ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
इन्द्रे॑षिते प्रस॒वं भिक्ष॑माणे॒ अच्छा॑ समु॒द्रं र॒थ्ये॑व याथः। स॒मा॒रा॒णे ऊ॒र्मिभिः॒ पिन्व॑माने अ॒न्या वा॑म॒न्यामप्ये॑ति शुभ्रे॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्रे॑षिते॒ इतीन्द्र॑ऽइषिते । प्र॒ऽस॒वम् । भिक्ष॑माणे॒ इति॑ । अच्छ॑ । स॒मु॒द्रम् । र॒थ्या॑ऽइव । या॒थः॒ । स॒मा॒रा॒णे इति॑ स॒म्ऽआ॒रा॒णे । ऊ॒र्मिऽभिः॑ । पिन्व॑माने॒ इति॑ । अ॒न्या । वा॒म् । अ॒न्याम् । अपि॑ । ए॒ति॒ । शु॒भ्रे॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्रेषिते प्रसवं भिक्षमाणे अच्छा समुद्रं रथ्येव याथः। समाराणे ऊर्मिभिः पिन्वमाने अन्या वामन्यामप्येति शुभ्रे॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्रेषिते इतीन्द्रऽइषिते। प्रऽसवम्। भिक्षमाणे इति। अच्छ। समुद्रम्। रथ्याऽइव। याथः। समाराणे इति सम्ऽआराणे। ऊर्मिऽभिः। पिन्वमाने इति। अन्या। वाम्। अन्याम्। अपि। एति। शुभ्रे इति॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 12; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे मनुष्या ये इन्द्रेषिते पिन्वमाने ऊर्मिभिः समुद्रं रथ्येव नद्याविव प्रसवं भिक्षमाणे समाराणे शुभ्रे अध्यापिकोपदेशिके अच्छ याथः। अन्या अन्यामप्येतीव हे अध्यापिकोपदेशिके वामध्येतुं श्रोतुं वा प्राप्नुयुस्ता युवाभ्यां विद्याव्यवहारे नियोजनीया अध्यापनीयाश्च ॥२॥
पदार्थः
(इन्द्रेषिते) इन्द्रेण सूर्य्येण वर्षाद्वारा प्रेरिते (प्रसवम्) प्रकृष्टमैश्वर्य्यम् (भिक्षमाणे) (अच्छ) सम्यक्। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (समुद्रम्) समुद्द्रवन्त्यापो यस्मिँस्तं मेघं सागरं वा। समुद्र इति मेघना०। निघं० १। १०। (रथ्येव) रथेषु साधू अश्वा इव (याथः) गच्छथः (समाराणे) सम्यक् समन्ताद्राणं दानं ययोस्ते (ऊर्मिभिः) तरङ्गैः (पिन्वमाने) सेक्त्र्यौ (अन्या) भिन्ना (वाम्) युवयोः (अन्याम्) (अपि) (एति) (शुभ्रे) शोभायमाने ॥२॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा युवतयो यूनः पतीन् प्राप्य प्रसवमिच्छन्ति नद्यः समुद्रं गच्छन्त्यश्वा मार्गे रथं नयन्ति तथैवाऽध्यापिकोपदेशिकाभिर्विद्यासुशिक्षादानेन सर्वाः स्त्रियः शुभगुणकर्मस्वभावाः सम्पादनीयाः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जो (इन्द्रेषिते) सूर्य्य से वृष्टि के द्वारा प्रेरित की गईं (पिन्वमाने) सींचनेवाली (ऊर्भिभिः) तरङ्गों से (समुद्रम्) बहनेवाले जलों से युक्त मेघ वा सागर को (रथ्येव) रथों में चलने योग्य घोड़ों वा नदियों के सदृश (प्रसवम्) उत्तम ऐश्वर्य्य की (भिक्षमाणे) याचना करती हुईं (समाराणे) उत्तम प्रकार सब तरह दान देनेवाली (शुभ्रे) शोभायुक्त होकर पढ़ाने और उपदेश करनेवाली स्त्रियाँ (अच्छ, याथः) अच्छे प्रकार जावें (अन्या) कोई एक स्त्री (अन्याम्) दूसरी स्त्री को (अपि) (एति) प्रीति से मिलाती है वा हे पढ़ाने और उपदेश देनेवालियो ! (वाम्) तुम दोनों के सम्बन्ध से जो स्त्रियाँ पढ़ने वा सुनने को प्राप्त हों, वे स्त्रियाँ तुमको विद्यासम्बन्धी व्यवहार में नियुक्त करनी तथा पढ़ानी चाहियें ॥२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे जवान स्त्रियाँ जवान पतियों को प्राप्त होके गर्भोत्पत्ति की इच्छा करती हैं और नदियाँ समुद्र के प्रति जाती हैं और घोड़े मार्ग में रथ को ले चलते हैं, वैसे ही पढ़ने और उपदेश देनेवालियों को चाहिये कि विद्या और उत्तम शिक्षा के दान से सम्पूर्ण स्त्रियों को उत्तम गुणकर्म स्वभावयुक्त करें ॥२॥
विषय
इडा व सुषुम्णा का मेल
पदार्थ
(१) (इन्द्रेषिते) = जितेन्द्रिय पुरुष से प्रेरित हुई हुई, (प्रसवं भिक्षमाणे) = अन्तः स्थित प्रभु-प्रेरणा की याचना करती हुई इडा और सुषुम्णा (समुद्रम्) = उस आनन्दमय प्रभु की ओर (याथः) = गति करती हैं। इस प्रकार गति करती हैं, (इव) = जैसे कि (रथ्या) = दो उत्तम रथवाले रथी हों। [२] ये इडा और (सुषुम्णा समाराणे) = परस्पर संगत होकर गति करती हुईं, (ऊर्मिभिः पिन्वमाने) = [ऊर्मि= Light] ज्ञानप्रकाशों से संतृप्त करती हुई, (शुभ्रे) = अत्यन्त शुभ्र हैं। जीवन को ये उज्ज्वल बनानेवाली हैं। (वाम्) = इन दो नाड़ियों में से (अन्या) = एक [इडा], (अन्यां अपि) = दूसरी [सुषुम्णा] की ओर एति आती है ।
भावार्थ
