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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 14
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - अग्निः छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अधा॑ ह॒ यद्व॒यम॑ग्ने त्वा॒या प॒ड्भिर्हस्ते॑भिश्चकृ॒मा त॒नूभिः॑। रथं॒ न क्रन्तो॒ अप॑सा भु॒रिजो॑र्ऋ॒तं ये॑मुः सु॒ध्य॑ आशुषा॒णाः ॥१४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । ह॒ । यत् । व॒यम् । अ॒ग्ने॒ । त्वा॒ऽया । प॒ट्ऽभिः । हस्ते॑भिः । च॒कृ॒म । त॒नूभिः॑ । रथ॑म् । न । क्रन्तः॑ । अप॑सा । भु॒रिजोः॑ । ऋ॒तम् । ये॒मुः॒ । सु॒ऽध्यः॑ । आ॒शु॒षा॒णाः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अधा ह यद्वयमग्ने त्वाया पड्भिर्हस्तेभिश्चकृमा तनूभिः। रथं न क्रन्तो अपसा भुरिजोर्ऋतं येमुः सुध्य आशुषाणाः ॥१४॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। ह। यत्। वयम्। अग्ने। त्वाऽया। पड्ऽभिः। हस्तेभिः। चकृम। तनूभिः। रथम्। न। क्रन्तः। अपसा। भुरिजोः। ऋतम्। येमुः। सुऽध्यः। आशुषाणाः॥१४॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 14
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ प्रजाजनकृत्यमाह ॥

    अन्वयः

    हे अग्ने ! त्वाया सुध्य आशुषाणा वयं हस्तेभिः पड्भिस्तनूभिर्यद्यं रथं न चकृम। अध ह येऽपसा भुरिजोर्ऋत येमुस्तं रथं न त्वं क्रन्तो भव ॥१४॥

    पदार्थः

    (अध) अथ। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (ह) किल (यत्) यम् (वयम्) (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान राजन् (त्वाया) त्वां प्राप्ता। अत्र विभक्तेराकारादेशः (पड्भिः) पादैः। अत्र वर्णव्यत्ययेन दस्य डः। (हस्तेभिः) (चकृम) कुर्याम। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (तनूभिः) शरीरैः (रथम्) विमानादियानम् (न) इव (क्रन्तः) क्रमकः (अपसा) कर्मणा (भुरिजोः) धारकपोषकयोः (ऋतम्) सत्यम् (येमुः) यच्छेयुः (सुध्यः) शोभना धीर्येषान्ते (आशुषाणाः) सद्यो विभाजकाः ॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। मनुष्यैरालस्यं विहाय शरीरादिभिः पुरुषार्थं सदैवाऽनुष्ठाय प्रजाराज्ययोर्धर्म्येण नियमः कर्त्तव्यो येन सर्व आढ्याः स्युः ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब प्रजाजन के कृत्य को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान राजन् ! (त्वाया) आपको प्राप्त (सुध्यः) उत्तम बुद्धिवाले (आशुषाणाः) शीघ्र विभाग करनेवाले (वयम्) हम लोग (हस्तेभिः) हाथों (पड्भिः) पैरों और (तनूभिः) शरीरों से (यत्) जिस (रथम्) विमान आदि वाहन के (न) सदृश (चकृम) करें (अध) इसके अनन्तर (ह) निश्चय जो (अपसा) कर्म से (भुरिजोः) धारण और पोषण करनेवालों के (ऋतम्) सत्य को (येमुः) प्राप्त होवें उस विमान आदि वाहन के सदृश (क्रन्तः) क्रम से चलनेवाले हूजिये ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि आलस्य त्याग के शरीरादिकों से पुरुषार्थ को सदा ही करके प्रजा और राज्य का धर्म से नियम करें, जिससे सब लोग धनयुक्त होवें ॥१४॥

