ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 29/ मन्त्र 5
ऋषिः - कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
प्र व॒ एको॑ मिमय॒ भूर्यागो॒ यन्मा॑ पि॒तेव॑ कित॒वं श॑शा॒स। आ॒रे पाशा॑ आ॒रे अ॒घानि॑ देवा॒ मा माधि॑ पु॒त्रे विमि॑व ग्रभीष्ट॥
स्वर सहित पद पाठप्र । वः॒ । एकः॑ । मि॒म॒य॒ । भूरि॑ । आगः॑ । यत् । मा॒ । पि॒ताऽइ॑व । कि॒त॒वम् । श॒शा॒स । आ॒रे । पाशाः॑ । आ॒रे । अ॒घानि॑ । दे॒वाः॒ । मा । मा॒ । अधि॑ । पु॒त्रे । विम्ऽइ॑व । ग्र॒भी॒ष्ट॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र व एको मिमय भूर्यागो यन्मा पितेव कितवं शशास। आरे पाशा आरे अघानि देवा मा माधि पुत्रे विमिव ग्रभीष्ट॥
स्वर रहित पद पाठप्र। वः। एकः। मिमय। भूरि। आगः। यत्। मा। पिताऽइव। कितवम्। शशास। आरे। पाशाः। आरे। अघानि। देवाः। मा। मा। अधि। पुत्रे। विम्ऽइव। ग्रभीष्ट॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 29; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 11; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे देवा विद्वांसो वो युष्माकं संग्येकोऽहं यद्भूर्यागोऽस्ति तदारे प्रमिमय पितेव कितवं मा शशास यानि पाशा अघानि च तान्यारे विमिव मिमय। इमानि पुत्रे मा माधिग्रभीष्ट ॥५॥
पदार्थः
(प्र) (वः) युष्माकम् (एकः) असहायः (मिमय) प्रक्षिपेयम् (भूरि) बहु (आगः) अपराधम् (यत्) (मा) माम् (पितेव) पितृवत् (कितवम्) द्यूतकारिणम् (शशास) शाधि (आरे) दूरे (पाशाः) बन्धनानि (आरे) दूरे (अघानि) पापानि (देवा:) विद्वांस: (मा) निषेधे (मा) माम् (अधि) उपरि (पुत्रे) (विमिव) पक्षिणमिव (ग्रभीष्ट) गृह्णीयाः ॥५॥
भावार्थः
सर्वैराशंसितव्यं भो विद्वज्जना युष्माकं सङ्गेन वयं पापानि त्यक्त्वा धर्माचारिणः स्याम। भवन्तो जनकवदस्मान् शिक्षध्वम्। यतो वयं दुष्टाचाराद् दूरे वसेम ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (देवा:) विद्वानों (व:) तुम्हारी संगी (एक:) एक असहाय मैं (यत्) जो (भूरि) बहुत (आग:) अपराध है उसको (आरे) दूर (प्र,मिमय) फेंकूँ और (पितेव) पिता के तुल्य (कितवम्) जुआ खेलनेवाले (मा) मुझको (शशास) शिक्षा कीजिये। जो (पाशा:) बन्धन और (अघानि) पाप है उनको (आरे) दूर (विमिव) पक्षि के तुल्य फेंकूँ। इन सबको (पुत्रे) पुत्र के निमित्त (मा) मुझको (मा) मत (अधि, ग्रभीष्ट) अधिक कर ग्रहण करो ॥५॥
भावार्थ
सबको प्रशंसा करनी चाहिये कि हे विद्वान् जनो! तुम्हारे संग से हम लोग पापों को छोड़ धर्म का आचरण करनेवाले हों। आप लोग पिता के तुल्य हमको शिक्षा देओ, जिससे हम दुष्टाचरण से दूर रहें ॥५॥
विषय
देवों के अनुशासन से पाप-अपवृत्ति
पदार्थ
१. हे देवो! (वः) = आपका यह (एकः) = अकेला भी मैं (आग:) = पाप को (प्रमिमय) = प्रर्केषण हिंसित करनेवाला हुआ हूँ। (यत्) = क्योंकि आपने उसी प्रकार (मा) = मेरा अनुशासन किया है इव-जैसे कि पिता-रक्षक पिता (कितवम्) = जुए में प्रवृत्त सन्तान को (शशास) = शासित करता है। २. हे (देवाः) = देवो! (पाशा आरे) = मेरे से विषयों के पाश दूर हुए हैं- (अघानि आरे) = सब पाप मेरे से दूर हुए हैं। हे विषयपाशो! (मा) = मुझे (अधिपुत्रेः) = उत्कृष्ट पुत्रों के होने पर तुम इस प्रकार (मा) = मत (ग्रभीष्ट) = पकड़ लो, (इव) = जैसे कि (विम्) = एक व्याध पक्षी को पकड़ता है। मैं उन पुत्रों के निर्माण आदि कार्यों में इस प्रकार प्रवृत्त रहूँ कि मेरा पाप की ओर झुकाव ही न हो। अथर्व में कहा कि हे पाप ! तू मेरे से दूर हो क्योंकि 'गृहेषु गोषु मे मनः = मेरा मन घर के कार्यों व गौवों की सेवा में प्रवृत्त है। उसी प्रकार यहाँ कहा गया है कि मैं अपने मन को सन्तान के निर्माण में लगाए हुए हूँ, मुझे अवकाश नहीं। पाप तो अवकाशवाले को ही बांधता है न ?
