ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 35/ मन्त्र 14
अ॒स्मिन्प॒दे प॑र॒मे त॑स्थि॒वांस॑मध्व॒स्मभि॑र्वि॒श्वहा॑ दीदि॒वांस॑म्। आपो॒ नप्त्रे॑ घृ॒तमन्नं॒ वह॑न्तीः स्व॒यमत्कैः॒ परि॑ दीयन्ति य॒ह्वीः॥
स्वर सहित पद पाठअ॒स्मिन् । प॒दे । प॒र॒मे । त॒स्थि॒ऽवांस॑म् । अ॒ध्व॒स्मऽभिः॑ । वि॒श्वहा॑ । दीदि॒ऽवांस॑म् । आपः॑ । नप्त्रे॑ । घृ॒तम् । अन्न॑म् । वह॑न्तीः । स्व॒यम् । अत्कैः॑ । परि॑ । दी॒य॒न्ति॒ । य॒ह्वीः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अस्मिन्पदे परमे तस्थिवांसमध्वस्मभिर्विश्वहा दीदिवांसम्। आपो नप्त्रे घृतमन्नं वहन्तीः स्वयमत्कैः परि दीयन्ति यह्वीः॥
स्वर रहित पद पाठअस्मिन्। पदे। परमे। तस्थिऽवांसम्। अध्वस्मऽभिः। विश्वहा। दीदिऽवांसम्। आपः। नप्त्रे। घृतम्। अन्नम्। वहन्तीः। स्वयम्। अत्कैः। परि। दीयन्ति। यह्वीः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 35; मन्त्र » 14
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 24; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या य आपोऽत्कैरध्वस्मभिस्सहास्मिन्परमे पदे तस्थिवांसं विश्वहा दीदिवांसं वहन्तीः स्वयं यह्वीः परिदीयन्ति तद्द्वारा नप्त्रे घृतमन्नं यूयम्प्राप्नुत ॥१४॥
पदार्थः
(अस्मिन्) (पदे) प्राप्तव्ये (परमे) सर्वोत्कृष्टे (तस्थिवांसम्) स्थितम् (अध्वस्मभिः) अपतनशीलैर्गुणकर्मस्वभावैः (विश्वहा) विश्वानि च तान्यहानि च विश्वहानि। अत्र छान्दसो वर्णलोप इत्युत्तरपदादिलोपः। (दीदिवांसम्) देदीप्यमानम् (आपः) प्राणाः (नप्त्रे) पौत्राय (घृतम्) जलम् (अन्नम्) (वहन्तीः) प्रापयन्त्यः (स्वयम्) (अत्कैः) अत्तुमर्हैः (परि) (दीयन्ति) क्षयन्ति। व्यत्ययेनात्र परस्मैपदम् (यह्वीः) महत्यः ॥१४॥
भावार्थः
ये मनुष्याः प्रतिदिनं सच्चिदानन्दस्वरूपं स्वस्मिन् स्थितमीशं ध्यायन्ति ते परमं पदं ब्रह्म प्राप्यानन्दन्ति न सद्यः क्षीणलोका भवन्ति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (आपः) प्राण (अत्कैः) भोगने योग्य (अध्वस्मभिः) न गिरनेवाले गुण कर्म स्वभावों के साथ (अस्मिन्) इस (परमे) सबों से अति उत्तम (पदे) प्राप्त होने योग्य व्यवहार में (तस्थिवांसम्) स्थित (विश्वहा) सब दिन (दीदिवांसम्) देदीप्यमान ईश्वर को (वहन्तीः) प्राप्त करती हुई (स्वयम्) आप (यह्वीः) महान् भी (परि,दीयन्ति) नष्ट होती हैं उनके द्वारा (नप्त्रे) पौत्र के लिये (घृतम्) जल और (अन्नम्) अन्न को तुम लोग प्राप्त होओ ॥१४॥
भावार्थ
जो मनुष्य प्रतिदिन सच्चिदानन्दस्वरूप अपने में स्थित ईश्वर का ध्यान करते हैं, वे परमपद ब्रह्म को प्राप्त होकर आनन्द को प्राप्त होते हैं और उत्तम सुख प्राप्ति से शीघ्र क्षीण नहीं होते ॥१४॥
विषय
परम पद पर स्थित होना
पदार्थ
१. गतमन्त्र के अनुसार जब प्रभु के तेज से ही यह अपने को व्याप्त कर लेता है तो (अस्मिन्) = इस (परमे पदे) = सर्वोच्च स्थान में (तस्थिवांसम्) = ठहरे हुए और (अध्वस्मभिः) = ध्वंसनरहितन विनष्ट होनेवाले-तेजों से (विश्वहा) = सदा दीदिवांसम् चमकनेवाले को (यह्वीः) = महत्त्वपूर्ण [आपः =] रेत: कण स्वयं (परिदीयन्ति) = अपने आप [परिगच्छन्ति] शरीर में चारों ओर प्राप्त होते हैं, परन्तु प्राप्त ये तभी होते हैं जबकि यह व्यक्ति गतिशील होता है ('अत्कैः') = सतत गमनों द्वारा ये उसे प्राप्त होते हैं । क्रियाशीलता से मनुष्य वासनाओं के आक्रमण से बचा रहता है। वासनाओं के अनाक्रमण से वीर्य शरीर में सुरक्षित रहता है । २. ये ('यह्वी आप:') = ये महत्त्वपूर्ण रेतः कण (आपोनप्त्रे) = शक्तिकणों को न नष्ट होने देनेवाले के लिए (घृतम्) = ज्ञानदीप्ति को तथा (अन्नम्) = [यत्तदन्नं स विष्णुर्देवता श० ७.५.१.२१] इस व्यापक देव प्रभु को (वहन्तीः) = प्राप्त कराते हुए हैं, अर्थात् जितनाजितना मनुष्य इन शक्तिकणों का रक्षण करता है, उतना उतना ज्ञानदीप्ति व प्रभु को पानेवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- शक्तिकणों का रक्षक अपांनपात् सर्वोच्चस्थान में स्थित होता है-तेज से दीप्त होता है । ज्ञानदीप्ति प्राप्त करके प्रभु को पानेवाला बनता है।
