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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 15 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 15/ मन्त्र 5
    ऋषिः - उत्कीलः कात्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अच्छि॑द्रा॒ शर्म॑ जरितः पु॒रूणि॑ दे॒वाँ अच्छा॒ दीद्या॑नः सुमे॒धाः। रथो॒ न सस्नि॑र॒भि व॑क्षि॒ वाज॒मग्ने॒ त्वं रोद॑सी नः सु॒मेके॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अच्छि॑द्रा । शर्म॑ । ज॒रि॒त॒रिति॑ । पु॒रूणि॑ । दे॒वान् । अच्छ॑ । दीद्या॑नः । सु॒ऽमे॒धाः । रथः॑ । न । सस्निः॑ । अ॒भि । व॒क्षि॒ । वाज॑म् । अ॒ग्ने॒ । त्वम् । रोद॑सी॒ इति॑ । नः॒ । सु॒मेके॒ इति॑ सु॒ऽमेके॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अच्छिद्रा शर्म जरितः पुरूणि देवाँ अच्छा दीद्यानः सुमेधाः। रथो न सस्निरभि वक्षि वाजमग्ने त्वं रोदसी नः सुमेके॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अच्छिद्रा। शर्म। जरितरिति। पुरूणि। देवान्। अच्छ। दीद्यानः। सुऽमेधाः। रथः। न। सस्निः। अभि। वक्षि। वाजम्। अग्ने। त्वम्। रोदसी इति। नः। सुमेके इति सुऽमेके॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 15; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 1; वर्ग » 15; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वं यथाऽग्निः सुमेके रोदसी प्रकाशयति तथैव नो दीद्यानः सुमेधाः सस्नी रथो न नोऽस्मभ्यं वाजमभि वक्षि। हे जरितर्विद्वँस्त्वमच्छिद्रा पुरूणि शर्म देवाँश्च कामयमानः सन्नच्छाभि वक्षि ॥५॥

    पदार्थः

    (अच्छिद्रा) अच्छिन्नानि (शर्म) शर्माणि गृहाणि (जरितः) सत्यगुणस्तावक (पुरूणि) बहूनि (देवान्) विदुषो दिव्यगुणान् वा (अच्छ) सुष्ठु। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (दीद्यानः) प्रकाशमानः प्रकाशयन् वा (सुमेधाः) उत्तमप्रज्ञः सन् (रथः) उत्तमयानम् (न) इव (सस्निः) शुद्धः (अभि) आभिमुख्ये (वक्षि) वदसि (वाजम्) विज्ञानम् (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान (त्वम्) (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (नः) अस्माकम् (सुमेके) सुष्ठु प्रक्षिप्ते ॥५॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा शुद्धेन दृढेन रथेनाऽभीष्टं स्थानं सद्यो गच्छन्ति तथैव येऽनलसाः पुरुषार्थिनः शोभनानि स्थानानि कामयमानाः विद्वत्सङ्गेन दिव्यान् गुणान् प्राप्याऽन्यान् प्रत्युपदिशन्ति ते सम्यक् सिद्धसुखा जायन्ते ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश प्रतापी ! (त्वम्) आप जैसे अग्नि (सुमेके) अच्छे प्रकार फैलाये गये (रोदसी) अन्तरिक्ष पृथिवी को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार (नः) हम लोगों के (दीद्यानः) प्रकाशयुक्त वा प्रकाशक (सुमेधाः) श्रेष्ठ बुद्धिमान् और (सस्निः) सुडौल (रथः) उत्तम रथ के (न) सदृश हम लोगों के लिये (अभि) सन्मुख (वाजम्) विज्ञान को (वक्षि) कहिये हे (जरितः) सत्य गुणों की स्तुतिकर्ता विद्वान् पुरुष आप (अच्छिद्रा) अति पुष्ट (पुरूणि) बहुत (शर्म) गृह और (देवान्) विद्वान् वा उत्तम गुणों से प्रसन्नतापूर्वक (अच्छ) उत्तम प्रकार संयुक्त कीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे सुडौल बने हुए और दृढ रथ से अभिवाञ्छित स्थानों को शीघ्र पहुँचते हैं, वैसे ही जो पुरुष आलस्य त्याग कर पुरुषार्थी हैं, वे उत्तम स्थानों की कामना करते हुए विद्वानों के सङ्ग द्वारा श्रेष्ठगुणों से संयुक्त होकर अन्य जनों के लिये भी उपदेश देते हैं, वे पुरुष उत्तम प्रकार सुख भोगते हैं ॥५॥

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    विषय

    सुमेके रोदसी

    पदार्थ

    [१] हे (जरितः) = हमारी वासनाओं को जीर्ण करनेवाले प्रभो ! हमारे (शर्म) = सुख (अच्छिद्रा) = बिना छिद्र के हों, निरन्तर हों, ये सुख पुरूणि पालक व पूरक हों। आप (देवान् अच्छा) = देवों की ओर (दीद्यान:) = चमकनेवाले हों और (सुमेधा:) = उन्हें शोभन बुद्धि को प्राप्त करानेवाले हों। [२] (रथः न) = उन देववृत्ति के व्यक्तियों के लिये आप रथ के समान हों। (सस्त्रिः) = उनके जीवन का शोधन करनेवाले हों। उन्हें (वाजं अभिवक्षि) = बल को प्राप्त कराएँ । हे (अग्ने) = परमात्मन् ! आप (नः) = हमारे (रोदसी) = द्यावापृथिवी को (सुमेके) = उत्तम निर्माणवाला करें। 'द्यावा' मस्तिष्क है, 'पृथिवी' शरीर है । प्रभु हमारे मस्तिष्क व शरीर दोनों को क्रमशः प्रकाश व शक्ति से युक्त करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारे सुख 'वासनामय' न हों। प्रभु को अपना रथ बनाकर हम जीवनयात्रा को पूर्ण करें। हमारा मस्तिष्क व शरीर दोनों बड़े उत्तम हों।