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    विषय

    पड्भिः हसोभिः तनूभिः

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = परमात्मन्! (अधा) = अब (ह) = निश्चय से (वयम्) = हम (त्वाया) = आप की प्राप्ति की कामना से (पड्भि:) = पाँवों से (हस्तेभिः) = हाथों से तथा (तनूभिः) = शरीरों से (चकृमा) = कर्मों को करते हैं। [२] (न) = जैसे (क्रन्तः) = शिल्पी लोग (रथम्) = रथ को (भुरिजोर् अपसा) = भुजाओं के कर्म से (येमुः) = उद्यत करते हैं, तैयार करते हैं, इसी प्रकार (सुध्यः) = उत्तम बुद्धियोंवाले (आशुषाणा:) = कर्मों में व्याप्त होनेवाले लोग अपनी भुजाओं की क्रियाओं से (ऋतम्) = ऋत को, यज्ञ को (येमुः) = अपने जीवन में उद्यत करनेवाले होते हैं। सदा यज्ञशील जीवन बिताते हुए ये लोग प्रभु के सच्चे उपासक बनते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ–क्रियामय जीवनवाला ही प्रभु को प्राप्त करता है।

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    विषय

    शिल्पियों के तुल्य वीरों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( अध ह ) बनाने वाले शिल्पी लोग ( न ) जिस प्रकार ( भुरिजोः अपसा ) बाहुओं के कर्म या बल से ( रथं ) रथ को बनाते हैं और ( सुध्यः ) उत्तम बुद्धिमान् उत्तम कर्म-कुशल ( आशुषाणाः ) तीव्र गति देने हारे लोग ( ऋतम् येमुः ) रथ के वेग को भी नियमित करते हैं उसी प्रकार हे (अग्ने) अग्रणी नायक ! विद्वन्! (यत्) जब हम ( त्वाया ) तेरी हितकामना वा तुझे प्राप्त होने की इच्छा से ( पड्भिः ) पैरों से, ( हस्तेभिः ) हाथों से और ( तनूभिः ) अपने शरीरों से ( चकृमा ) कार्य करें तब ( सुध्यः ) उत्तम बुद्धिमान, कर्मकुशल और ( आशुषाणाः ) शीघ्र ही अपनी शक्ति, धन आदि का उचित विभाग करते हुए पुरुष (भुरिजोः) धारण पोषण करने में समर्थ बाहुओं और उनके तुल्य राजा प्रजा वा क्षात्रबल के ( अपसा ) कर्म सामर्थ्य से ( क्रन्तः ) कर्म करते हुए ( रथं ) वेगवान् रथ के तुल्य ही ( ऋतम् ) सत्य, ज्ञान और न्यायाचरण का और राष्ट्ररूप रथ का (येमुः ) प्रबन्ध करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. माणसांनी आळस त्यागून शरीर इत्यादींनी सदैव पुरुषार्थ करावा. प्रजेसाठी व राज्यासाठी धर्मपूर्वक नियम बनवावेत. ज्यामुळे सर्व लोक धनयुक्त व्हावेत ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And Agni, O ruler of the world, as we, dedicated to you, work for you with our hands and feet and indeed with our body and soul, so may all the intelligent people, cooperating with you with the work of their dexterous hands, move together as by a chariot car and take you and all to the destination of truth and rectitude toward perfection.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of the people are stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king ! the persons shining and purifier like the fire and endowed with good intellect approach you. Sieving the truth from falsehood, whatever we do with our hands, and feet, like manufacturing of a good chariot and like those who achieve the truth of the upholder and the nourisher, you should also go on advancing in that right direction like a speedy vehicle.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should give up all indolence, should work hard physically and should have righteous watch over their rulers and peoples, so that all may be endowed with riches.

    Foot Notes

    (आशुषाणाः) सद्यो विभाजकाः । = Dividers or discriminators. (भुरिजो:) धारकपोषकयोः । = Of the upholder and nourisher.

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