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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - सूर्यः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    हं॒सः शु॑चि॒षद्वसु॑रन्तरिक्ष॒सद्धोता॑ वेदि॒षदति॑थिर्दुरोण॒सत्। नृ॒षद्व॑र॒सदृ॑त॒सद्व्यो॑म॒सद॒ब्जा गो॒जा ऋ॑त॒जा अ॑द्रि॒जा ऋ॒तम् ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हं॒सः । शु॒चि॒ऽसत् । वसुः॑ । अ॒न्त॒रि॒क्ष॒ऽसत् । होता॑ । वे॒दि॒ऽसत् । अति॑थिः । दु॒रो॒ण॒ऽसत् । नृ॒ऽसत् । व॒र॒ऽसत् । ऋ॒त॒ऽसत् । व्यो॒म॒ऽसत् । अ॒प्ऽजाः । गो॒ऽजाः । ऋ॒त॒ऽजाः । अ॒द्रि॒ऽजाः । ऋ॒तम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हंसः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसत्। नृषद्वरसदृतसद्व्योमसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा ऋतम् ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हंसः। शुचिऽसत्। वसुः। अन्तरिक्षऽसत्। होता। वेदिऽसत्। अतिथिः। दुरोणऽसत्। नृऽसत्। वरऽसत्। ऋतऽसत्। व्योमऽसत्। अप्ऽजाः। गोऽजाः। ऋतऽजाः। अद्रिऽजाः। ऋतम् ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! यः शुचिषद्वसुरन्तरिक्षसद्धोता वेदिषदतिथिर्दुरोणसन्नृषद्वरसद् व्योमसदृतसदब्जा गोजा ऋतजा अद्रिजा हंस ऋतमाचरति स एव जगदीश्वरप्रियो भवति ॥५॥

    पदार्थः

    (हंसः) यो हन्ति पापानि सः (शुचिषत्) यः शुचिषु पवित्रेषु सीदति (वसुः) यः शरीरादिषु वसति (अन्तरिक्षसत्) योऽन्तरिक्ष आकाशे वा सीदति (होता) दाता आदाता वा (वेदिषत्) यो वेद्यां सीदति (अतिथिः) अनियततिथिः (दुरोणसत्) यो दुरोणे गृहे सीदति (नृषत्) यो नरेषु सीदति (वरसत्) यो वरेषु श्रेष्ठेषु सीदति (ऋतसत्) यः सत्ये सीदति (व्योमसत्) यो व्योम्नि सीदति (अब्जाः) योऽद्भ्यो जातः (गोजाः) यो गोषु पृथिव्यादिषु जातः (ऋतजाः) यः सत्याज्जातः (अद्रिजाः) योऽद्रेर्मेघाज्जातः (ऋतम्) ॥५॥

    भावार्थः

    ये जीवाः शुभगुणकर्मस्वभावा ईश्वराज्ञानुकूला वर्त्तन्ते त एव परमेश्वरेण सहाऽऽनन्दं भुञ्जत इति ॥५॥ अत्र राजप्रजाकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥५॥ इति चत्वारिंशत्तमं सूक्तं चतुर्दशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (शुचिषत्) पवित्रों में स्थित होने (वसुः) शरीरादिकों में रहने (अन्तरिक्षसत्) अन्तरिक्ष वा आकाश में स्थित होने (होता) दान वा ग्रहण करने और (वेदिषत्) वेदी पर स्थित होनेवाला (अतिथिः) जिसकी कोई तिथि नियत न हो वह (दुरोणसत्) गृह में (नृषत्) मनुष्यों में (वरसत्) श्रेष्ठों में (व्योमसत्) अन्तरिक्ष में (ऋतसत्) और सत्य में स्थित होनेवाला (अब्जाः) जलों से उत्पन्न (गोजाः) वा पृथिवी आदिकों में उत्पन्न (ऋतजाः) तथा सत्य से और (अद्रिजाः) मेघों से उत्पन्न हुआ (हंसः) पापों को हन्ता है और (ऋतम्) सत्य का आचरण करता है, वही जगदीश्वर का प्रिय होता है ॥५॥

    भावार्थ

    जो जीव उत्तम गुण, कर्म और स्वभाववाले ईश्वर की आज्ञा के अनुकूल वर्त्ताव करते हैं, वे ही परमेश्वर के साथ आनन्द को भोगते हैं ॥५॥ इस सूक्त में राजा और प्रजा के कृत्यों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥५॥ यह चालीसवाँ सूक्त और चौदहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रभुदर्शन