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    विषय

    रथवत् नायक।

    भावार्थ

    (जरितः) सत्य गुणों और विद्याओं के उपदेश करने हारे विद्वन् ! हे शत्रुओं को जीर्ण शीर्ण कर देने हारे प्रतापशालिन् ! तू (सुमेधाः) उत्तम प्रज्ञावान् (दीध्यानः) अग्नियों और सूर्य के समान तेजस्वी होकर (देवान्) विद्वानों, दिव्य गुणों और धन और विद्या के अभिलाषी पुरुषों को (अच्छिद्रा) त्रुटिरहित, अविच्छिन्न, अटूट (शर्म) गृह और (पुरूणि) बहुत से ऐश्वर्य (आवक्षि) प्राप्त करा। (रथः न) जिस प्रकार रथ (सस्त्रिः अभि वाजं वक्षि) अच्छी प्रकार वश किया हुआ वीर को युद्ध में पहुंचा देता है और जिस प्रकार रथ अच्छी प्रकार दृढ़ होकर (वाजं) अन्न को ढो लाता है उसी प्रकार हे (अग्ने) तेजस्वी विद्वन् ! नायक ! तू भी (सस्निः) अपनी इन्द्रियों और मन को अच्छी प्रकार रोक दमन कर, जितेन्द्रिय होकर (वाजं वक्षि) ज्ञानैश्वर्य को धारण कर और (वक्षि) उपदेश कर। हे वीर तू (सस्निः) ऐश्वर्य को उत्तम रीति से प्राप्त करने में समर्थ होकर (देवान् वाजं वक्षि) विजिगीषु सैन्य दलों को युद्ध में लेजा और (नः) हमें (त्वं) तू (सुमेके) उत्तम रूपवान् या उत्तम उपदेश करने वाले दानशील, मेघों के समान ज्ञान अन्न या सुखों को सेचन व वर्षण करने वाले (रोदसी) उत्तम उपदेश देने, मर्यादा में सन्तानों और परस्पर को रोक रखने, दुष्टों को रुलाने वाले स्त्री पुरुष, पति पत्नी, माता आदि प्राप्त करा। हे वीर तू (सुमेके रोदसी) मेघों के समान उत्तम शस्त्रवर्षी शत्रुओं को रुलाने और रोक रखने वाली दो सेनाओं को दायें बायें रखकर (वक्षि) धारण कर। (२) परमेश्वर पक्ष में—(सु मेधाः) सबका सुख और उत्तम ज्ञान शक्ति, रचना शक्तियें धारण करने हारा (सस्त्रिः) शुद्धस्वरूप (रथः) रसस्वरूप है। वह हमारे लिये उत्तम रसवर्धक आकाश, भूमि को धारण करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    उत्कील कात्य ऋषिः। अग्निर्देवता॥ छन्द्रः– १, ४ त्रिष्टुप्। ५ विराट् त्रिष्टुप् । ६ निचृत् त्रिष्टुप्। २ पंक्तिः। ३, ७ भुरिक् पंक्तिः॥ सप्तर्चं सूक्तम्॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे मजबूत रथाद्वारे इच्छित स्थानी शीघ्र पोचता येते, तसेच जे पुरुष आळशीपणा सोडून पुरुषार्थी बनतात ते उत्तम स्थानांची कामना करीत विद्वानांच्या संगतीने श्रेष्ठ गुणांनी संयुक्त होऊन इतरांसाठीही उपदेश देतात. ते उत्तम प्रकारचे सुख भोगतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lover, admirer and worshipper of Truth, Divinity and virtues and divinities of existence, wise and shining with knowledge, just as the sun illuminates the earth and regions of space, so, like a well-built chariot, bring us the knowledge of science and speed and bless us with brilliant scholars and faultless homes of peace and prosperity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of human beings are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O learned person! you are like the purifying fire (in the form of fire/electricity/the sun). You illuminate the heaven and earth set by the Almighty God in proper order. In the same manner, you shine and illuminate being very wise and impart good knowledge to us like a good conveyance takes us to distant destinations. O admirer of the true merits! desiring many and faultless shelters and enlightened persons, or divine virtues, you give us true knowledge of all kinds.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As with the help of good conveyances, men go to their destinations quickly, in the same manner, those who are industrious, free from laziness and desire good positions, cultivate the divine virtues. This they do by the association of the enlightened persons and teaching others, and thus accomplish the enjoyment of happiness well for all.

    Foot Notes

    (जरित:) सत्यगुणस्तावक | (जरिता) जरिता इति स्तोत्रिनाम (N. G. 3, 16) = Admirer of true merits. (सस्निः) शुद्ध:। = Pure and clean. It is noteworthy that the epithet सुमेधा: in this mantra has been used for Agni. Shri Sayanacharya has translated it as शोभनप्रज्ञ rendered into English by Prof. Wilson as "endowed with intelligence" and by Griffith as "Wisest singer". Justifiably, Swami Dayananda Sarasvati has interpreted here Agni, not as material fire but a wise man, who shines like the fire on account of his virtues.

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