ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 1
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
प्र पर्व॑तानामुश॒ती उ॒पस्था॒दश्वे॑इव॒ विषि॑ते॒ हास॑माने। गावे॑व शु॒भ्रे मा॒तरा॑ रिहा॒णे विपा॑ट्छुतु॒द्री पय॑सा जवेते॥
स्वर सहित पद पाठप्र । पर्व॑तानाम् । उ॒श॒ती इति॑ । उ॒पऽस्था॑त् । अश्वे॑इ॒वेत्यश्वे॑ऽइव । विसि॑ते॒ इति॒ विऽसि॑ते । हास॑माने॒ इति॑ । गावा॑ऽइव । शु॒भ्रे इति॑ । मा॒तरा॑ । रि॒हा॒णे इति॑ । विऽपा॑ट् । शु॒तु॒द्री । पय॑सा । ज॒वे॒ते॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र पर्वतानामुशती उपस्थादश्वेइव विषिते हासमाने। गावेव शुभ्रे मातरा रिहाणे विपाट्छुतुद्री पयसा जवेते॥
स्वर रहित पद पाठप्र। पर्वतानाम्। उशती इति। उपऽस्थात्। अश्वेइवेत्यश्वेऽइव। विसिते इति विऽसिते। हासमाने इति। गावाऽइव। शुभ्रे इति। मातरा। रिहाणे इति। विऽपाट्। शुतुद्री। पयसा। जवेते इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 1
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ नदीदृष्टान्तेन स्त्रीवर्णनमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या ये अध्यापिकोपदेशिके मातरेव कन्यानां शिक्षामुशती पर्वतानामुपस्थादश्वेइव विषिते अश्वेइव हासमाने रिहाणे शुभ्रे गावेव पयसा विपाट् छुतुद्री प्रजवेते इव वर्त्तमाने भवेतां ते कन्या स्त्रीणामध्ययनोपदेशव्यवहारे नियोजयत ॥१॥
पदार्थः
(प्र) (पर्वतानाम्) मेघानाम् (उशती) कामयमाने (उपस्थात्) समीपात् (अश्वेइव) अश्ववडवाविव (विषिते) विद्याशुभगुणकर्मव्याप्ते (हासमाने) (गावेव) यथा धेनुवृषभौ (शुभ्रे) श्वेते शुभगुणयुक्ते (मातरा) मान्यप्रदे (रिहाणे) आस्वदित्र्यौ। अत्र वर्णव्यत्ययेन लस्य स्थाने रः। (विपाट्) या विविधं पटति गच्छति विपाटयति वा सा (शुतुद्री) शु शीघ्रं तुदति व्यथयति सा (पयसा) जलेन। पय इत्युदकना०। निघं० १। १२। (जवेते) गच्छतः ॥१॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा पर्वतानां मध्ये वर्त्तमाना नद्योऽश्वा इव धावन्ति गाव इव शब्दायन्ते तथैव प्रसन्नाः शुभगुणकर्मस्वभावा विद्योन्नतिं कामयमानाः स्त्रियः कन्याः स्त्रियश्च सततं सुशिक्षेरन् ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब तेरह ऋचावाले तैंतीसवें सूक्त का प्रारम्भ है। उसके पहिले मन्त्र में नदी के दृष्टान्त से स्त्री का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो पढ़ाने और उपदेश देनेवाली (मातरा) मान्य देनेवालियों सी कन्याओं की शिक्षा को (उशती) कामना करनेवाली (पर्वतानाम्) मेघों के (उपस्थात्) समीप से (अश्वेइव) घोड़े और घोड़ी के सदृश (विषिते) विद्या और शुभ गुणयुक्त कर्मों से व्याप्त वा घोड़े और घोड़ी के सदृश (हासमाने) परस्पर प्रेम करती (रिहाणे) प्रीति से एक दूसरे को सूंघती हुई (शुभ्रे) उत्तम गुणों से युक्त (गावेव) गौ और बैल के सदृश (पयसा) जल से (विपाट्) कई