Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 40 के मन्त्र
1 2 3 4 5
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रावा छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    सत्वा॑ भरि॒षो ग॑वि॒षो दु॑वन्य॒सच्छ्र॑व॒स्यादि॒ष उ॒षस॑स्तुरण्य॒सत्। स॒त्यो द्र॒वो द्र॑व॒रः प॑तङ्ग॒रो द॑धि॒क्रावेष॒मूर्जं॒ स्व॑र्जनत् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सत्वा॑ । भ॒रि॒षः । गो॒ऽइ॒षः । दु॒व॒न्य॒ऽसत् । श्र॒व॒स्यात् । इ॒षः । उ॒षसः॑ । तु॒र॒ण्य॒ऽसत् । स॒त्यः । द्र॒वः । द्र॒व॒रः । प॒त॒ङ्ग॒रः । द॒धि॒ऽक्रावा॑ । इष॑म् । ऊर्ज॑म् । स्वः॑ । ज॒न॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सत्वा भरिषो गविषो दुवन्यसच्छ्रवस्यादिष उषसस्तुरण्यसत्। सत्यो द्रवो द्रवरः पतङ्गरो दधिक्रावेषमूर्जं स्वर्जनत् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सत्वा। भरिषः। गोऽइषः। दुवन्यऽसत्। श्रवस्यात्। इषः। उषसः। तुरण्यऽसत्। सत्यः। द्रवः। द्रवरः। पतङ्गरः। दधिऽक्रावा। इषम्। ऊर्जम्। स्वः। जनत् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 2
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः सत्वा भरिषो गविषो दुवन्यसदिष उषसस्तुरण्यसच्छ्रवस्याद्यः सत्यो द्रवो द्रवरः पतङ्गरो दधिक्रावेषमूर्जं स्वश्च जनत् स एव राजा युष्माभिः सत्कर्त्तव्योऽस्ति ॥२॥

    पदार्थः

    (सत्वा) प्रापकः (भरिषः) धारणपोषणचतुरः (गविषः) गा इच्छन् (दुवन्यसत्) परिचरणमिच्छन् (श्रवस्यात्) आत्मनः श्रवणमिच्छेत् (इषः) इच्छाः (उषसः) प्रभातान् (तुरण्यसत्) आत्मनस्तुरणं त्वरणमिच्छन् (सत्यः) सत्सु साधुः (द्रवः) स्निग्धः (द्रवरः) यो द्रवे रमते द्रवान् ददाति वा (पतङ्गरः) यः पतङ्गेऽग्नौ रमते पतङ्गं ददाति वा (दधिक्रावा) धर्त्तव्ययानक्रमिता (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (स्वः) सुखम् (जनत्) जनयेत् ॥२॥

    भावार्थः

    प्रजाजनैर्यो राजा सत्यवादी जितेन्द्रियः सर्वेषां सुखमिच्छुर्न्यायकारी पितृवद्वर्त्तेत स एव प्रजाः पालयितुं शक्नोति ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (सत्वा) प्राप्त करनेवाला (भरिषः) धारण और पोषण में चतुर (गविषः) गौओं की और (दुवन्यसत्) सेवा की इच्छा करता हुआ तथा (इषः) इच्छाओं और (उषसः) प्रातःकालों को (तुरण्यसत्) अपनी शीघ्रता को चाहता हुआ (श्रवस्यात्) अपने श्रवण की इच्छा करे तथा जो (सत्यः) श्रेष्ठों में श्रेष्ठ (द्रवः) स्नेही (द्रवरः) द्रव में रमने वा द्रव अर्थात् गीले पदार्थों को देने और (पतङ्गरः) अग्नि में रमने वा अग्नि को देनेवाला (दधिक्रावा) धारण करने योग्य वाहन पर जाता (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम और (स्वः) सुख को (जनत्) उत्पन्न करे, वही राजा आप लोगों को सत्कार करने योग्य है ॥२॥

    भावार्थ

    प्रजाजनों के साथ जो राजा सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सब के सुख की इच्छा करता हुआ, न्यायकारी पिता के सदृश वर्ताव करे, वही प्रजाओं का पालन कर सकता है ॥२॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    दुवन्यसत्-तुरण्यसत्

