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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 6
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र पी॑पय वृषभ॒ जिन्व॒ वाजा॒नग्ने॒ त्वं रोद॑सी नः सु॒दोघे॑। दे॒वेभि॑र्देव सु॒रुचा॑ रुचा॒नो मा नो॒ मर्त॑स्य दुर्म॒तिः परि॑ ष्ठात्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । पी॒प॒य॒ । वृ॒ष॒भ॒ । जिन्व॑ । वाजा॑न् । अग्ने॑ । त्वम् । रोद॑सी॒ इति॑ । नः॒ । सु॒दोघे॒ इति॑ सु॒ऽदोघे॑ । दे॒वेभिः॑ । दे॒व॒ । सु॒ऽरुचा॑ । रु॒चा॒नः । मा । नः॒ । मर्त॑स्य । दुः॒ऽम॒तिः । परि॑ । स्था॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र पीपय वृषभ जिन्व वाजानग्ने त्वं रोदसी नः सुदोघे। देवेभिर्देव सुरुचा रुचानो मा नो मर्तस्य दुर्मतिः परि ष्ठात्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र। पीपय। वृषभ। जिन्व। वाजान्। अग्ने। त्वम्। रोदसी इति। नः। सुदोघे इति सुऽदोघे। देवेभिः। देव। सुऽरुचा। रुचानः। मा। नः। मर्तस्य। दुःऽमतिः। परि। स्थात्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 6
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे वृषभाऽग्ने ! त्वं सुदोघे रोदसी सूर्य्य इव वाजान्नोऽस्मभ्यं पीपय। हे देव त्वं देवेभिः सुरुचा सह रुचानः सन्नोऽस्मान् प्र जिन्व यतो नो मर्त्तस्य दुर्मतिर्मा परिष्ठात् ॥६॥

    पदार्थः

    (प्र) (पीपय) वर्द्धय (वृषभ) शरीरात्मबलयुक्त (जिन्व) प्रीणीहि (वाजान्) विज्ञानवतः (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (त्वम्) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (नः) अस्मभ्यम् (सुदोघे) कामानां सुष्ठुप्रपूरिके। अत्र वर्णव्यत्ययेन हस्य घः। (देवेभिः) विद्वद्भिः सह (देव) दिव्यगुणप्रद (सुरुचा) यया सुष्ठु रोचते तया (रुचानः) प्रीतिमान् (मा) (नः) अस्मान् (मर्त्तस्य) मनुष्यस्य (दुर्मतिः) दुष्टा चासौ मतिश्च (परि) सर्वतः (स्थात्) तिष्ठेत् ॥६॥

    भावार्थः

    यस्मिन्देशे विद्वांसः प्रीत्या सर्वान् वर्धयितुमिच्छन्ति दुष्टां प्रज्ञां विनाशयन्ति तत्र सर्वे प्रवृद्धविज्ञानधना जायन्ते ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (वृषभ) शरीर और आत्मा के बल से युक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश तेजस्वी ! (त्वम्) आप जैसे (सुदोघे) कामनाओं की उत्तम प्रकार पूर्त्तिकारक (रोदसी) अन्तरिक्ष पृथिवी को सूर्य्य प्रकाशित और सुखयुक्त करता है वैसे (वाजान्) विज्ञानयुक्त (नः) हम लोगों को (पीपय) संपत्तियुक्त कीजिये। हे (देव) उत्तम गुणप्रदाता ! आप (देवेभिः) विद्वानों के साथ (सुरुचा) उत्तम तेज से प्रीतिसहित (रुचानः) प्रीतियुक्त हुए (नः) हम लोगों को (प्र) (जिन्व) आनन्दित कीजिये जिससे कि हम लोगों के लिये (मर्त्तस्य) मनुष्यसम्बन्धिनी (दुर्मतिः) दुष्ट बुद्धि (मा) नहीं (परि) सब ओर से (स्थात्) स्थित हो ॥६॥

    भावार्थ

    जिस देश में विद्वान् लोग प्रीति से सबलोगों को बढ़ाने की इच्छा करते हैं और दुष्ट बुद्धि का नाश करते हैं, वहाँ सबलोग वृद्धि को प्राप्त विज्ञानरूप धनवाले होते हैं ॥६॥