प्रकार चलने वा ढाँपनेवाली (शुतुद्री) शीघ्र दुःखदायक (प्र) (जवेते) चलती हैं वैसे वर्त्तमान होवें, उन अध्यापिका और उपदेशिका को कन्या और स्त्रियों के पढ़ाने और उपदेश करने में नियुक्त करो ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे पर्वतों के मध्य में वर्त्तमान नदियाँ घोड़ों के सदृश दौड़ती और गौओं के सदृश शब्द करती हैं, वैसे ही प्रसन्न और उत्तम गुण कर्म स्वभावयुक्त विद्या की उन्नति की कामना करनेवाली स्त्रियाँ कन्याओं और स्त्रियों को निरन्तर शिक्षा देवैं ॥१॥
विषय
विपाट् + शुतुद्रि
पदार्थ
[१] 'शुतुद्री' शब्द (सुषुम्णा) = के लिए प्रयुक्त होता है। इसमें ध्यान करने से योगी शीघ्र [शु] ब्रह्मलोक को जाता है [द्रु] सो यह शुतुद्रि है [शुदुद्री शुतुद्री] । इडा 'विपाश्' कहलाती है। इस नाड़ी में अभ्यास करने से योगी के अज्ञानपाश कट जाते हैं-यह अज्ञान का उत्पाटन कर देती है। ये (विपाट् शुतुद्री) = इडा व सुषुम्णा (पयसा) = ज्ञानजल के साथ (प्रजवेते) = शीघ्र गतिवाली होती हैं । इनमें प्राणों के संयम से ज्ञान की वृद्धि होती है। [२] (पर्वतानाम्) = मेरुदण्ड ही शरीरस्थ मेरुपर्वत है। उन मेरुपर्वतों के उपस्थात्- गोद से यह आगे बढ़ती हैं। इनका स्थान इस मेरु पर्वत में है। उशती= (कामयमाने) ये साधक के हित-कामनावाली हैं। ये इस प्रकार शीघ्र गतिवाली होती हैं, इव-जैसे कि विषिते अश्वे-बन्धन से रहित दो घोड़ियाँ हों । हासमाने= (हासति: स्पर्धाकर्मा) घोड़ियाँ भी वे, जो कि परस्पर स्पर्धा करती हुई वेग से आगे बढ़ती हैं। ये विपाट् व शुतुद्री शुभ्रे गावा इव दो शुभ्र गौवों के समान हैं। अथवा मातरा दो धेनु- माताओं के समान हैं, जो कि रिहाणे-वत्स को चाटने की कामनावाली आगे बढ़ती है। (३) यहाँ 'शुतुद्रि' का ध्यान करते हुए घोड़ियों की उपमा दी गई है, यह परमात्मप्राप्ति के मार्ग पर हमें शीघ्रता से ले चलती है। 'विपाट्' के लिये 'मातरा गावा' की उपमा दी गई है, यह ज्ञानप्रकाश को प्राप्त करानेवाली है। ये दोनों ज्ञानजल को लिये हुए, वेग से उस परमात्मा की ओर हमें ले चलती हैं। नदियाँ समुद्र की ओर, ये नाड़ियाँ उस आनन्दमय प्रभु की ओर (स+मुद्)।
भावार्थ
भावार्थ - इडा व सुषुम्णा में प्राणों का संयम करने से हम अपना ज्ञान बढ़ाते हुए प्रभु की ओर गतिवाले होते हैं ।
विषय
गो-वृषभ, वा नदियों के समान प्रेम से संगत स्त्री पुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
(पर्वतानाम् उपस्थात्) पर्वतों के बीच में से जिस प्रकार दो नदियां (विपाट् शुतुद्री) अपने तटों को तोड़ती फोड़ती, और अति वेग से बहती हुई (पयसा जवेते) जल से पूर्ण होकर वेग से जाती हैं और जिस प्रकार (उशती) परस्पर कामना करने वाले वेग से दौड़ते २ (अश्वे) दो घोड़ा घोड़ी, (हासमाने) एक दूसरे से स्पर्धा करती हुई (जवेते) वेग से दौड़ रही हों और जिस प्रकार (गावा इव शुभ्रे) धवल वर्ण की