ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 33/ मन्त्र 10
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - नद्यः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ ते॑ कारो शृणवामा॒ वचां॑सि य॒याथ॑ दू॒रादन॑सा॒ रथे॑न। नि ते॑ नंसै पीप्या॒नेव॒ योषा॒ मर्या॑येव क॒न्या॑ शश्व॒चै ते॑॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । का॒रो॒ इति॑ । शृ॒ण॒वा॒म॒ । वचां॑सि । य॒याथ॑ । दू॒रात् । अन॑सा । रथे॑न । नि । ते॒ । नं॒सै॒ । पी॒प्या॒नाऽइ॑व । योषा॑ । मर्या॑यऽइव । क॒न्या॑ । श॒श्व॒चै । त॒ इति॑ ते ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते कारो शृणवामा वचांसि ययाथ दूरादनसा रथेन। नि ते नंसै पीप्यानेव योषा मर्यायेव कन्या शश्वचै ते॥
स्वर रहित पद पाठआ। ते। कारो इति। शृणवाम। वचांसि। ययाथ। दूरात्। अनसा। रथेन। नि। ते। नंसै। पीप्यानाऽइव। योषा। मर्यायऽइव। कन्या। शश्वचै। त इति ते॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 33; मन्त्र » 10
अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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अष्टक » 3; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे कारो ते तव वचांस्यानसा रथेन दूरादागत्य वयमाशृणवाम यथा त्वमस्मान् ययाथ तथा वयं त्वां प्राप्नुयाम। यस्त्वं पीप्यानेव नि नंसै ते तुभ्यं वयमपि नमाम योषा मर्यायेव कन्या शश्वचै इव ते तुभ्यं वयमभिलषेम ॥१०॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (ते) तव (कारो) शिल्पविद्यासु कुशल (शृणवाम) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (वचांसि) विद्याप्रज्ञापकानि वचनानि (ययाथ) प्राप्नुयाः (दूरात्) (अनसा) (रथेन) (नि) (ते) तव (नंसैः) नमेः (पीप्यानेव) विद्यावृद्धाविव (योषा) (मर्यायेव) यथा पुरुषाय (कन्या) (शश्वचै) परिष्वङ्गाय (ते) तुभ्यम् ॥१०॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये दूरादागत्य विदुषां सकाशाद्विविधा विद्याः प्राप्य नम्रा भवन्ति ते विद्यावृद्धाः सन्तः पतिव्रता स्त्री पतिमिव कन्याऽभीष्टं वरमिव विद्यां प्राप्याऽऽनन्दन्ति ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं।
पदार्थ
हे (कारो) शिल्प विद्याओं में चतुर ! (ते) आपके (वचांसि) विद्या के प्राप्त करानेवाले वचनों को (अनसा) शकट और (रथेन) रथ से (दूरात्) दूर से आपके हम लोग (आ) सब प्रकार (शृणवाम) सुनैं ओर जैसे आप हम लोगों को (ययाथ) प्राप्त होवैं वैसे हम लोग आपको प्राप्त होवैं जो आप (पीप्यानेव) विद्या के वृद्ध दो पुरुषों के सदृश (नि, नंसै) नमस्कार करैं (ते) आपके लिये हम लोग भी नम्र होवैं (योषा) स्त्री (मर्यायेव) जैसे पुरुष के लिये और (कन्या) कन्या (शश्वचै) प्रीति से मिलने के लिये वैसे (ते) आपके लिये हम लोग अभिलाषा करैं ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो लोग दूर से आय के विद्वानों के समीप से अनेक प्रकार की विद्याओं को प्राप्त करके नम्र होते हैं, वे विद्यावृद्ध होकर जैसे पतिव्रता स्त्री पति और कन्या अभीष्ट वर को वैसे विद्या को प्राप्त होके आनन्दित होते हैं ॥१०॥
विषय
नाड़ियों की अनुकूलता
पदार्थ
[१] नाड़ियाँ साधक को उत्तर देती हैं— हे कारो! स्तुति वचनों के कर्त: ! (ते) = तेरे वचांसि वचनों को (आशृणवाम) = सर्वथा सुनती हैं। तू अनसा (रथेन) = इस प्राणशक्ति सम्पन्न शरीर रथ द्वारा (दूरात् ययाथ) = विषय वासनाओं का परित्याग करके दूर से हमारे पास आया है । [२] (इव) = जैसे (पीप्याना) = बच्चे को दूध पिलाती हुई (योषा) = स्त्री दुग्धपायी बालक के लिए झुकती है, इसी प्रकार हम (ते) = तेरे लिए (नसै) = झुकती हैं- अनुकूल होती हैं। इव उसी प्रकार हम (ते) = तेरे लिए झुकती हैं, (इव) = जैसे कि कन्या-एक कन्या मर्याय-पिता व भाई आदि के लिए शश्वचै- आलिंगन के लिए झुकती है। वस्तुतः प्राणसाधना द्वारा इन नाड़ियों को जब ठीक प्रकार से रुधिर की गतिवाला हम करते हैं, तो इनकी अनुकूलता प्राप्त करते ही हैं। विषय-वासनाओं को छोड़कर इस साधना में लगना ही, सुदूर रथ से इनके समीप प्राप्त होना है। जब एक साधक इस साधना में प्रवृत्त होता है, तो नाड़ियाँ उसके अनुकूल होती हैं मानो उसकी बात को सुनती हैं। नाड़ियों में रुधिर की गति को ठीक करें।
भावार्थ
भावार्थ- हम विषयव्यावृत्त होकर प्राणसाधना द्वारा इस प्रकार नाड़ियों की अनुकूलता से हमें पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त होगा।
विषय
कन्या वा स्त्रीवत् प्रजा का राजा के प्रति विनय।
भावार्थ
हे (कारो) क्रियाकुशल पुरुष ! हम प्रजागण, सैन्यगण (ते वचांसि) तेरे वचनों को (शृणवाम) सुनें। तू (अनसा रथेन) शकट और रथ से (दूरात्) दूर २ के देशों तक भी जाता और दूर से आ भी जाता है। (पीप्याना इव) जिस प्रकार खूब हृष्ट पुष्ट हुई (योषा) स्त्री (शश्वचै) आलिंगन करने के लिये (नि नंसै) प्रेम से झुकती है और जिस प्रकार (कन्या मर्याय इव) कमनीय कन्या पुरुष के (शश्वचै) आलिंगन के लिये लज्जाशील उत्सुकता से झुकती है और पुरुष के आलिंगन को उसके अनुकूल होकर सह लेती है उसी प्रकार हम प्रजास्थ लोग भी (ते) तेरे (शश्वचै) साथ सब प्रकार के सहयोग के लिये (नि नंसै) निरन्तर तेरे अनुकूल रहकर प्रेमपूर्वक तेरा साथ दें। (२) विद्या सम्पादन कर विवाह करने वाला पुरुष भीर थादि से दूर देश से आवे और हृष्ट पुष्ट कमनीय कन्या उस पुरुष को वरने और पत्नी होकर प्रेम पूर्वक उसके अनुकूल होकर, उसके अधीन हो कर रहे। इति त्रयोदशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विश्वामित्र ऋषिः॥ नद्यो देवता॥ छन्द:- १ भुरिक् पङ्क्तिः। स्वराट् पङ्क्तिः। ७ पङ्क्तिः। २, १० विराट् त्रिष्टुप्। ३, ८, ११, १२ त्रिष्टुप्। ४, ६, ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १३ उष्णिक्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जे लोक दूरदूरच्या स्थानाहून आलेल्या विद्वानांकडून अनेक प्रकारच्या विद्या प्राप्त करून नम्र होतात ते विद्यावृद्ध होतात. जशी पतिव्रता स्त्री पतीला व कन्या अभीष्ट वराला प्राप्त करते तसे विद्या प्राप्त करून ते आनंदित होतात. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O poet artist and maker, we listen to your words, you come from afar with a cart and chariot, and we greet you with salutations eagerly as a woman overflowing with love meets her child, and a maiden meets her lover with embraces.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of duties of men is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O expert artists! having come from distance with a wagon and a chariot, we hear your words. As you have come to us, we also come to you with love and reverence. We bow before you as you bow before those persons who are advance ed in wisdom and knowledge. We desire and love you as a wife loves her husband and a maiden loves a man to whom she has been engaged.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those who having come from distant places have acquired the knowledge of various branches of science, become humble. They being advanced in true knowledge, enjoy bliss and joy as a chaste wife does after meeting her husband and a virgin after getting a suitable and loving bridegroom.
Foot Notes
(पीप्यानेव) विद्यावृद्धाविव। (पीप्यानम्) ओप्यायिवृद्धौ (भ्वा.) = Like those who are advanced in knowledge. To grow. (कारो) शिल्पविद्यासु कुशलः । (कारो) डुकृञ् करणे इति धातो: (उणादि कोषे १, १ ) उण् प्रत्यय: तत् सम्बोधनम् । करोतीति कारुः कर्ता शिल्पी वा इति महर्षि दयानन्द कृतवन्तः । = Expert in art and industry. (शश्वचे ) परिष्वङ्गाय = For loving = act.
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