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    विषय

    दुर्मति से दूर

    पदार्थ

    प्र पी॒पय वृषभ॒ जिन्व॒ वाजा॒नग्ने॒ त्वं रोद॑सी नः सुदोघे ।

    भावार्थ

    दे॒वेभि॑र्देव सुरुचा॑ रुचा॒नो मा नो॑नो॒ मत॑स्य दुर्म॒तिः परि॑ ष्ठात् ॥ ६ ॥ = (१) हे वृषभ-शक्तिशालिन् प्रभो ! प्र पीपय आप हमारा प्रकर्षेण आप्यायन करनेवाले होइये। हे अग्ने अग्रणी प्रभो! आप वाजान्-शक्तियों को जिन्व- दीजिए । त्वम् = आप नः रोदसी = हमारे द्यावापृथिवी को, मस्तिष्क व शरीर को सुदोघे उत्तम प्रपूरणवाला करिए (दुह प्रपूरणे) मस्तिष्क ज्ञान से पूर्ण हो और शरीर शक्ति सम्पन्न हो । (२) हे देव - प्रकाशमय प्रभो ! देवेभिः - दिव्यगुणों के साथ तथा सुरुचा उत्तम ज्ञानदीप्ति के साथ रुचान:- हमें चमकाते हुए आप हों। प्रभुकृपा से हम मनों में दिव्यगुणोंवाले हों और मस्तिष्क में ज्ञानदीप्तिवाले हों। मर्तस्य-विषयों के पीछे मरनेवाले प्राकृत मनुष्य की दुर्मतिः = दुष्टबुद्धि नः मा परिष्ठात्- हमारे चारों ओर स्थित न हो। हम दुर्बुद्धि से घिरे न रहें। दुर्बुद्धि से सदा दूर रहें। भावार्थ - हमारा आप्यायन हो-हम शक्तिसम्पन्न बनें। दुर्मति से दूर रहें। ऋषिः – उत्कीलः कात्यः ॥ देवता - अग्निः ॥ छन्दः - भुरिक्पङ्किः ॥ स्वरः – पञ्चमः ॥

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    Bhajan

    वैदिक मन्त्र
    प्र पीपय वृषभ जिन्व वाजानग्ने त्वं रोदसी न: सुदोघे।
    देवेभिर्देव सुरुचा रुचानो मा नो मर्तस्य दुर्मति परि ष्ठात्।।
                       ‌‌                         ऋ•३.१५.६
                       भजन वैदिक  ११३३ वां     
                ‌‌                  राग पीलू
                    गायन समय रात्रि का तृतीय प्रहर
                                 ताल अद्धा
    बरसो बरसो बन बादल
    वृक्ष वनस्पति रूप ज्ञान का
    सिंचन करो खुरायल।।
    बरसो.............
    आत्मा का बल,प्राणों का बल
    धर्म, प्राण, विज्ञान, मनोबल
    ओज, प्रताप, ब्रह्म,बुद्धिबल
    सारे बल दो परावर।
    बरसो............
    पुष्ट गवामृत के ही उपमित
    करते द्यु पृथ्वी नित उपकृत
    सूर्यरूप शिशु द्यौ की गोद में
    देते प्रकाश व तातल।।
    बरसो.........
    सूर्य -ऋतु वर्षा का कारण
    ग्रह- उपग्रह लें सूर्य से तेजन्
    भरे चांद -चांदनी पावन
    जग -जन जिससे तारल।।
    बरसो..........
    दुर्गुण की ना होवे ऐषा
    तुम ही तो हो प्रभु सबके विनेता
    दुर्मति को करो सुमति हे अग्ने !
    हर लो सारे महामल।।
    बरसो..........
    वृक्ष............
                          १५.६.२००१
                            ४.३० शाम
                              शब्दार्थ:-
    खुरायल=बोने के लिए तैयार किया गया खेत
    परावर=सर्वश्रेष्ठ
    उपमित=सदृष्य ,तुल्य
    गवामृत=गाय का अमृत (दूध)
    उपकृत=उपकार
    ऐषा=इच्छा कामना
    तारल=संतुष्ट
    तातल=उष्णता, तेज गर्मी
    विनेता=शिक्षक, आचार्य
    ओज=तेज, वीर्य
    प्रताप=धाक, तेजस्विता 


    वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १२६ वां वैदिक भजन और प्रारम्भ से क्रमबद्धअब तक का ११३३ वां वैदिक भजन

    वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं 
    🕉️🙏🏽🌹💐

     

