ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 10
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - अपान्नपात्
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
हिर॑ण्यरूपः॒ स हिर॑ण्यसंदृग॒पां नपा॒त्सेदु॒ हिर॑ण्यवर्णः। हि॒र॒ण्यया॒त्परि॒ योने॑र्नि॒षद्या॑ हिरण्य॒दा द॑द॒त्यन्न॑मस्मै॥
स्वर सहित पद पाठहिर॑ण्यऽरूपः । सः । हिर॑ण्यऽसन्दृक् । अ॒पाम् । नपा॑त् । सः । इत् । ऊँ॒ इति॑ । हिर॑ण्यऽवर्णः । हि॒र॒ण्यया॒त् । परि॑ । योनेः॑ । नि॒ऽसद्य॑ । हि॒र॒ण्य॒ऽदाः । द॒द॒ति॒ । अन्न॑म् । अ॒स्मै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
हिरण्यरूपः स हिरण्यसंदृगपां नपात्सेदु हिरण्यवर्णः। हिरण्ययात्परि योनेर्निषद्या हिरण्यदा ददत्यन्नमस्मै॥
स्वर रहित पद पाठहिरण्यऽरूपः। सः। हिरण्यऽसन्दृक्। अपाम्। नपात्। सः। इत्। ऊँ इति। हिरण्यऽवर्णः। हिरण्ययात्। परि। योनेः। निऽसद्य। हिरण्यऽदाः। ददति। अन्नम्। अस्मै॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 23; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
ये हिरण्यदा अस्मा अन्नं ददति स हिरण्यरूपो हिरण्यसंदृक् स इदु हिरण्यवर्णोऽपांनपात् हिरण्ययाद्योनेः परि निषद्य सर्वान् पालयति ॥१०॥
पदार्थः
(हिरण्यरूपः) तेजःस्वरूपः (सः) (हिरण्यसंदृक्) यो हिरण्यं तेजः सम्यक् दर्शयति (अपाम्) जलानाम् (नपात्) (सः) (इत्) एव (उ) वितर्के (हिरण्यवर्णः) हिरण्यं सुवर्णमिव वर्णो यस्य सः (हिरण्ययात्) तेजोमयात् (परि) (योनेः) स्वकारणात् (निषद्य) निषण्णो भूत्वा। अत्र निपातस्येति दीर्घः। (हिरण्यदाः) ये वायवो हिरण्यं तेजो ददति ते (ददति) (अन्नम्) (अस्मै) प्राणिने ॥१०॥
भावार्थः
योऽग्निर्वायुजोऽखिलवस्तुदर्शकोऽन्तर्हितो सर्वविद्यानिमित्तोऽस्ति तं विज्ञाय प्रयोजनसिद्धिः कार्या ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगल मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
जो (हिरण्यदाः) वायु तेज देते हैं वे (अस्मै) इस प्राणी के लिये (अन्नम्) अन्न को (ददति) देते हैं (सः) वह (हिरण्यरूपः) तेजःस्वरूप (हिरण्यसंदृक्) तेज को दर्शाता (स,इत्,उ) वही (हिरण्यवर्णः) सुवर्ण के समान वर्णयुक्त (अपाम्,नपात्) जलों के बीच न गिरनेवाला (हिरण्ययात्) तेजःस्वरूप (योनेः) निज कारण से (परि,निषद्य) सब ओर से निरन्तर स्थिर हुआ अग्नि सबको पालन करता है ॥१०॥
भावार्थ
जो अग्नि पवन से उत्पन्न हुआ समस्त पदार्थों को दिखानेवाला सब पदार्थों के भीतर रहता हुआ सर्वविद्याओं का निमित्त है, उसको जानकर प्रयोजन सिद्ध करना चाहिये ॥१०॥
विषय
हिरण्यरूप- हिरण्यसंदृक्-हिरण्यवर्ण
पदार्थ
१. (सः) = वह (अपां नपात्) = शक्ति न नष्ट होने देनेवाला पुरुष (हिरण्यरूपः) = [रूपं शरीरम्] तेजस्वीरूपवाला होता है। (हिरण्यसंदृक्) = [संपश्यन्ति इति संदृश: इन्द्रियाणि सा०] दीप्त इन्द्रियोंवाला होता है। (सः इत् उ) = वही निश्चय से (हिरण्यवर्ण:) = उस ज्योतिर्मय प्रभु का वर्णन [=कीर्तन स्मरण] करनेवाला होता हैं। २. इस (हिरण्ययात्) = दीप्त तेजस्वी (योनेः) = शरीररूप गृह से (परि निषद्या) = ऊपर उठकर [परेर्वर्जने]-शरीर में रहता हुआ भी शरीर में अनासक्त हुआ हुआ सदेह होते हुए भी विदेह की भाँति रहता हुआ (हिरण्यदाः) = वह धनों का दान करनेवाला होता है। ३. (अस्मै) = इस प्रभुप्राप्ति के लिए इस (अपां नपात्) = की वृत्तिवाले पुरुष (अन्नं ददति) = अन्न देनेवाले होते हैं। इनके द्वार से कोई भूखा विना अन्नप्राप्ति के लौटता नहीं। ये भूखे के लिए अन्न देते ही हैं। संसार में आसक्त न होने से ये अपने भोगों को ही नहीं बढ़ाते जाते ।
