये तीनों तीन देवियां हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सुमित्रो वाध्र्यश्व ऋषिः। आप्रियो देवताः॥ छन्द:- १, २, ४, १० निचृत् त्रिष्टुप्। ३ पादनिचृत् त्रिष्टुप्। ५—७, ९, ११ त्रिष्टुप्। ८ विराट् त्रिष्टुप्॥ एकादशर्चं सूक्तम्॥
विषय
इडा- सरस्वती मही
पदार्थ
[१] वैदिक साहित्य में 'इडा-सरस्वती मही' इन तीन देवियों का साथ-साथ उल्लेख मिलता है । 'तिस्रो देवी: ' ये शब्द इन्हीं के लिये प्रयुक्त होते हैं । यहाँ 'इडा' का स्पष्ट उल्लेख है । सरस्वती का उल्लेख 'देवी' शब्द से हुआ है। यह शिक्षा के उस अंश को सूचित करता है जो कि 'शिष्टाचार' व सभ्यता कहलाता है, यह शिष्टाचार प्रवाह से सीखा जाता है, पिता के बर्ताव से पुत्र सीखता है। प्रवाह से सीखा जाने के कारण ही इसे सरस्वती कहा गया है। मही को यहाँ 'घृतपदी' कहा है, जिसका एक-एक पद दीप्त है, ज्ञान दीति ही सब से अधिक महत्त्वपूर्ण होने से 'मही' है । इन तीनों से कहते हैं कि हे (तिस्रः देवी:) = तीनों देवियो ! आप (इदम्) = इस (वरीयः) = उत्तर- विशाल अथवा उत्कृष्ट (बर्हिः) = वासनाशून्य हृदय में (आसीदत) = आसीन होवो। हम (वः) = आपके द्वारा (स्योनम्) = सुख ही सुख को (चक्रमा) = उत्पन्न करते हैं। इन देवियों के अपनाने से जीवन सुखी बनता है। तीनों देवियों का कार्यक्षेत्र अलग-अलग है। 'इडा' शरीर सम्बद्ध है, वस्तुतः इडा का अर्थ 'law'=कानून है। शरीर सम्बन्धी सब कार्यों को बड़ा नियम से करना होता है 'सूर्याचन्द्रमसाविव' । सरस्वती का स्थान हृदय हैं, यही विनीतता आदि भावनाएँ पनपती हैं। मही का स्थान मस्तिष्क है। सबका कार्यक्षेत्र अलग-अलग होते हुए भी इन सब का निवास स्थान हृदय ही है। अपने जीवन को इन तीनों देवियों का अधिष्ठान बनाकर ही हम सुखी बना पाते हैं । [२] ये (इडा) = शरीर सम्बन्धी क्रियाओं की कानून भूत देवी, (देवी) = सब व्यवहारों में शिष्टाचार को जन्म देनेवाली सरस्वती तथा (घृतपदी) = मही व भारती ये तीनों ही देवियाँ (यज्ञम्) = श्रेष्ठतम कर्म का (जुषन्त) = सेवन करें । उस श्रेष्ठतम कर्म का जो (मनुष्वत्) = उस ज्ञान के पुञ्ज प्रभुवाला है। जिस यज्ञ में प्रभु का स्मरण ठीक से चलता है, प्रभु को भुला नहीं दिया गया। प्रभु को न भुलाने के कारण ही तो हम उन यज्ञों की सफलता के गर्व से मुक्त रहते हैं । ये देवियाँ (सुधिता) = उत्तमता से स्थापित की गई (हवींषि) = हवियों का सेवन करें। सदा यज्ञशेष का सेवन करनेवाली हों ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे जीवन में 'इडा, सरस्वती व मही' तीनों देवियाँ का निवास हो ये जीवन में प्रभु स्मरणपूर्वक यज्ञों में प्रवृत्त रहें, यज्ञशेष का सेवन करनेवाली हों।
संस्कृत (1)
पदार्थः
(तिस्रः-देवीः) हे तिस्रो देव्यः ! (इदं वरीयः बर्हिः-आसीदत) अध्यात्मयज्ञस्यासने विराजध्वं (वः-स्योनं चकृम) युष्मभ्यं सुखं कुर्मः (इळा देवी घृतपदी) स्तुतिः “ईड स्तुतौ” [अदादि०] कामना-प्रार्थना “दिवु क्रीडा-विजिगीषाव्यवहारद्युतिस्तुतिमोदमद-स्वप्नकान्तिगतिषु” [दिवादिः] ‘कान्तिः कामना प्रार्थनाऽत्र गृह्यते’ तेजःस्वरूपा खलूपासना “तेजोऽसि तेजो मयि धेहि” [यजु० १९।९] (मनुष्वद् यज्ञं सुधिता हवींषि जुषन्त) मनुष्यवति यज्ञे ‘विभक्तेर्लुक्, विभक्तिव्यत्ययश्च’ मनुष्यस्यान्तरे वर्तमानेऽध्यात्मयज्ञे सुधितानि-सुहितानि मनांसि मनोबुद्धिचित्ताहङ्कारान् सेवध्वम्-तदनुसरन्त्यो भवत ॥८॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O triple divinities, Ila, Sarasvati and Bharati, mother Infinity, vibrant spirit of knowledge, language and culture, and Bharati, all bearing nature and mother earth overflowing with ghrta, we pray, come and grace this lovely vedi which we have created for you with adoration, prayer and meditation. May divine Ila, transcendent Infinity, Sarasvati, inexhaustible spirit of light and stream of knowledge vested in awareness, well ordered, and Bharati, spirit of earthly prosperity, come, join the vedi as humans and partake of our homage with love and grace.
मराठी (1)
भावार्थ
अध्यात्मयज्ञ साधणाऱ्या तीन भावना किंवा धारणा ज्या स्तुती, प्रार्थना व उपासना आहेत. या तेव्हाच सफल होऊ शकतात जेव्हा त्यांच्याप्रमाणे मन, बुद्धी, चित्र व अहंकार असतील. ॥८॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal