ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
कृ॒तं चि॒द्धि ष्मा॒ सने॑मि॒ द्वेषोऽग्न॑ इ॒नोषि॒ मर्ता॑त्। इ॒त्था यज॑मानादृतावः ॥७॥
स्वर सहित पद पाठकृ॒तम् । चि॒त् । हि । स्म॒ । सने॑मि । द्वेषः॑ । अग्ने॑ । इ॒नोषि॑ । मर्ता॑त् । इ॒त्था । यज॑मानात् । ऋ॒त॒ऽवः॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कृतं चिद्धि ष्मा सनेमि द्वेषोऽग्न इनोषि मर्तात्। इत्था यजमानादृतावः ॥७॥
स्वर रहित पद पाठकृतम्। चित्। हि। स्म। सनेमि। द्वेषः। अग्ने। इनोषि। मर्तात्। इत्था। यजमानात्। ऋतऽवः॥७॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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अष्टक » 3; अध्याय » 5; वर्ग » 10; मन्त्र » 7
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजविषयमाह ॥
अन्वयः
हे ऋतावोऽग्ने ! यस्त्वं हि चिद् द्वेषो मर्त्तादित्था यजमानाद्वा सनेमि कृतमिनोषि स स्म एव राज्यं कर्त्तुमर्हसि ॥७॥
पदार्थः
(कृतम्) निष्पादितम् (चित्) अपि (हि) (स्म) एव (सनेमि) सनातनम् (द्वेषः) द्वेष्टुः (अग्ने) (इनोषि) व्याप्नोषि (मर्तात्) मनुष्यात् (इत्था) अनेन प्रकारेण (यजमानात्) धर्म्येण सङ्गतात् (ऋतावः) ऋतं सत्यं विद्यते यस्मिंस्तत्सम्बुद्धौ ॥७॥
भावार्थः
हे राजादयो मनुष्या भवन्तः शत्रुभ्यो मित्रेभ्यश्च शुभान् गुणान् गृहीत्वा सुखानि प्राप्नुवन्तु ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजविषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (ऋतावः) सत्य से युक्त (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान ! जो आप (हि) ही (चित्) निश्चित (द्वेषः) द्वेष करनेवाले (मर्त्तात्) मनुष्य से वा (इत्था) इस प्रकार (यजमानात्) धर्म से सङ्ग किये हुए जन से (सनेमि) अनादि सिद्ध और (कृतम्) उत्पन्न किये गये को (इनोषि) विशेषता से प्राप्त होते हैं (स्म) वही राज्य करने योग्य हैं ॥७॥
भावार्थ
हे राजा आदि मनुष्यो ! आप लोग शत्रु और मित्रों से उत्तम गुणों को ग्रहण करके सुखों को प्राप्त होइये ॥७॥
विषय
दृढ़मूल द्वेष का भी दूरीकरण
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = सब दोषों को दग्ध करनेवाले प्रभो! आप (मर्तात्) = मनुष्य से (कृतं चित्) = किये हुए भी (सनेमि) = पुराने (द्वेषः) = द्वेष को (हिष्मा) = निश्चय से (इनोषि) = प्रेरित करते हो, दूर भगाते हो [नाशयसि सा०] । कितनी भी द्वेष की भावना पुरानी व दृढ़मूल हो जाये, प्रभु उपासना से वह नष्ट हो जाती है। [२] हे (ऋतावः) = ऋत का रक्षण करनेवाले, अथवा ऋतवाले प्रभो ! इत्था सचमुच (यजमानात्) = यज्ञशील पुरुष से आप द्वेष आदि को दूर भगाते हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उपासना से दृढमूल भी द्वेष नष्ट हो जाते हैं। हम यज्ञशील बनते हैं और जीवन को पवित्र करनेवाले होते हैं।
विषय
उत्तम नायक, विद्वान् आदि की समृद्धि की आशंसा । उससे रक्षा, ऐश्वर्य आदि की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे (ऋतवः) सत्यज्ञान, सत्य धनैश्वर्य के स्वामिन् ! तू (इत्था) इस प्रकार से, सचमुच, (यजमानात् मर्त्तात्) मैत्री, सत्संग और कर आदि प्रदान करने वाले प्रजाजन से (कृतं) किये गये (द्वेषः) द्वेष को भी (सनेमि) अपने सबको दबाने वाले बल सहित (इनोषि स्म) दूर करते रहो । (चित् ह) उसी प्रकार हम भी करें । वा यही तेरा उत्तम कार्य है । अथवा (द्वेषः मर्त्तात् यजमानात् च कृतं इनोषि) द्वेषयुक्त पुरुष और करप्रद पुरुष से भी तू (कृतं) उत्पन्न किये धनैश्वर्यादि पुण्यादि को प्राप्त होता है । तू मित्र शत्रु अनुयोगी प्रतियोगी सभी के. अच्छे बुरे किये का भागी है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः– १ गायत्री । २, ३, ४, ७ भुरिग्गायत्री । ५, ८ स्वरडुष्णिक् । ६ विराडुष्णिक् ॥ अष्टर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा इत्यादींनो ! तुम्ही शत्रू व मित्रांकडून उत्तम गुण ग्रहण करून सुख प्राप्त करा. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord giver, observer and commander of the law of natural truth and justice, you drive away from mortal humanity and from the man of yajnic performance all sin, hate and enmity even if it has been done and has existed since time immemorial.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of the rulers are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O truthful king ! you are capable to rule over the State well as you accept virtues even from an enemy, who has malice since long against you and other righteous performers of Yajnas (noble and performing the philanthropic acts).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king and other persons! achieve happiness by accepting noble virtues from your foes, as well as from the friends.
Foot Notes
(सनेमि) सनातनम् । सनेमि इति पुराणनाम (NG 3, 27 ) = Eternal, long lasting. (इनोषि) व्याप्नोषि । इन्वति व्याप्नोतिकर्मा (NG 2, 18) = Pervade.
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