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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - दधिक्रावा छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    उ॒त स्मा॑स्य॒ द्रव॑तस्तुरण्य॒तः प॒र्णं न वेरनु॑ वाति प्रग॒र्धिनः॑। श्ये॒नस्ये॑व॒ ध्रज॑तो अङ्क॒सं परि॑ दधि॒क्राव्णः॑ स॒होर्जा तरि॑त्रतः ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । स्म॒ । अ॒स्य॒ । द्रव॑तः । तु॒र॒ण्य॒तः । प॒र्णम् । न । वेः । अनु॑ । वा॒ति॒ । प्र॒ऽग॒र्धिनः॑ । श्ये॒नस्य॑ऽइव । ध्रज॑तः । अ॒ङ्क॒सम् । परि॑ । द॒धि॒ऽक्राव्णः॑ । स॒ह । ऊ॒र्जा । तरि॑त्रतः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत स्मास्य द्रवतस्तुरण्यतः पर्णं न वेरनु वाति प्रगर्धिनः। श्येनस्येव ध्रजतो अङ्कसं परि दधिक्राव्णः सहोर्जा तरित्रतः ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत। स्म। अस्य। द्रवतः। तुरण्यतः। पर्णम्। न। वेः। अनु। वाति। प्रऽगर्धिनः। श्येनस्यऽइव। ध्रजतः। अङ्कसम्। परि। दधिऽक्राव्णः। सह। ऊर्जा। तरित्रतः ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    यो जनोऽङ्कसं ध्रजतः प्रगर्धिनः श्येनस्येवोर्जा तरित्रतो दधिक्राव्णोऽस्योत द्रवतस्तुरण्यतः पर्णं न वेर्न राज्ञः पर्णं स्म पर्य्यनुवाति तेन सह सर्वेऽमात्या मन्त्रयन्तु ॥३॥

    पदार्थः

    (उत) अपि (स्म) एव (अस्य) (द्रवतः) धावतः (तुरण्यतः) सद्यो गच्छतः (पर्णम्) प्रजापालनम् (न) इव (वेः) पक्षिणः (अनु) (वाति) अनुगच्छति (प्रगर्धिनः) प्रलुब्धस्य (श्येनस्येव) (ध्रजतः) वेगेन धावतः (अङ्कसम्) लक्षणम् (परि) सर्वतः (दधिक्राव्णः) धर्त्तृधरस्य वायोः (सह) (ऊर्जा) पराक्रमेण (तरित्रतः) अध्वनस्तरिता ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः । हे मनुष्या ! यस्य राज्ञः श्येनेव सेना पराक्रमिणी वर्त्तते स तया प्रजापालनं कृत्वा दस्यून्निवारयेत् ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    जो जन (अङ्कसम्) लक्षण का (ध्रजतः) वेग से जाते हुए (प्रगर्धिनः) अत्यन्त लोभी (श्येनस्येव) वाज पक्षी के सदृश (ऊर्जा) पराक्रम से (तरित्रतः) मार्ग के पार उतारने और (दधिक्राव्णः) धारण करनेवाले की धारणा करनेवाले वायु (अस्य, उत) और इस (द्रवतः) दौड़ते तथा (तुरण्यतः) शीघ्र चलते हुए की (पर्णम्) प्रजापालना के (न) सदृश और (वेः) पक्षी के सदृश राजा की प्रजापालना के (स्म) ही (परि) सब प्रकार (अनु, वाति) पीछे चलता है उसके (सह) साथ मन्त्री जन सम्मति करें ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । हे मनुष्यो ! जिस राजा की वाज पक्षिणी के सदृश सेना पराक्रमवाली है, वह उसके द्वारा प्रजा का पालन करके डाकू चोरों का निवारण करे ॥३॥