विषय
स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य।
भावार्थ
जिस प्रकार ( यह्वीः ) बड़ी नदियां या जलधारायें ( अस्मिन् परमे पदे ) इस सर्वोच्च परम पद, आकाश में ( तस्थिवांसं ) स्थित और ( अध्वस्मभिः ) अविनश्वर तेजों से ( दीदिवांसं ) दीप्त होते हुए सूर्य का ( अत्कैः परि दीयन्ति ) जलों के निमित्त आश्रय लेती हैं और ( नप्त्रे ) जलों के बांधने वाले बल से ( घृतम् अन्नं वहन्तीः ) जल और अन्न को प्राप्त करती हैं । उसी प्रकार ( परमे पदे ) सबसे उत्कृष्ट पद पर ( तस्थिवांसं ) स्थित ( अध्वस्मभिः ) नाश को प्राप्त न होने वाले, अक्षय और अमोघ वीर्यों से ( विश्वहा ) सब दिनों ( दीदिवांसं ) सूर्य के समान चमकने वाले तेजस्वी पुरुष को ( आपः ) प्राप्त होने वाली, स्वयं वरण करने हारी सहधर्मिणी जलस्वभाव होकर ( अत्कैः ) उत्तम रूपों से सुसज्जित होकर ( स्वयम् ) आप से आप ( यह्वीः ) गुणों में उत्कृष्ट महान् होकर ( परि दीयन्ति ) उसके पास आती हैं । ( नप्त्रे ) विवाह बंधन से बांधने वाले उसके लिये ( घृतम् ) घृतयुक्त पुष्टिकारक ( अन्नं ) अन्न को ( वहन्तीः ) प्राप्त करती हैं ।
टिप्पणी
बहुवचनं दारावत् ज्ञेयम् । एकवचन बहुवचने च बहुलं जात्याख्यायाम् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः॥ अपान्नपाद्देवता॥ छन्दः– १, ४, ६, ७, ९, १०, १२, १३, १५ निचृत् त्रिष्टुप्। ११ विराट् त्रिष्टुप्। १४ त्रिष्टुप्। २, ३, ८ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे प्रत्येक दिवशी स्वतःमध्ये स्थित असलेल्या सच्चिदानंदस्वरूप ईश्वराचे ध्यान करतात ते परमपद ब्रह्माला प्राप्त करून आनंद प्राप्त करतात व उत्तम सुख मिळाल्यामुळे लगेच क्षीण होत नाहीत. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Mighty streams of cosmic energy, with their own imperishable velocity, flow all round bearing ghrta and anna-food for their grand child, Apam-napat, abiding all-time effulgent in this highest state of existence.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The qualities of noble persons are stated further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! the great Pranas bear God in themselves who is established in His Supreme State and is Resplendent. He is endowed with eternal and enjoyable virtues and acts, though they themselves decay at the end. By the Grace of That Supreme Being and by the practices of Pranayama, you obtain Ghee (Clarified butter) food and water for your sons and grandsons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The persons meditate upon the nature of that Omnipresent, Omniscient and Omnipotent blissful God, Who is seated within their own souls. They attain Him and enjoy His Bliss. They do not pass away prematurely before the minimum period one hundred years.
Foot Notes
(दीयन्ति ) क्षयन्ति। = Decay or perish. (अध्वस्मभिः) अपतनशीलैगुंणकर्यस्वभावैः । = With eternal attributes, actions and nature. (आप:) प्राणा: = Vital energy. (अतकै ) अत्तुम्: = Enjoyable. (मही ) महत्वयुक्तः। = Great.
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