    पदार्थ

    [१] (सत्वा) = [सद् गतौ] गतिशील यह (दधिक्रावा) = हमारा धारण करके क्रमण करनेवाला (भरिष:) = हमारे भरण में कुशल है। मन ओजस्वी हो, तो यह शरीर का ठीक धारण करता है । (गविष:) यह मन ज्ञानवाणियों का प्रेरक है। (दुवन्यसत्) = प्रभु के उपासकों में स्थित होता है [दुवन्येषु सीदति] । उपासना की वृत्ति होने पर मन स्थिर हो ही जाता है। उस समय यह हमारा मन (द्रवः) = प्रभु की प्रेरणाओं द्वारा और (उषस:) = [उष दाहे] दोषों के दहन द्वारा (श्रवस्यात्) = ज्ञान की कामना करे। यही मन सर्वश्रेष्ठ होता है। (तुरण्यसत्) = सदा त्वरा से यज्ञादि कर्मों में प्रवृत्त रहनेवालों में यह आसीन होता है। मन को स्थिर करने के दो ही साधन हैं— [क] उपासना, [ख] यज्ञादि कर्मों में लगे रहना । [२] (सत्यः) = [सत्सु तायमानः] उत्तम कर्मों में यह शक्ति के विस्तार को प्राप्त करता है । (द्रवः) = गतिशील होता है । (द्रवरः) = इन्द्रियों को गतिवाला बनाता है [Driver]। (पतङ्गरः) = निम्न गतिवाला होता हुआ हमें निगल जाता है। यदि मन विषयों की ओर चला गया, तो यह विनाश का कारण बनता ही है। विषयों की ओर न गया हुआ यह दधिक्रावा मन (इषम्) = प्रभुप्रेरणा को, (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति को तथा (स्वः) = प्रकाश को जनत् उत्पन्न करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- वशीभूत मन 'प्रभुप्रेरणाप्राणशक्ति व प्रकाश' को प्राप्त कराता है।

    इस भाष्य को एडिट करें

    विषय

    पक्षान्तर में परमेश्वर के गुण स्तवन ।

    भावार्थ

    परमेश्वर और राजा के समान गुण हैं । वह प्रभु परमेश्वर (सत्वा) सर्वव्यापक, (भरिषः) सबको धारण पोषण करने वाला, (गविषः) ज्ञान वाणियों को प्रेरणा करने वाला, (दुवन्यसत्) अपने और सेवक भक्तजनों को चाहने वाला (तुरण्यसत्) अति वेग से जाने वाले विद्युत् प्रकाशादि पदार्थों में भी व्यापक है, वह (इषः) अन्नों वृष्टियों और (उषसः) प्रभात वेलाओं के सूर्य के तुल्य (इषः) समस्त कामना और (उषसः) पापनाशक, ज्ञान प्रकाशों को प्रदान करे । वह (सत्यः) समस्त सत् कारणों में विद्यमान, सत्य स्वरूप (द्रवः) सर्व व्यापक, रस के समान सब में बहता हुआ, (द्रवरः) समस्त द्रव पदार्थों वा स्नेहादि रसों का भी प्रदाता, (पतङ्गरः) सदा गतिशील वायु, अग्नि आदि में भी शक्ति को देने वाला, (दधिक्रावा) जगत् के धारक तत्वों का चलाने और सबको स्वयं धारण कर समस्त जगत् को चलाने वाला है । वह हमें (इषम्) अन्न, उत्तम इच्छा (ऊर्जम्) बल और (स्वः) सुख और परम उपदेश (जनत्) उत्पन्न करे । (२) राजा (सत्वा) बलवान्, प्रजा पालक, भूमियों का शासक, सेवकों के बीच स्थित (इषः) सेनाओं और चाहने वाली उत्तम प्रजाओं को वेग से चलाने वाला, (सत्यः) सज्जनों में सर्वोत्तम, सत्य न्यायपरायण (द्रवरः) दयार्द्र, (द्रवरः) सेह से दान देने वाला, (पतङ्गरः) वायु वा अग्निवत् प्रकाश वा जीवन का दाता, (दधिक्रावाः) धारक अध्यक्षों का सञ्चालक हो । वह (इम् ऊर्जं स्वः जनत्) राष्ट्र में अन्न, बल और सुख शान्ति उत्पन्न करे ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ १-४ दधिक्रावा। ५ सूर्यश्च देवता॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    मराठी (1)

    भावार्थ

    जो राजा प्रजेशी सत्यवादी, जितेन्द्रिय, सर्वांच्या सुखाची इच्छा करणाऱ्या न्यायकारी पित्याप्रमाणे वर्तन करतो तोच प्रजेचे पालन करू शकतो. ॥ २ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Dadhikrava, cosmic energy, potent and omnipresent, all sustaining, all inspiring of sense and mind, responsive to the dedicated enquirer, acting fast in foods, power sources and light of the dawns, true and imperishable, dynamic, flowing, heating, flying, may respond and create food, energy and the joy of life.

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top