भावार्थ
भावार्थ- संयमी पुरुष तेजस्वी, दीप्त इन्द्रियोंवाला, व प्रभु का उपासक बनता है। यह शरीर में आसक्त न हुआ-हुआ दान देनेवाला बनता है। भूखे के लिए अवश्य अन्न देता है । यह वृत्ति इसे प्रभु प्राप्त करानेवाली होती है।
विषय
स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
जिस प्रकार ( हिरण्यदाः अस्मै ) सुवर्ण के देने वाले या हितकारी और आनन्ददायक रमणीय पदार्थ देने वाले दानी होते हैं वे इस प्रजाजन को ( अन्नं ददति ) अन्न प्रदान करते हैं । उसी प्रकार ( हिरण्यदाः ) हित और रमणीय सुख देने वाले अग्नि, जल, मेघ, विद्युत् आदि पदार्थ ( अस्मै ) इस प्रत्यक्ष बसे लोक को ( अन्नम् ) अक्षय अन्नादि भोग्य पदार्थ ( ददति ) देते हैं और ( हिरण्ययात् ) हित और रमणीय स्वरूप से युक्त या तेजोमय ( योनेः ) सर्वाश्रय, सर्वोत्पादक सूर्य के ( परिनिषद्य ) आश्रय पर स्थित रहकर ही करते हैं । ( सः ) वह सूर्य भी स्वयं (हिरण्यरूपः) सुवर्ण के समान कान्ति वाला, ( हिरण्यसन्दृग् ) तेज से सबको दिखाने वाला, तेजःस्वरूप, (अपां नपात् ) जलों को किरणों द्वारा आकाश में बांधने वाला, ( सः इत् हिरण्यवर्णः ) वह ही सुवर्ण के समान वर्ण वाला, तेजस्वी या प्रकाश को सर्वत्र फैलाने वाला है। उसी प्रकार अग्नि के समान तेजस्वी गृहपति भी हो । वह हित रमणीय स्वरूप हो, ( हिरण्यसन्दृग् ) उत्तम रमणीय पदार्थों के देखने वाला या सौम्य दृष्टि हो, प्राणों का रक्षक तेजस्वी हो । ( हिरण्ययात् योनेः परि निषद्य ) सुवर्णादि ऐश्वर्य से पूर्ण गृह में रहकर प्रकट हो । तब सभी उसको ऐश्वर्य प्रदान करें । इति त्रयोविंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो अग्नी वायूपासून उत्पन्न होऊन संपूर्ण पदार्थांचे दर्शन करविणारा असतो व सर्व पदार्थांमध्ये राहतो तसेच सर्व विद्यांचे निमित्त असतो, त्याला जाणून प्रयोजन सिद्ध केले पाहिजे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Golden of form, Apam-napat, the child of waters, golden eyed revealing its gold, golden coloured, abides higher than the golden seat of its origin, and the golden feeder energies of physical existence provide the food for its growth.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The merits of learned persons are explained.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The winds give splendor to all the beings. The fire preserves all which is of golden form (full of splendor), which is the manifester of splendor, which is the gold coloured, born of the cause and which is full of splendor.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
You should know thoroughly the nature of the fire which is born of the air, which is the root cause of giving appearances to all the objects. It is hidden in all the substances and means of the knowledge of all articles. Knowing its properties thoroughly, you should accomplish all the purposes.
Foot Notes
(हिरण्यरूप:) तेज: स्वरूप: | तेजोहिरण्यम् | (TTRY 3, 15, 5, 12) तेजो वै हिरण्यम् (TTRY 1, 8, 9, 1) आकाशाद् वायुः वायोरग्नि ( तैत्तिरीयोपनिषदि, ब्रह्मानन्द वल्ल्यां प्रथमोऽनुवाकः । = Full of splendor. ( हिरण्यसंदूक्) य: हिरण्यं तेजः सम्यक् दर्शयति सः। = Which enables us to see the splendor well.
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