ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 16
अधा॒ यथा॑ नः पि॒तरः॒ परा॑सः प्र॒त्नासो॑ अग्न ऋ॒तमा॑शुषा॒णाः। शुचीद॑य॒न्दीधि॑तिमुक्थ॒शासः॒ क्षामा॑ भि॒न्दन्तो॑ अरु॒णीरप॑ व्रन् ॥१६॥
स्वर सहित पद पाठअध॑ । यथा॑ । नः॒ । पि॒तरः॑ । परा॑सः । प्र॒त्नासः॑ । अ॒ग्ने॒ । ऋ॒तम् । आ॒शु॒षा॒णाः । शुचि॑ । इत् । अ॒य॒न् । दीधि॑तिम् । उ॒क्थ॒ऽशासः । क्षामा॑ । भि॒न्दन्तः॑ । अ॒रु॒णीः । अप॑ । व्र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अधा यथा नः पितरः परासः प्रत्नासो अग्न ऋतमाशुषाणाः। शुचीदयन्दीधितिमुक्थशासः क्षामा भिन्दन्तो अरुणीरप व्रन् ॥१६॥
स्वर रहित पद पाठअध। यथा। नः। पितरः। परासः। प्रत्नासः। अग्ने। ऋतम्। आशुषाणाः। शुचि। इत्। अयन्। दीधितिम्। उक्थऽशसः। क्षाम। भिन्दन्तः। अरुणीः। अप। व्रन्॥१६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 16
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे अग्ने ! यथा नः परासः प्रत्नासः पितरः शुच्यृतमाशुषाणा उक्थशासः क्षाम भिन्दन्तो दीधितिमयन्। अधाऽरुणीरपव्रँस्तथेदेव त्वमस्मासु वर्त्तस्व ॥१६॥
पदार्थः
(अध) आनन्तर्य्ये। अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (यथा) येन प्रकारेण (नः) अस्माकम् (पितरः) जनकाः (परासः) भविष्यन्तः (प्रत्नासः) भूताः (अग्ने) पावकवद्वर्त्तमान राजन् (ऋतम्) सत्यं न्याय्यम् (आशुषाणाः) समन्ताद्विभजन्तः (शुचि) पवित्रं शुद्धिकरम् (इत्) एव (अयन्) प्राप्नुवन्ति (दीधितिम्) नीतिप्रकाशम् (उक्थशासः) प्रशंसितशासनाः (क्षाम) पृथिवीम्। क्षामेति पृथिवीनामसु पठितम्। (निघं०१.१) अत्र संहितायामिति दीर्घः। (भिन्दन्तः) विदृणन्तः (अरुणीः) प्राप्ताः प्रजाः (अप) (व्रन्) वृणुयुः ॥१६॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। यो राजा राजपुरुषाश्च प्रजासु पितृवद्वर्त्तित्वा सत्यं न्यायं प्रकाश्याऽविद्यां निवार्य्य प्रजाः शिक्षन्ते ते पवित्रा गण्यन्ते ॥१६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के सदृश वर्त्तमान राजन् ! (यथा) जिस प्रकार से (नः) हम लोगों के (परासः) होनेवाले (प्रत्नासः) हुए (पितरः) उत्पन्न करनेवाले पितृ लोग (शुचि) पवित्र, शुद्धि करनेवाले (ऋतम्) सत्य न्याययुक्त व्यवहार को (आशुषाणाः) सब प्रकार बाँटते और (उक्थशासः) प्रशंसित शासनोंवाले (क्षाम) पृथिवी को (भिन्दन्तः) विदारते हुए (दीधितिम्) नीति के प्रकाश को (अयन्) प्राप्त होते हैं (अध) इसके अनन्तर (अरुणीः) प्राप्त प्रजाओं को (अप) (व्रन्) स्वीकार करें, वैसे (इत्) ही आप हम लोगों में वर्त्ताव करो ॥१६॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजा और राजपुरुष प्रजाओं में पिता के सदृश वर्त्ताव करके सत्य, न्याय का प्रकाश कर और अविद्या को दूर करके प्रजाओं को शिक्षा देते हैं, वे पवित्र गिने जाते हैं ॥१६॥
विषय
पवित्र ज्ञानदीप्ति की ओर
पदार्थ
[१] (अधा) = अब हे (अग्ने) = परमात्मन्! (यथा) = जैसे (न:) = हमारे (पितर:) = पालक लोग (परास:)= उत्कृष्ट जीवनवाले व (प्रत्नासः) = बड़ी उमरवाले (ऋतम्) = यज्ञों का (आशुषाणा:) = अपने में व्यापन करते हुए, अर्थात् यज्ञात्मक कर्मों को करते हुए (इत्) = निश्चय से (शुचि) = पवित्र (दीधितिम्) = ज्ञान की दीप्ति को (अयन्) = प्राप्त होते हैं। हम भी उसी प्रकार इस पवित्र ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करें। [२] (उक्थशास:) = प्रभु के स्तोत्रों का शंसन करनेवाले, (क्षामा) = क्षय के कारणभूत तम [अन्धकार] को (भिन्दन्तः) = विदीर्ण करते हुए, (अरुणी:) = अरुण प्रकाशवाली ज्ञान किरणों को (अपव्रन्) = वासना के आवरण से रहित करते हैं। प्रभु के उपासन से अज्ञानान्धकार का ध्वंस होकर ज्ञान का प्रकाश प्राप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम यज्ञात्मक कर्मों का सेवन करते हुए पवित्र ज्ञानदीप्ति को प्राप्त करें। प्रभु उपासन हमारे अज्ञानान्धकार को समाप्त करे और हमारे जीवन में ज्ञान की किरणों को प्रकाशित करें।
