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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 29 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
    ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ह॒ये दे॑वा यू॒यमिदा॒पयः॑ स्थ॒ ते मृ॑ळत॒ नाध॑मानाय॒ मह्य॑म्। मा वो॒ रथो॑ मध्यम॒वाळृ॒ते भू॒न्मा यु॒ष्माव॑त्स्वा॒पिषु॑ श्रमिष्म॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ह॒ये । दे॒वाः॒ । यू॒यम् । इत् । आ॒पयः॑ । स्थ॒ । ते । मृ॒ळ॒त॒ । नाध॑मानाय । मह्य॑म् । मा । वः॒ । रथः॑ । म॒ध्य॒म॒ऽवाट् । ऋ॒ते । भू॒त् । मा । यु॒ष्माव॑त्ऽसु । आ॒पिषु॑ । श्र॒मि॒ष्म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हये देवा यूयमिदापयः स्थ ते मृळत नाधमानाय मह्यम्। मा वो रथो मध्यमवाळृते भून्मा युष्मावत्स्वापिषु श्रमिष्म॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हये। देवाः। यूयम्। इत्। आपयः। स्थ। ते। मृळत। नाधमानाय। मह्यम्। मा। वः। रथः। मध्यमऽवाट्। ऋते। भूत्। मा। युष्मावत्ऽसु। आपिषु। श्रमिष्म॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हये देवा ये यूयमिदापयः स्थ ते नाधमाना मह्यं मृळत यो वो मह्यमवाड्रथ ते जले गमयति स नष्टो मा भूदीदृशेषु युष्मावत्स्वापिषु विद्याप्राप्तये वयं श्रमिष्म अयं च श्रमो नष्टो माभूत् ॥४॥

    पदार्थः

    (हये) सम्बोधने (देवाः) विद्वांसः (यूयम्) (इत्) एव (आपयः) सकलशुभगुणव्यापिनः (स्थ) भवत (ते) (मृळत) सुखयत (नाधमानाय) याचमानाय (मह्यम्) (मा) (वः) युष्माकम् (रथः) रमणीयं यानम् (मध्यमवाट्) यो मध्ये पृथिव्यां भवान् पदार्थान् वहति सः (ते) उदकमये समुद्रादौ। तमित्युदकना० निघं० १। १२ (भूत्) भवेत् (मा) (युष्मावत्सु) युष्मत्सदृशेषु (आपिषु) विद्यादिगुणैर्व्याप्तेषु (श्रमिष्म) श्रमं कुर्याम। अत्राडभावः ॥४॥

    भावार्थः

    सर्वैर्मनुष्यैर्विद्याः प्राप्य सर्वे सुखयितव्याः। यथा दृढानि यानानि स्युस्तथा प्रयतितव्यं सदैव विद्वत्सु प्रीतिं विधाय विद्योन्नतिः कार्या ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    (हये) हे (देवाः) विद्वानो जो (यूयम्) तुम लोग (इत्) ही (आपयः) सकलशुभगुणव्यापि (स्थ) होओ (ते) वे (नाधमानाय) माँगते हुए (मह्यम्) मेरे लिये (मृळत) सुखी करो जो (वः) तुम्हारा (मध्यमवाट्) पृथिवी के पदार्थों को इधर-उधर पहुँचानेवाला (रथः) विमान आदि यान (ते) जलरूप समुद्रादि में चलाता है, वह नष्ट (मा,भूत्) न हो। ऐसे (युष्मावत्सु) तुम्हारे सदृश (आपिषु) विद्यादि गुणों से व्याप्त सज्जनों में विद्या प्राप्ति के अर्थ हम लोग (श्रमिष्म) परिश्रम करें । यह हमारा श्रम नष्ट (मा) न होवे ॥४॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों को योग्य है कि विद्याओं को प्राप्त होके सबको सुखी करें और जैसे दृढ़ पुष्ट यान बनें, वैसा प्रयत्न करें, सदा विद्वानों में प्रीति रखके विद्या की उन्नति किया करें ॥४॥