    पदार्थ

    [१] गतमन्त्र का मार्ग से न भ्रष्ट होनेवाला 'मन' प्रभु को देखता है और कह उठता है कि वे प्रभु ही (हंसः) = [हन्ति पाप्मानं] सब पापों को नष्ट करते हैं और (शुचिषद्) = पवित्र हृदय में आसीन होते हैं। वसुः वे ही सबको वसानेवाले हैं और (अन्तरिक्षसद्) = [अन्तरिक्ष] मध्यमार्ग में आसीन होते हैं, अर्थात् मध्यमार्ग में चलनेवाले पुरुष को प्राप्त होते हैं। (होता) = वे ही वस्तुतः सब यज्ञादि कर्मों को करनेवाले हैं और (वेदिषत्) = यज्ञवेदि में आसीन होते हैं। (अतिथि:) = निरन्तर गतिवाले वे प्रभु (दुरोणसत्) = हमारे निर्मल शरीरगृहों में [दुर् ओण्] स्थित होते हैं। [२] (नृषत्) = निरन्तर आगे बढ़नेवालों में वे स्थित होते हैं। (वरसद्) = श्रेष्ठों में स्थित होते हैं। (ऋतसद्) = सत्यकर्मा पुरुषों में स्थित होते हैं। (व्योमसद्) = [वी+ओम्, वी गतौ अव रक्षणे] गति द्वारा वासनाओं के आक्रमण से अपने को बचानेवालों में ये प्रभु स्थित होते हैं । [३] (अब्जा:) = [अप्सु जायते] नदियों के निरन्तर बहते हुए जलों में प्रभु की महिमा का प्रादुर्भाव होता है । (गोजा:) = इस पृथिवी में [पुण्यगन्ध के रूप में] प्रभु प्रादुर्भूत होते हैं। (ऋतजाः) = सृष्टि के अटल नियमों में [ऋत right] प्रभु का प्रादुर्भाव हो रहा है। (अद्रिजा:) = पर्वतों के अद्भुत दृश्यों में प्रभु दिखते हैं । (ऋतम्) = वे प्रभु स्वयं ऋत हैं- सत्यस्वरूप हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- शुद्ध हृदय होकर हम 'हंस' के रूप में प्रभु का दर्शन करें। यह प्रभुदर्शन हमारे सब पापों को नष्ट करे। अगले सूक्त में 'इन्द्र व वरुण' के नाम से प्रभु का आराधन है -

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    विषय

    आत्मा का वर्णन ।

    भावार्थ

    वह आत्मा कैसा है । (हंसः) हंस के समान नीर क्षीरवत् सत्यासत्य का विवेकी और स्वयं बन्धनों का नाशक, (शुचि-सद्) शुद्धस्वरूप में विद्यमान, (अन्तरिक्ष-सत्) वायु के तुल्य अन्तरिक्ष या अन्तरात्मा चित्त के भी भीतर विद्यमान, (होता) सुख दुःखों का भोक्ता, (वेदिषद्) वेदि में होता के तुल्य सुख दुःख प्राप्त कराने वाली देह भूमि में विराजमान, (अतिथिः) अतिथि के समान घर से घर में घूमने वाले परिव्राजकवत्, (दुरोण-सद्) गृह में गृहपति के तुल्य विराजने वाला, (नृ-सद्) नायकों में मुख्याध्यक्ष के तुल्य देह के नेता प्राणगण में विराजमान, (वर-सद्) वरण करने योग्य अन्न के तुल्य परम श्रेष्ठ ब्रह्म में विराजमान, (व्योम-सद्) आकाश में स्थित सूर्य वा वायु के तुल्य, विविध रक्षा से युक्त परमेश्वर की शरण में विद्यमान, (अब्जाः) जलों में अनायास प्रकट कमलवत् प्राणों में शक्ति रूप से प्रकट, (गोजाः) गौओं में गो-रस और किरणों में प्रकाश के तुल्य ज्ञानेन्द्रियों में ज्ञान रूप से प्रकट, (ऋतजाः) सत्य में स्थित, (अद्रिजाः) मेघों में जलवत् अखण्ड ब्रह्म में स्थित, स्वयं (ऋतम्) अन्न के तुल्य ज्ञानमय ब्रह्म का लाभ करे । इति चतुर्दशो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वामदेव ऋषिः॥ १-४ दधिक्रावा। ५ सूर्यश्च देवता॥ छन्दः– १ निचृत् त्रिष्टुप्। २ त्रिष्टुप्। ३ स्वराट् त्रिष्टुप्। ४ भुरिक् त्रिष्टुप्। ५ निचृज्जगती ॥ पञ्चर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे जीव उत्तम गुण, कर्म, स्वभावयुक्त असून ईश्वराच्या आज्ञेनुकूल वर्तन करतात तेच परमेश्वराजवळ आनंद भोगतात. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Hansa, the divine bird, soul unpolluted, resides in purity in biological forms in the skies, and, as yajnic doer, sits on the vedi in family home among people, the best ones, and rises up to the heights of heavens. It is born of the waters on the earth from the Law of existence and from the clouds. That is the truth, the Law.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of a ruler and his subjects are described.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! the destroyer of sins is dear to God, and He dwells in pure places, is the master of the body, dwelling within, and dwells in the firmament in aero planes and seated on the altar etc. Such an accepter of good virtues and liberal donor, goes from place to place as a guest, dwelling in his host's house like a good companion for their welfare, and always abides in truth. Such a ruler is bora of water (and other four elements) and lives close to God who pervades the sky. Born on earth and from the cloud and renowned for truth, such a king always observes truth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The souls, who obey the commands of God, are being endowed with good minds, actions and temperament and enjoy bliss with God.

    Foot Notes

    (हंसः ) यो हन्ति पापानि स: । = Soul which destroys all sins. (दुरोणसत्) यो दुरोणे गृहे सीदति । दुरोणे इति गृहनाम (NG 3,4) = Dwelling in the house. (वसुः) य: शरीरादिषु वसति । = Dwelling in the body etc. (होता) दाता प्रदाता वा । हु-दानादनयोः आदाने च ( जुहो० ) । = Liberal donor or accepter of good virtues.

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