दो गौवें वा दोनों गौ और वृषभ (रिहाणे) परस्पर एक दूसरे को चाटती, प्रेम करती हों उसी प्रकार स्त्री और पुरुष परस्पर विवाहित होकर दोनों (पर्वतानाम् उपस्थात्) अपने पालन करने वाले माता पिता गुरुजनों के समीप (उशती) एक दूसरे को हृदय से चाहते हुए, (विषिते) विशेष रूप से बन्धन में बद्ध, (हासमाने) एक एक से गुणों, विद्या और शोभा में स्पर्धा करते हुए वा (हासमाने) एक दूसरे को प्रसन्न करते हुए होवें, (शुभ्रे) उत्तम शोभा युक्त, शुद्ध वस्त्र और आचरण वाले, (मातरा) माता और पिता के पद पर विराजते हुए, (रिहाणे) उत्तम भोजनादि का आस्वाद लेते हुए वा परस्पर आलिंगन प्रेमादि करते हुए, (विपाट्) एक दूसरे के पाश, फन्दों, ऋणादि के बन्धनों को दूर करने वाले, विविध सुखों को प्राप्त कराने वाले और विविध प्रकार से एक दूसरे को प्रेम-पाशों में बांधने वाले और (शुतुद्री) एक दूसरे के शोकों को दूर करने वाले, अति शीघ्र ही एक दूसरे के प्रेम से द्रवित वा कष्टों से व्यथित होने वाले होकर (पयसा) पुष्टिकारक अन्न दुग्धादि से बालकों के प्रति (जवेते) शीघ्र प्राप्त हों। ‘विषिते’ विविधं सिते वद्धे। ‘हासमाने’—द्रवित हों, प्रेम से बढ़ें। (२) सेना और सेनापति दोनों प्रजा को बंधनों से छुड़ाने से ‘विपाट्’ हैं। राजा और सेना शीघ्र वेग से जाने वाली होने से ‘शुतुद्री’ हैं।
टिप्पणी
हासतिः स्पर्धायां हर्षमाणे वा॥ निरु०॥ ‘भातरौ’—माता च पिता च मातरौ। मातृशब्दशेषः छान्दसः। विपाट् विपाटनाका विपाशनाद्वा विप्रापणाद्वा, पाशा अस्यां व्यपाश्यन्त वसिष्ठस्य मुमूर्षतस्तद्विपाट् उच्यते। पूर्वमासीदुरुञ्जिरा। निरु०। विपाट्-पट गतौ, पश बाधनस्पर्शनयोः इति ण्यन्तौ विपूर्वौ। शस्य व्रञ्चनादि नाषत्वम्। विविधं पटति गच्छति विपाट् इति वा॥ ‘शुतुद्री—शुद्राविणी, क्षिप्रद्राविणी, तुन्नेव द्रवति। (सा० निरु०) आशु शुग्द्राविणी वा। शु शीघ्रं तुदति व्यथयति। (द०) तुद्यते व्यथिता भवति इति वा विपाट् शुतुद्री इति उभयत्र सुपो लुक् विपाशौ शुतुद्रयौ इति। (३) अध्यात्म में—प्राण और अपान वा आत्मा और परमात्मा दोनों ही मृत्यु भय से ग्रस्त वसिष्ठ अर्थात् देह में उत्तम वसु, जीव के पाशों को छिन्न भिन्न करने से ‘विपाट्’ है और शोक मृत्यु भयादि दूर करने से ‘शुतुद्री’ हैं। सर्वोत्पादक वा ज्ञानवान् होने से ‘माता’ है, शुद्धस्वरूप होने से ‘शुभ्र’ है, कान्ति वा प्रेमबद्ध युक्त होने से ‘रुशती’ बन्धनमुक्त होने से ‘विषिते’ और आनन्द युक्त होने से ‘हासमाने’ हैं। वे दोनों (पयसा) तृप्तिकर आनन्द रस से पूर्ण होकर एक दूसरे के प्रति वेग, प्रेम से द्रवित होते है।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
विषय
या सूक्तात मेघ, नदी, विद्वान, मित्र, शिल्पी, नौका इत्यादी व स्त्री-पुरुष यांच्या कृत्याचे वर्णन केल्याने या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाच्या बरोबर संगती जाणली पाहिजे.