    Vyakhya

    बरसो, हे प्रभु ! बरसो
    बरसो, है बरसाने वाले प्रभु ! बरसो । जैसे बादल बरस कर वृक्ष वनस्पतियों को बढ़ाता है, वैसे ही तुम बरस कर हमें बढ़ाओ। हमारे अन्दर 'वाज'की वृद्धि करो। वैदिक वाज शब्द खाद्यान्न, देहबल, मानवबल, बुद्धि -बल ,प्राण- बल, आत्म- बल, धर्म-बल, विज्ञान-बल,संघर्ष, सामर्थ्य ,ओज, प्रताप, छात्र-बल,ब्रह्मबल आदि अर्थों को अपने अन्दर समाविष्ट किए हुए है। इन सब की बढ़ती से हमें समृद्ध करो।
    हे जगदीश ! तुमने द्यावा पृथ्वी को 'सुदुधा'बनाया है। जैसे गाय दूध देकर हमें कृतार्थ करती है, ऐसे ही यह द्यौ और भूमि हमें अपने लाभों से निरन्तर उपकृत करते रहते हैं
    पृथ्वी हमारी माता है, वह हमें अन्य रस कंदमूल फल कोयला ,लोहा, चांदी, सोना, मोती, जवाहर ,जल ,वायु आदि देती है।द्यौ भी हमारी माता है, उसकी गोदी में बैठा हुआ सूर्य-रूप शिशु अपने ताप एवं प्रकाश से तथा अपनी धारण आकर्षण की शक्ति से सब ग्रह, उपग्रह को धारित, आकर्षित करके, बिना ही आधार के उन्हें आकाश के मध्य में टिकाये हुए है। सूर्य वर्षा करता है, ऋतु चक्र को चलाता है, चांद में चांदनी भरता है, मालिन्य हरता है।
    हे देवाधिदेव ! तुम पूरी चमक के साथ मेरे अन्दर चमको। शरीर में जो अन्य आत्मा, मन, बुद्धि, प्राण, आदि देवता बैठे हुए हैं, उन्हें भी अपनी चमक से चमकाओ। तुम्हारे तेज को पकड़ मेरा आत्मा तेजस्वी हो उठे, मेरा मन प्रबल संकल्प वाला बन जाए, मेरी बुद्धि अद्वितीय रूप से निश्चयात्मक हो जाए, मेरे अन्दर प्राणों का स्रोत फूट पड़े, मेरी ज्ञानेंद्रियां अपूर्व ज्ञान संग्राहक हो जाएं। मेरे अंग-अंग में आप स्फूर्ति भर दो।
    हे अग्नि देव! हे अग्रनेता प्रभु! ऐसी कृपा करो कि किसी दुष्ट की दुर्मति का निशाना हम ना बने। दुर्मति बड़ी भयंकर वस्तु है। षड्यंत्रकारी शत्रु की दुर्मति सुख को हाहाकार में परिणत कर देती है, शान्ति को चित्कार में बदल देती है, ऊंचे को नीचे गिरा देती है, समुद्र को वैभवहीन कर देती है। बड़े-बड़े उन्नत राष्ट्र विरोधी राष्ट्र की दुर्मति के शिकार होकर नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। हे प्रभु! तुम शत्रु की दुर्मति को सुमति में बदल दो, या फिर हमारे अन्दर ऐसी शक्ति भर दो कि हम उस दुर्मति का साहस पूर्वक मुकाबला कर सकें।

     

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    विषय

    विजिगीषु के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (वृषभ) बलशालिन् ! हे सर्वश्रेष्ठ ! हे (अग्ने) ज्ञानवन् ! तेजस्विन् ! (त्वं) तू (नः) हमें (प्र पीपय) अच्छी प्रकार बढ़ा। (नः वाजान् प्र पीपय) हमारे ऐश्वर्यो और बलों की वृद्धि कर (नः सुदोघे रोदसी प्र पीपय) जिस प्रकार सूर्य उत्तम जल वृष्टि और अन्न को दोहने या देने वाले भूमि और आकाश दोनों को समृद्ध करता है उसी प्रकार तू हमारे उत्तम उपदेश करने, हमें कुपथ से रोकने और दुष्टों को रुलाने वाले उत्तम ज्ञानों और अन्नों से हमें पूर्ण करने वाले माता पिताओं को (प्र पीपय) बढ़ा, पुष्ट कर। हे (देव) विजिगीषो ! हे विद्वन् ! (देवेभिः सुरुचा रुचानः) प्रकाशयुक्त किरणों से उत्तम कान्ति से प्रकाशमान सूर्य के समान तू भी (देवेभिः) विद्याभिलाषी शिष्यों और विजयाभिलाषी वीरों से और उत्तम रुचि और कान्ति से (रुचानः) प्रकाशित और सर्वप्रिय होता हुआ हमें (वाजान् जिन्व) ज्ञानों, ऐश्वर्यों का प्रदान कर और (वाजान् जिन्व) संग्रामों का विजय कर (नः) हमारे बीच (मर्त्तस्य) किसी मनुष्य को (दुर्मतिः) दुष्ट बुद्धि (मा परि स्थात्) न आ घेरे।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्कील कात्य ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः– १, ४ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। ३, ७ भुरिक् पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्या देशात विद्वान लोक प्रेमाने सर्व लोकांना पुढे जाण्याची प्रेरणा देतात व दुष्ट बुद्धीचा नाश करतात तेथे ते प्रबुद्ध विज्ञानरूपी धन प्राप्त करतात. ॥ ६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, generous lord of science and power, fill our life to the full, inspire our strength and vigour, speed and energy to overflowing just as the sun fills the heaven and earth with light. O lord of light resplendent with the stars, bless us with light so that no ill-will of the mortals, no dark intention and motive may ever touch us, much less abide with us.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of duties for learned is explained.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! you shine like the purifying fire endowed with physical and spiritual power. You build persons who are full of knowledge, grow like the sun heaven and earth which are fulfillers of our desires. O giver of divine virtues! satisfy or please us along with other enlightened persons and with brightness and love, so that their evil designs of any mortal may not prevail against us.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    All men become endowed with advanced knowledge and abundant wealth in a country where the enlightened persons desire to let all people grow with love and eradicate their evil thoughts.

    Foot Notes

    (सुदोधे) कामानां सुष्ठप्रपूरिके | अन्न वर्णव्यत्ययेन ह्रस्य घः ।= Well fulfillers of their desires. (रुचान:) प्रीतिमान् । रुच दीप्तौ अभिप्रीतौ च। = Loving. Here the second meaning of अभित्रीति or true love has been taken.

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