भावार्थ
भावार्थ- मैं देवों के उपदेश से पापवृत्तियों को नष्ट करनेवाला बनूँ । पुत्रादि के उत्तमनिर्माण में लगा हुआ मैं पापों से बचा रहूँ ।
विषय
व्रतधारी विद्वानों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( देवः ) विद्वान्, तेजस्वी पुरुषो ! ( चः ) आप लोगों में से ( एकः ) एक उत्तम शासक ही ( भूरि आगः ) बहुत से अपराधों को ( प्र मिमय ) अच्छी प्रकार विनष्ट करने में समर्थ हो । ( यत् ) जो वह ( पिता इच ) पालक पिता के समान ( कितवं ) द्यूत के व्यसनी, अनायास दूसरे के धन को छल पूर्वक हरने वाले को ( शशास ) शासन करे । ( पाशाः ) पाश-बन्धन ( आरे ) दूर रहें ( अधानि आरे ) और पाप भी हमसे दूर रहें । ( अधिपुत्रे ) पुत्र आदि के रहते हुए ( मा ) मुझ पिता को ( विम् इव ) पक्षी को व्याध के समान निर्दयता पूर्वक ( मा ग्रभीष्ट ) मत पकड़ो । ऋणादि रहने पर भी पुत्र ऋण चुका सकता है । अतः मुझे दण्ड न देकर पुत्रादि से ऋण लेने की व्यवस्था करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कूर्मो गार्त्समदो गृत्समदो वा ऋषिः ॥ विश्वदेवा देवता ॥ छन्दः- १, ४, ५ निचृत् त्रिष्टुप् । २, ६, ७ त्रिष्टुप् । ३ विराट् त्रिष्टुप् ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
सर्वांनी अशी प्रशंसा करावी की हे विद्वानांनो! तुमच्या संगतीने आम्ही पापाचा त्याग करून धर्माचरण करावे. तुम्ही पित्याप्रमाणे आम्हाला शिक्षण द्या. ज्यामुळे आम्ही दुष्ट आचरणापासून दूर राहावे. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ye Devas, teachers, scholars, noble seniors, I am one, alone and helpless, but let me throw off all sin and evil since you teach and enlighten me as a father teaches and corrects a prodigal son. Let all snares of bondage be off! Let all sin and trespasses be off! A child as I am of yours, seize me not as a hunter catches a bird. No one seizes a child.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Requests are made to the learned persons.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! I am your one of the helpless colleagues and I undertake to give up my crimes or mistakes. I am a gambler, and seek your teachings, for you are like my father. I seek to throw away my bonds and sins like a bird (throws its feathers away during the flight). Treat me as your own son, and do not collect excessive taxes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Ail should praise the learned persons to lead us on the path of righteousness by abandoning the sins, to teach us like the father, so that we keep away from the evil conducts.
Foot Notes
(एकः) असहाय:। = Helpless. (मिमय) =Throw away. (कितवम्) द्यूतकारिणम्। = To a gambler. (शशाम् ) शाधि। = Teach. (विमिय) पक्षिणामिव। = Like bird. ( ग्रभीष्ट) गृह्णीयाः । = Collect.
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