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जशा पर्वतामध्ये वाहणाऱ्या नद्या घोड्याप्रमाणे पळतात व गायीप्रमाणे आवाज करतात तसे प्रसन्न व उत्तम गुण, कर्म, स्वभावाच्या व विद्येच्या उन्नतीची इच्छा करणाऱ्या स्त्रियांनी कन्यांना निरंतर शिक्षण द्यावे. ॥ १ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
From the lap of mountains, arising brilliant and passionate like the dawn, laughing and sparkling, and bolting like a horse and mare, like two beautiful mother cows yearning to meet their calves, two streams, one expansive and divided (vipat), the other deep and concentrated, fast and overflowing the banks (shutudri), flow in unison rapidly to meet the sea with their water.$Note: Swami Dayananda interprets this mantra as a metaphor of two brilliant women teachers issuing forth from a mighty source of learning and going to meet their disciples. He does not accept the interpretation that Vipat and Shutudri refer to two particular streams of these names. He does not accept the historical comparative method of Vedic interpretation which says that these mantras were composed on the banks of Vipat and Shutudri streams. On the contrary, he says that the words of the Veda should be interpreted etymologically as translated above.$Why these names in the Veda then? That’s the question. Swamiji says that words of the Veda are independent of history and geography. Particulars names in history such as Rama, Krishna, and others, for example, and names in geography such as Vipat and Shutudri and Ganga were taken from the Veda and not vice versa. There is no history nor geography of persons and places in the Veda. All such words, which appear to be name-words, should be interpreted etymologically, that’s the scientific method, just like the technical terms of science which are structured and interpreted etymologically.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
By the illustration of rivers, the duties of good women are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! the female teachers and preachers are like two mothers, desirous of imparting education to the girls. They are comparable to the twin rivers-large, vast and flowing quickly and rushing from the flanks of the mountains; a pair of horse and mare with lessened reins contending with each other in speed; or two mother cows hastening to caress their calves. Appoint them to teach and preach among the girls and women of advanced age.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
As the rivers flowing amidst the mountains run like the horses and mares, make loud bellowings like the cows; in the same manner, the ladies who are of cheerful disposition and endowed with noble qualities, actions and temperament and who are keen to the progress and welfare of women should impart good education to the virgins and other women.
Foot Notes
(रिहाणे) आस्वादित्रयौ। अत्र वर्णव्यत्ययेन लस्य स्थाने र:। = Swelling or licking. (विपाट्) या विविधं पटति गच्छति विपाटयति वा सा । (विपाट्) वि+पट+गतौ। = Any river which flows zigzag or fells down the embankments. (शुतुद्री) शु शीघ्र तुदति व्यथयति सा ( शुतुद्री) शु-आशु । तुद-व्यथने । = That which flows quickly and on account of fast flow may cause some damage to lands lying near their banks. Shri Sayanacharya, Prof. Wilson, Griffith and others have taken fчandas two Proper names of the rivers instead of any two rivers of the above qualities, as the words denote. Yaskacharya in his lexicon Nirukta 9.3.25 has given the definition of शुतुद्री as शुद्राविणी क्षिप्रद्राविणी आशुतुन्नैव द्रवतीति वा and of the विपाट् as विपाट्नाद् वा विप्राशर्नाद् वा विप्रापयद्वा । It is obvious that the ancient Indians named the rivers according to the qualities mentioned in the Vedas, and not the rivers were first named then they were mentioned in the Vedas. The question stands unanswered in that case that who were the persons or groups who named them earlier than the Vedas. The antiquity is silent. Therefore Swami Dayananda's interpretation is logical. (Ed.)
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal