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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 2
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः

    त्वं नो॑ अ॒स्या उ॒षसो॒ व्यु॑ष्टौ॒ त्वं सूर॒ उदि॑ते बोधि गो॒पाः। जन्मे॑व॒ नित्यं॒ तन॑यं जुषस्व॒ स्तोमं॑ मे अग्ने त॒न्वा॑ सुजात॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । नः॒ । अ॒स्याः । उ॒षसः॑ । विऽउ॑ष्टौ । त्वम् । सूरे॑ । उत्ऽइ॑ते । बो॒धि॒ । गो॒पाः । जन्म॑ऽइव । नित्य॑म् । तन॑यम् । जु॒ष॒स्व॒ । स्तोम॑म् । मे॒ । अ॒ग्ने॒ । त॒न्वा॑ । सु॒ऽजा॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं नो अस्या उषसो व्युष्टौ त्वं सूर उदिते बोधि गोपाः। जन्मेव नित्यं तनयं जुषस्व स्तोमं मे अग्ने तन्वा सुजात॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। नः। अस्याः। उषसः। विऽउष्टौ। त्वम्। सूरे। उत्ऽइते। बोधि। गोपाः। जन्मऽइव। नित्यम्। तनयम्। जुषस्व। स्तोमम्। मे। अग्ने। तन्वा। सुऽजात॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह।

    अन्वयः

    हे सुजाताऽग्ने गोपाः विद्वँस्त्वमस्या उषसो व्युष्टौ नो बोधि। त्वं सूर उदितेऽस्मान् बोधि नित्यं तनयं जन्मेव तन्वा स्तोमं जुषस्व ॥२॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (नः) अस्मान् (अस्याः) (उषसः) प्रभातवेलायाः (व्युष्टौ) विशेषेण दाहे (त्वम्) (सूरे) सूर्य्ये (उदिते) प्राप्तोदये (बोधि) बुध्यस्व (गोपाः) रक्षकः सन् (जन्मेव) यथा प्रादुर्भावि कर्म प्रकटयति तथा (नित्यम्) (तनयम्) पुत्रम् (जुषस्व) सेवस्व प्रीणीहि वा (स्तोमम्) विद्याप्रशंसाम् (मे) मम (अग्ने) पावक इव (तन्वा) शरीरेण (सुजात) सुष्ठु प्रसिद्ध ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा गर्भाशयस्थिता गर्भा न विज्ञायन्ते तथैव सुप्ता अविद्यायां स्थिताश्च विज्ञानरहिता भवन्ति। यथा जन्मानन्तरं सशरीरो प्रसिद्धिं प्राप्नोति तथैव निद्रां विहाय प्रातरुत्थिता इवाविद्यां हित्वा विद्यायां जागृता भूत्वा प्रशंसां प्राप्नुवन्ति ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (सुजात) उत्तम प्रकार प्रसिद्ध (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी (गोपाः) रक्षाकारक विद्वान् पुरुष ! (त्वम्) आप (अस्याः) इस (उषसः) प्रभात समय के (व्युष्टौ) अतिप्रकाश होने पर (नः) हम लोगों को (बोधि) जगाइये (त्वम्) आप (सूरे) सूर्य्य के (उदिते) उदय को प्राप्त होने पर हमको जगाइये (नित्यम्) अतिकाल प्राणधारी (तनयम्) पुत्र को (जन्मेव) जैसे प्रारब्ध कर्म प्रकट करता है, वैसे (मे) मेरे (तन्वा) शरीर से (स्तोमम्) विद्या सम्बन्धिनी प्रशंसा को (जुषस्व) आदर कीजिये वा ग्रहण कीजिये ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे गर्भाशय में वर्त्तमान पुरुष गर्भों के स्वरूप को नहीं जानते हैं, वैसे ही निद्रावस्थापन्न और अविद्या में लिप्त पुरुष विज्ञान से रहित होते हैं और जैसे जन्मधारण होने के अनन्तर शरीरसहित जीवात्मा प्रकट होता है, वैसे ही निद्रा को त्याग के प्रातःकाल में जागृत पुरुषों के सदृश अविद्या को त्याग के विद्या में कुशल जन प्रशंसनीय होते हैं ॥२॥

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    विषय

    शक्तियों के विस्तार द्वारा उत्तम विकास

    पदार्थ

    [१] (त्वम्) = हे परमात्मन् ! आप (अस्याः) = इस (उषसः) = उषा के (व्युष्टौ) = उदित होने पर (नः) = हमारे (गोपाः) = रक्षक होते हुए (बोधि) = ध्यान करिए । (त्वम्) = आप (सूरे उदिते) = सूर्य के उदय होने पर हमारा ध्यान करिए, आप से रक्षा प्राप्त करके हम प्रत्येक उषा को प्रत्येक सूर्योदय के समय को बड़ी सुन्दरता से बितानेवाले हों। [२] (इव) = जैसे (जन्म) = जनक व पिता (नित्यं तनयम्) = अपने औरस पुत्र को प्रेम करता है, इसी प्रकार (अग्ने) = हे परमात्मन् ! (तन्वा) = प्रत्येक शक्ति के विस्तार से (सुजात) = उत्तम प्रादुर्भाववाले प्रभो ! मे (स्तोमं जुषस्व) = मेरे स्तवन का सेवन करिए। मेरे द्वारा किया गया आपका स्तवन आपके लिये प्रिय हो । आपका मेरे द्वारा किया गया सच्चा स्तवन यही तो है कि मैं भी अपनी शक्तियों का विस्तार करता हुआ उत्तम विकासवाला बनूँ। मैं शरीर को अधिक से अधिक स्वस्थ बनाऊँ, मन की निर्मलता को सिद्ध करूँ और तीव्रबुद्धि बनने का यत्न करूँ ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम प्रभु के रक्षण में चलें। प्रभुस्तवन करते हुए, प्रभु जैसे बनते हुए प्रभु के प्रिय हों।

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    विषय

    राजा वा गुरु का प्रजा से पिता-पुत्रवत् सम्बन्ध।

    भावार्थ

    (अस्याः उषसः) उस उषा के (व्युष्टौ) विशेष कान्ति से चमकने पर और (सूरे उदिते) सूर्य के उदय हो जाने पर (त्वं) तू ही (नः गोपाः) हमारा रक्षक होकर (बोधि) स्वयं जाग, ज्ञानवान् हो और हमें भी ज्ञानवान् कर और जगा। (जन्म इव तनयं) नवीन जन्म अर्थात् देह धारण करना ही जिस प्रकार नव-जात बच्चे को (तन्वा जुषते) नये देह से युक्त करता है उसी प्रकार हे (सु-जात) उत्तम जात अर्थात् बालक के समान शुभ गुणों और कर्मों से प्रख्यात (अग्ने) ज्ञानवन् ! अग्रणी विद्वन् ! तू भी (तन्वा) अपने शरीर से या विस्तृत राष्ट्र से (नित्यं) सदा से विद्यमान (मे स्तोमं) मुझ प्रजाजन के उत्तम प्रशंसनीय समूह को (जुषस्व) प्रेम से सेवन कर । अथवा—(जन्म इव तनयं) जन्म देने वाला पिता जिस प्रकार पुत्र को स्वीकार करता है उसी प्रकार तू भी पिता के समान मुझ प्रजा के संघों को (स्तोमं) उत्तम वचनों या वीर्ययुक्त दलों, अधिकारों और ऐश्वर्य का सेवन कर, प्राप्त कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्कील कात्य ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः– १, ४ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। ३, ७ भुरिक् पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. गर्भाशयात स्थित पुरुष गर्भाच्या स्वरूपाला जाणत नाहीत. तसेच निद्रावस्थेतील व अविद्यायुक्त पुरुष विज्ञानरहित असतात. जसा जन्म धारण केल्यानंतर जीवात्मा शरीरासह प्रकट होतो, तसे निद्रेचा त्याग करून प्रातःकाळी जागृत होणाऱ्या पुरुषांप्रमाणे अविद्येचा त्याग व विद्येत कुशल असलेल्या लोकांची प्रशंसा होते. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    At the break of dawn and sun rise, let me awake into light and life anew, O lord protector and sustainer. Like a father and sustainer, ever love and protect the child as a baby at birth. Agni, blest of body-form, and nobly risen as you are, listen to my prayer and accept my song of praise and worship.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O renowned and enlightened person ! you shine like the purifying fire. You are our protector, and thus awaken us (give us knowledge) at the dawn and when the sun rises. Accept my area of knowledge pertaining to you and be pleased with this august body, as men accept true born baby and are pleased.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the embryo in the womb of the mother is not definitely known, so are the people devoid of knowledge and are asleep in ignorance. As the soul with body is manifest after the birth of the child, so the persons who have given up ignorance and are awake in the knowledge are admired everywhere, like the person awake in the morning after taking full sleep.

    Foot Notes

    (स्तोमन्) विद्याप्रशंसाम् = Praise of knowledge. (सुजात) सुष्ठु प्रसिद्ध = Renowned, illustrious.

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