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    विषय

    यज्ञशीलता व अशान्ति

    पदार्थ

    १. (हये) = हे (देवाः) = देवो! (यूयम् इत्) = आप ही निश्चय से (आपयः स्थ) = मित्र हो । (ते) = वे आप (नाधमानाय) = वासनाओं से उपतप्त होते हुए [नाध= उपतापे] (मह्यम्) = मेरे लिए (मृडत) = सुख देनेवाले होओ। आप मेरी वासनाओं को नष्ट करो और उपताप के कारण को दूर करके मुझे सुखी करो। २. (वः) = आपका (रथः) = यह शरीररूप रथ (ऋते) = यज्ञों के निमित्त (मध्यमवाट्) = मध्यम [=धीमी] गतिवाला (मा भूत्) = मत हो । मेरा यह शरीररूप रथ आपसे अधिष्ठित है 'सर्वा ह्यस्मिन् देवता: गावो गोष्ठ इवासते'। यह यज्ञों के प्रति जाने में आलस्यवाला न हो। मैं इस मानव शरीर को प्राप्त करके सदा यज्ञशील बना रहूँ । ३. (युष्मावत्सु) = आप जैसे (आपिषु) = मित्रों के होने पर (मा श्रमिष्म) = हम थक न जाएँ। हम सदा शक्तिशाली बने रहें-eschousted न हो जाएँ। ।

    भावार्थ

    भावार्थ– देवों की मित्रता में हम यज्ञशील बने रहें। हमारी शक्ति समाप्त न हो जाए।

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    विषय

    व्रतधारी विद्वानों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( हये देवाः ) हे विद्वान् वीर, व्यवहारज्ञ, विजिगीषु पुरुषो ! ( यूयम् इत् ) आप लोग ही ( आपयः ) विद्या आदि गुणों में व्यापक और धन आदि प्राप्त करने हारे ( स्थ ) होकर रहो। ( मह्यम् ) मुझ ऐश्वर्य की आकांक्षा करने वाले राष्ट्र जन को ( मृळत ) सुखी करो । (वः) आप लोगों का ( रथः ) रथ, रमण योग्य साधन ( मध्यमवाट् ) बीच ही में रह जाने वाला ( मा भूत् ) न हो, प्रत्युत ( ऋते ) जल, आदि में धनादि प्राप्ति के लिये, या ज्ञान और सत्य व्यवहारादि में सिद्धि तक पहुंचावे । और ( युष्मावत्सु ) आप लोगों जैसे ( आपिषु ) बन्धु जनो में हम लोग ( मा श्रमिष्म ) कभी थके मांदे, दुखित और पीडित, न हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः ॥ विश्वदेवा देवता ॥ छन्दः- १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६, ७ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व माणसांनी विद्या प्राप्त करून सर्वांना सुखी करावे व मजबूत याने तयार होतील असा प्रयत्न करावा. सदैव विद्वानांवर प्रेम करून विद्येची उन्नती करावी. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ye Devas, teachers and scholars, noble powers of the world and nature, you are our own, friends and kinsmen, the very soul of our virtues. Be kind and gracious to me, the seeker and the supplicant. May your chariot never move at slow or medium speed in yajnic projects on earth or in water. Nor must we tire or slacken in our service to you in virtuous and scholarly projects.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Expectations from the learned are further described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned persons ! you become fully virtuous and on begging you make me happy. Your transporting chariots or conveyances carry the packages across the globe over the oceans and in the air, and may not meet any disaster or accident. Let us labor like you to seek knowledge from well read people, so that it may not go waste.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    It is the duty of everyone to make all happy on acquiring knowledge and should attempt to build strong transport/ conveyance vehicles. Moreover, they should march forward keeping harmony with the learned ones.

    Foot Notes

    (हवे) सम्बोधने। = While addressing. (आपय:) सकलशुभगुणव्यापिन:= Equipped with all virtues. (नाधमानाय) याचमानाय। = On begging or requesting. (मध्यमवाट् ) यो मध्ये पृथिव्यां भवान् पदार्थान् बहति सः = Carrying packages across the global. (ॠते) उदकमये समुद्रादौ । = In the oceans etc. (श्रमिष्म ) श्रमं कुर्याम् । अनाभावः। = Labor.

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