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    विषय

    बहिर्मुखी मन व अन्तर्मुखी मन

    पदार्थ

    [१] (उत) = और (स्म) = निश्चय से (द्रवतः) = गति करते हुए (तुरण्यतः) = त्वार से कर्मों में व्याप्त होते हुए (प्रगर्धिन:) = भौतिक वस्तुओं की लालसावाले इस मनरूपी पक्षी का (पर्णम्) = पंख (वेः न) = पक्षी के पंख के समान ही (अनुवाति) = गतिवाला होता है। उस समय भौतिक विषयों की ओर गया हुआ यह मन अत्यन्त चञ्चल होता है। [२] इस (ऊर्जा सह) = बल व प्राणशक्ति के साथ (तरित्रतः) = संसार सागर को तैरनेवाले (अंकसं परि ध्रजत:) = [अंकस् the body] शरीर की ओर गति करते हुए, विषय वासनाओं से निवृत्त होकर अन्तर्मुखी होते हुए (दधिक्राव्णः) = मन का (वर्णम्) = पालनात्मक कर्म (श्येनस्य इव) = श्येन की तरह होता है-शंसनीय गतिवाले पक्षी की तरह होता है। श्येन जैसे अपने शत्रुओं का विनाश कर डालता है, इसी प्रकार यह प्रत्याहृत होता हुआ मन सब शत्रुओं का विनाश करता है। आसुरभावनाओं के विनाश से हमारा मन प्रशंसनीय गतिवाला हो जाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– विषयाभिलाषी मन तीव्र गति से इधर-उधर भटकता है। भवसागर को तैरने की कामनावाला मन शरीर की ओर लौटता है और आसुरभावों को विनष्ट करके प्रशंसनीय होता है।

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    विषय

    वेगवान् बाणवत् और वाज़ पक्षी के तुल्य सेनापति ।

    भावार्थ

    (तुरण्यतः वेः पर्णं न) जिस प्रकार वेग से जाने वाले पक्षी वा वाण का पंख उसके पीछे वायु वेग से जाते हैं उसी प्रकार (अस्य) इस (द्रवतः) वेग से शत्रु पर चढ़ाई करते हुए (तुरण्यतः) अति शीघ्रगामी अश्वों से आगे बढ़ते हुए, (प्रगर्धिनः) अति उत्तमता से राष्ट्र को लेने की कांक्षा करते हुए (वेः) कान्तिमान तेजस्वी इस राजा के (उत स्म) भी (पर्णम् अनु वाति) अनुकूल पालक बल, सैन्य आदि चले । (ध्रजतः श्येनस्य इव अङ्कसं) वेग से जाते हुए श्येन के जिस प्रकार छाती के ऊपर (पर्णम्) पंख चिपट जाते हैं उसी प्रकार (श्येनस्य) प्रशंसनीय प्रयाण करने वाले वा उत्तम आचरणशील (ध्रजतः) वेग से आगे बढ़ते हुए, (दधिक्राव्णः) धारक पोषकों के सञ्चालक और (ऊर्जा सह) बल पूर्वक (तरित्रतः) स्वयं पार हो जाने और राष्ट्र को भी संकट से पार उतारने वाले पुरुष के (अंकसं परि) लक्षणानुसार, पदानुसार ही (पर्णं) पालक बल सैन्यादि हों (२) इसी प्रकार (द्रवतः प्रगर्धिनः वे पर्णं अनु वाति) शरीर से शरीरान्तर में जाने वाले कामनाशील जीव के ‘पर्णं’ गमन साधन, कर्म, धर्माधर्म उसके साथ जाता है । (ऊर्जा सह तरित्रतः) ब्रह्म ज्ञान के साथ संसार बन्धनों से पार उतरते हुए के (श्येनस्य ध्रजतः) अति वेग से जाने वाले ज्ञानी पुरुष का (अङ्कसं परि) ज्ञान सर्वोपरि रहता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ १-४ दधिक्रावा। ५ सूर्यश्च देवता॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! ज्या राजाची सेना श्येन पक्षिणीप्रमाणे पराक्रमी असते त्याने त्याद्वारे प्रजेचे पालन करून दुष्ट चोरांचे निवारण करावे. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    And like the wings of an arrow, everything follows the curves and waves of the motion of this Dadhikra, cosmic energy, flowing, running, accelerating, flying, driving and pressing forward like an eagle, and traversing the spaces with terrific power and velocity.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler and his subjects are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Let all ministers have consultations with the king who is quick in taking decision. Greedy hawk going towards its target, covers the path with vigor like the wind or like the feathers of a bird. Such a king is always engaged in cherishing to serve his subjects well.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Let a king, whose army is strong and energetic like a hawk, protect his subjects and finish all the thieves things and robbers from his state.

    Foot Notes

    (पर्णम् ) प्रजापालनम् । = Sustaining or or cherishing the subjects. (अङ्कसम् ) लक्षणम् । = Goal, target or destination. (दधिक्राव्णः ) धर्त्तुधरस्य वायोः । = Of the wind which is upholder of those who sustain all.

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