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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 3
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    किमू॒ नु वः॑ कृणवा॒माप॑रेण॒ किं सने॑न वसव॒ आप्ये॑न। यू॒यं नो॑ मित्रावरुणादिते च स्व॒स्तिमि॑न्द्रामरुतो दधात॥

    स्वर सहित पद पाठ

    किम् । ऊँ॒ इति॑ । नु । वः॒ । कृ॒ण॒वा॒म॒ । अप॑रेण । किम् । सने॑न । व॒स॒वः॒ । आप्ये॑न । यू॒यम् । नः॒ । मि॒त्रा॒व॒रु॒णा॒ । अ॒दि॒ते॒ । च॒ । स्व॒स्तिम् । इ॒न्द्रा॒म॒रु॒तः॒ । द॒धा॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    किमू नु वः कृणवामापरेण किं सनेन वसव आप्येन। यूयं नो मित्रावरुणादिते च स्वस्तिमिन्द्रामरुतो दधात॥

    स्वर रहित पद पाठ

    किम्। ऊँ इति। नु। वः। कृणवाम। अपरेण। किम्। सनेन। वसवः। आप्येन। यूयम्। नः। मित्रावरुणा। अदिते। च। स्वस्तिम्। इन्द्रामरुतः। दधात॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे वसवो वयं वः किमु कृणवामापरेण सनेनाप्येन किन्नु कुर्याम। हे मित्रावरुणाऽदिते च यूयं नः स्वस्तिमिन्द्रामरुतो दधात ॥३॥

    पदार्थः

    (किम्) (उ) (नु) (वः) युष्माकम् (कृणवाम) कुर्याम (अपरेण) अन्येन (किम्) (सनेन) विभक्तेन (वसवः) पृथिव्यादय इव विद्यानिवासाः (आप्येन) व्याप्येन वस्तुना (यूयम्) (नः) अस्मभ्यम् (मित्रावरुणा) प्राणाऽपानाविव प्रियकारकावध्यापकोपदेशकौ (अदिते) विदुषि मातः (स्वस्तिम्) (इन्द्रामरुतः) इन्द्रश्च विद्युन्मरुतश्च वायवस्तान् (दधात) धरत ॥३॥

    भावार्थः

    ये प्रथमकल्पा विद्वांसः स्युस्तान् राजानः पृच्छेयुर्युष्माकं कां सेवां वयं कुर्याम किं किं युष्मभ्यं दद्याम येन यूयं विद्यासुशिक्षाधर्मोन्नतिं कुर्यात् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वसवः) पृथिव्यादि के तुल्य विद्या को निवास देनवाले विद्वानो ! हम लोग (वः) आपके (किम्,उ) किसी कार्य को (कृणवाम) करें। (अपरेण) अन्य (सनेन) विभाग को प्राप्त (व्याप्येन) व्याप्त वस्तु से (किम्) क्या ही करें। हे (मित्रावरुणा) प्राण-अपान के तुल्य प्रियकारी अध्यापक और उपदेशक (च) और (अदिते) विदुषि माता! (यूयम्) तुम लोग (नः) हमारे लिये (स्वस्तिम्) कल्याण को तथा (इन्द्रामरुतः) बिजली और वायुओं को (दधात) धारण करो ॥३॥

    भावार्थ

    जो प्रथम कक्षा के विद्वान् हों, उनको राजा लोग पूछें कि आपकी क्या सेवा हम करें, क्या-क्या तुमको देवें, जिससे विद्या सुशिक्षा और धर्म की उन्नति करो ॥३॥