भावार्थ - एक साधक इडा में प्राणों का संयम प्रारम्भ करके सुषुम्णा की ओर बढ़ता है अब प्रभु की प्रेरणा सुनाई पड़ने लगती है और साधक प्रभु की ओर गतिवाला होता है ।
विषय
सेना-सेनापति का वर्णन। विपाट् शुतुद्री का रहस्य।
भावार्थ
जिस प्रकार (इन्द्रेषिते) सूर्य या मेघ वृष्टि द्वारा अति वेग से प्रेरित होकर (ऊर्मिभिः पिन्वमाने) तरंगों से तट प्रदेशों को सींचती हुई दो महानदियां एक दूसरे से मिलकर (समुद्रं याथः) समुद्र को पहुंच जाती हैं उसी प्रकार स्त्री पुरुष पति पत्नी दोनों (इन्द्रेषिते) ‘इन्द्र’ अर्थात् अज्ञान के नाश करने वाले विद्वान् पुरुष द्वारा सन्मार्ग में प्रेरित होकर (प्रसवं भिक्षमाणे) उत्तम सन्तान की एक दूसरे से प्रार्थना और याचना करते हुए (रथ्या इव) रथ में लगे दो अश्वों के समान वा रथ में बैठे रथी सारथी के समान या रथ में लगे दो चक्रों के समान (अच्छा) परस्पर प्रेमयुक्त होकर (समुद्रं याथः) समुद्र के समान अपार काम्य सुख को प्राप्त करें। वे दोनों (ऊर्मिभिः) प्रेम की उठी तरंगों से (समाराणे) परस्पर सुसंगत होकर वा एक दूसरे को अपने समान भाव से संप्रदान करते हुए और (पिन्वमाने) स्नेहों द्वारा एक दूसरे को सींचते, बढ़ाते वा निषेक करते हुए (शुभ्रे) मन, तन, वाणी से शुद्ध, स्वच्छ वा तेजस्वी होकर रहो और (वाम्) तुम दोनों से (अन्या) एक व्यक्ति (अन्याम्) दूसरी व्यक्ति को (अप्येति) अच्छी प्रकार ऐसे प्राप्त हो कि एक में एक समा जाय। (२) सेना, नायक वा राजा प्रजा (प्रसवं भिक्षमाणे) उत्तम शासन और ऐश्वर्य चाहते हुए अपार ऐश्वर्य को प्राप्त करें।
टिप्पणी
कामो हि समुद्रः। शत०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा तरुण स्त्रिया तरुण पतींना प्राप्त होतात व गर्भोत्त्पत्तीची इच्छा करतात, नद्या समुद्राकडे जातात व घोडे रथासह मार्गाने जातात, तसे शिकणाऱ्या व उपदेश करणाऱ्या स्त्रियांनी उत्तम शिक्षण व दान यांनी सर्व स्त्रियांना उत्तम गुणकर्मस्वभावयुक्त करावे. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Moved and inspired by Indra, lord of light and rain, sharing and receiving the impulse to grow, you flow with crystalline waters, like beautiful chariot mares, towards the sea. Meeting and growing together with rising waves, feeding the environs, brilliant and graceful, each of you meets and augments the other.$(The metaphor of learned women, meeting, cooperating and beautifying the life around with education and the graces of culture continues to apply.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of rivers (female teachers) is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
The female teacher and preacher go well like two rivers impelled by the sun through rains. They go to the ocean whirling with their waves like two horses yoked in the chariot, soliciting great wealth of wisdom and giving benefits liberally for useful purposes gratis. One (teacher/preacher) goes to the others, lovingly co-operating with each other. O lady teachers and preachers whoever girls or women come to learn or listen to your sermons, you should teach them well and when they become highly learned, appoint them as teachers or preachers in similar capacity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The youthful virgins having married young husbands desire to beget children, likewise the rivers go to the ocean, and horses take the chariots on the path. In the same manner, the lady teachers and preachers should make all women blessed with noble virtues, actions and temperaments by imparting them good education.
Foot Notes
(प्रसर्वम् ) प्रकृष्टमैश्वरः म् = Good wealth of wisdom etc. ( समाराणे ) सम्यक् समन्ताद्राणं दानं ययोस्ते । = Giving liberally for charitable purposes. ( प्रसवम् ) प्र + षु - प्रसवैश्यययोः = Here it has been used in two senses by the commentator. In the purport, it meant begetting children and in the meaning of words, (translation) as उत्कृष्टम् ऐश्वर्यम् of good wealth (of wisdom etc.).
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