विषय
किरणों के तुल्य विद्वानों का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( यथा ) जिस प्रकार ( पितरः ) जलों का पान करने वाले सूर्य के किरण गण (ऋतम् आशुषाणाः) जल को वाष्परूप से संविभक्त करते हुए ( शुचि दीधितिम् अयन् ) शुद्ध तेज और दीप्ति को प्राप्त करते हैं और ( क्षाम भिन्दन्तः ) अन्धकार को छिन्न भिन्न करते हुए ( अरुणीः ) रक्त वर्ण की उषाओं को ( अपव्रन् ) प्रकट करते हैं, उसी प्रकार (नः) हमारे ( पितरः ) बालक जन ( परासः ) पालन करने में कुशल वा बाद में आये और ( प्रत्नासः ) वृद्ध जन, ( ऋतम् आशुषाणाः) सत्य ज्ञान वेद न्याय और अन्न, जल, धनैश्वर्य का विभाग और दान प्रतिदान वा प्राप्ति करते हुए ( उक्थशासः ) उत्तम वचनों का उपदेश करते हुए ( शुचि इत् अयन् ) शुद्ध ज्ञान और कर्म वा पद को प्राप्त करें और ( दीधितिम् ) सबके धारक और प्रकाशक नायक- को प्राप्त करें। वे ( क्षाम ) पृथिवियों को ( भिन्दन्तः ) अन्न को प्राप्त करने के लिये कृषि वा कूप, कुल्या निर्माणादि द्वारा तोड़ते हुए ( अरुणीः ) उत्तम वाणियों, भूमियों को ( अप व्रन् ) प्रकट करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वामदेव ऋषिः ॥ अग्निदेवता ॥ छन्दः- १, १९ पंक्तिः । १२ निचृत्पंक्तिः । १४ स्वराट् पंक्तिः । २, ४–७, ९, १३, १५, १७, १८, २० निचृत् त्रिष्टुप् । ३, १६ त्रिष्टुप् । ८, १०, ११ विराट् त्रिष्टुप् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजे व राजपुरुष प्रजेशी पित्याप्रमाणे वर्तन करून सत्य न्यायाचा प्रकाश करतात, अविद्या दूर करून प्रजेला शिक्षण देतात, ते पवित्र समजले जातात. ॥ १६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, ruler of light and humanity, let us all together, dedicated to truth and rectitude, rise and shine as did our forefathers, earliest and later ones, and pure and sanctified, singing songs of divine praise, breaking new ground upon the earth, let us rise to the heights of power and discover new lights of existence, and so may rise our future generations too.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
"The duties of a ruler are further stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king you are purifier like the fire. You should deal with us like our excellent and ancient fore-fathers, who distributing true pure and purifying justice from all directions. They administer and admirably dig the earth (for agriculture etc.) receive the light of good policy and make a choice to have good subjects.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The kings and officers of the State are considered to be pure only when they deal with their subjects like their fathers, illuminate truth and justice and dispel the gloom of ignorance and thus educate them well.
Foot Notes
(दीधितिम् ) न्याय प्रकाशम् । दीधितय इति रश्मिनाम (NG 1, 5) अथ सादृश्येन प्रकाशार्थस्य ग्रहणम् । = The light of justice. (अरुणी:) प्राप्ता: प्रजाः । = The subjects that approach.
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