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    विषय

    देवाराधन से कल्याण

    पदार्थ

    १. हे देवो! (वः) = तुम्हारा (नु) = अब (किम् ऊ) = क्या ही (कृणवाम) = कर्म करें। अर्थात् किस कर्म द्वारा आपकी आराधना करें। (अपरेण) = आगे होनेवाले कर्म से आपकी क्या सेवा करें। हे (वसवः) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले देवो! (सनेन आप्येन किम्) = सनातन आप्तव्यकर्म से हम आपकी क्या सेवा कर सकते हैं? हम आपका उचित आराधन करने में समर्थ नहीं, आपको पूरा-पूरा अपना नहीं पाते तो भी। २. (यूयम्) = आप हे (मित्रावरुणा) = मित्र, वरुण व (अदिते) = अदिति (च) = तथा (इन्द्रामरुतः) = इन्द्र और मरुतो ! (इत्) = निश्चय से (स्वस्तिम् दधात) = कल्याण को धारण करो । 'मित्र' स्नेह का देवता है। 'वरुण' निर्दोषता का । 'अदिति'=स्वास्थ्य का सूचक है। 'इन्द्र' जितेन्द्रियता का प्रतिपादन करता है और 'मरुतः '= प्राणवाचक है। 'स्नेह-निर्देषता - स्वास्थ्य - जितेन्द्रियता व प्राणसाधना' हमारा पूर्णरूपेण कल्याण करनेवाले हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- मित्रादि देवों के आराधन के लिए यत्नशील हों। ये हमारा कल्याण करेंगे।

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    विषय

    व्रतधारी विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( वसवः ) सब को बसाने और राष्ट्र में वसने वाले प्रजा जनो ! हे वसु नाम के विद्वान् ब्रह्मचारी जनो ! कहो, ( वः ) आप लोगों की ( किम् उ ) क्या प्रिय सेवा ( कृणवाम ) हम लोग करें ? ( अपरेण ) और ( आप्येन ) प्राप्त होने योग्य या बन्धुजनों के योग्य ( सनेन ) धनादि विभागयोग्य पदार्थ से भी आप लोगों का ( किं कृणवाम ) क्या आदर सत्कार करें। प्रजाजन राजवर्गों को कहें । हे ( मित्र, वरुण, अदिते च ) स्नेही पुरुष, हे सर्वश्रेष्ठ ! हे अखण्ड विद्या, बल, शासन के कर्त्तः ! हे मातः ! पितः ! पुत्र आदि ! हे ( इन्द्रामरुतः) ऐश्वर्यवन् सेनापते ! हे ( मरुतः ) शत्रुमारक, वायु के समान तीव्र बलवान् पुरुषो ! वा मुख्यधनपते और हे (मरुतः) इतर वैश्यजन और प्रजाजनो ! ( यूयं ) आप लोग ( नः ) हमारे ( सु-अस्तिम् ) सुख समृद्धि, कल्याण-समृद्धि धारण करावो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः ॥ विश्वदेवा देवता ॥ छन्दः- १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६, ७ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे प्रथम श्रेणीचे विद्वान असतात त्यांना राजाने विचारावे की आम्ही तुमची कोणती सेवा करावी? तुम्हाला कोणते काम द्यावे? ज्यामुळे तुम्ही विद्या व सुशिक्षण आणि धर्माची उन्नती कराल? ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    O Vasus, shelter homes of life and humanity, teachers and scholars generous as mother earth, what shall we do for you with our share of karma and competence now and whatever potential we might have later? O Mitra and Varuna, friends and lovers of humanity dear as the breath of life, Aditi, generous mother sustainer like earth and nature, Indra and Maruts, winds and vital energies of life, bear and bring us the good and best of life, intelligence and knowledge of existence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    More requests from the learned are placed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you are abode of learning like the earth etc. We should work for you, and should have no truck with people of divided values. O dear teacher and preacher ! you are loving to us like Prana and Udāna (two important categories of breathing air). Along with Aditi (learned mother or womanhood), you hold lightning and air for our sake and good benefit.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The administrators or rulers should enquire from the learned persons of top category about their requirements and source of living and should meet their needs, so that they may work for the advancement of ideal education and righteousness.

    Foot Notes

    (सनेन ) विभक्तेन = Divided. (वसव:) पृथिव्यादय इव विद्यानिवासा: = Abodes of learning like earth etc. (मित्रावरणा) प्राणापानाविव प्रियकारकावध्यापकोपदेशको । = Teacher and preacher, loving like Prana and Udāna. (इन्द्रामरुतः) इन्द्रश्च विद्युत्मरुतश्च वायवस्तान् । = To lightning and air.

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