ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 44/ मन्त्र 2
ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ
देवता - अश्विनौ
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यु॒वं श्रिय॑मश्विना दे॒वता॒ तां दिवो॑ नपाता वनथः॒ शची॑भिः। यु॒वोर्वपु॑र॒भि पृक्षः॑ सचन्ते॒ वह॑न्ति॒ यत्क॑कु॒हासो॒ रथे॑ वाम् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठयु॒वम् । श्रिय॑म् । अ॒श्वि॒ना॒ । दे॒वता॑ । तान् । दिवः॑ । न॒पा॒ता॒ । व॒न॒थः॒ । शची॑भिः । यु॒वोः । वपुः॑ । अ॒भि । पृक्षः॑ । स॒च॒न्ते॒ । वह॑न्ति । यत् । क॒कु॒हासः॑ । रथे॑ । वा॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवं श्रियमश्विना देवता तां दिवो नपाता वनथः शचीभिः। युवोर्वपुरभि पृक्षः सचन्ते वहन्ति यत्ककुहासो रथे वाम् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठयुवम्। श्रियम्। अश्विना। देवता। ताम्। दिवः। नपाता। वनथः। शचीभिः। युवोः। वपुः। अभि। पृक्षः। सचन्ते। वहन्ति। यत्। ककुहासः। रथे। वाम् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 44; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे दिवो नपाता देवताश्विना ! युवं शचीभिः तां श्रियं वनथो यद्यां वां रथे युवोः पृक्षो वपुरभि सचन्ते ककुहासो वहन्ति ॥२॥
पदार्थः
(युवम्) युवाम् (श्रियम्) लक्ष्मीम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (देवता) दिव्यगुणसम्पन्नौ (ताम्) (दिवः) द्युलोकस्य (नपाता) पातरहितौ (वनथः) संसेवेथाम् (शचीभिः) प्रज्ञाभिः (युवोः) युवयोः (वपुः) शरीरम् (अभि) आभिमुख्ये (पृक्षः) सम्पर्कः (सचन्ते) सम्बध्नन्ति (वहन्ति) (यत्) याम् (ककुहासः) सर्वा दिशः (रथे) (वाम्) युवयोः ॥२॥
भावार्थः
ये विद्वांसः प्रज्ञां प्राप्याऽन्येभ्यो ददति ते सर्वासु दिक्षु पूज्या भवन्ति ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (दिवः) द्रष्टव्य अत्यन्त सुख के (नपाता) पतन से रहित (देवता) दिव्यगुणसम्पन्न (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (युवम्) आप दोनों (शचीभिः) बुद्धियों से (ताम्) उस (श्रियम्) लक्ष्मी का (वनथः) सेवन करो (यत्) जिसको (वाम्) आप दोनों के (रथे) वाहन में (युवोः) आप दोनों के (पृक्षः) सम्बन्ध और (वपुः) शरीर को (अभि) सम्मुख (सचन्ते) सम्बन्धयुक्त करती (ककुहासः) सम्पूर्ण दिशा (वहन्ति) प्राप्त होती हैं ॥२॥
भावार्थ
जो विद्वान् जन बुद्धि को प्राप्त होकर अन्य जनों के लिये देते हैं, वे सम्पूर्ण दिशाओं में पूजने अर्थात् सत्कार करने योग्य होते हैं ॥२॥
विषय
श्रीसम्पन्नता
पदार्थ
[१] हे (दिवः नपाता) = ज्ञान को न नष्ट होने देनेवाले, (देवता) = [देवते] दिव्यगुणोंवाले (अश्विना) = प्राणापानो! (युवम्) = आप (शचीभिः) = अपने कर्मों व प्रज्ञानों द्वारा (तां श्रियम्) = उस प्रसिद्ध श्री [शोभा] को (वनथ:) = विजय करते हो [Win]। प्राणापान ही कर्मेन्द्रियों से कर्म करते हैं तथा ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञान प्राप्त करते हैं। इस प्रकार ये शरीर को शोभासम्पन्न करते हैं। [२] (युवो) = आप दोनों के इस (वपुः) = शरीर को (पृक्षः) = सात्त्विक अन्न (अभिसचन्ते) = प्रातः सायं सेवन करते हैं। [अभि-दिन के दोनों ओर प्रातः सायम्] । यह सब तब होता है, (यत्) = जब कि (वाम्) = आप दोनों को (ककुहास:) = [महन्नाम नि० ३।७] महान् इन्द्रियाश्व (रथे) = इस शरीररथ में (वहन्ति) = धारण करते हैं। शरीर में प्राणसाधना होने पर ही अन्न का पाचन हुआ करता है।
भावार्थ
भावार्थ– प्राणसाधना से शरीर श्रीसम्पन्न बनता है। प्राणसाधना से ही अन्न का ठीक से पाचन होता है।
विषय
जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (दिवः नपाता) परस्पर की कामना से एक दूसरे को बांधने वालो ! वा हे ज्ञान और परस्पर कामना को न गिरने देने वाले सदाप्रिय स्त्री पुरुषो, दम्पति जनो ! हे (अश्विना) अश्ववत् इन्द्रियों के स्वामी, जितेन्द्रिय ! स्त्री पुरुषो ! तुम दोनों (देवता) दिव्य गुणों से युक्त, लेन देन, परस्पर इच्छा पूर्ति आदि कार्यों में कुशल होकर (शचीभिः) अपनी शक्तियों से (तां) उस (श्रियम्) लक्ष्मी को (वनथः) प्राप्त करो और (यत्) जब (ककुहासः) उत्तम अश्व (रथे) रथ में लगाकर (वां वहन्ति) तुम दोनों को वहन करते हैं वा उत्तम श्रेष्ठ जन वा सर्वं दिशावासी जन तुमको (रथे) रमणीय कार्य में धारण करें तब (पृक्षः) अन्नादि से तुल्य आपस के उत्तम सम्पर्क, सम्बन्ध, स्नेह आदि (युवोः) तुम दोनों के (वपुः) शरीरों को (सचन्ते) सुखकर हों ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पुरुमीळ्हाजमीळहौ सौहोत्रावृषी। अश्विनौ देवते । छन्द:- १, ३, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जे विद्वान लोक बुद्धी प्राप्त करून इतरांना देतात ते दशदिशांमध्ये पूजनीय ठरतात. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Ashvins, children of light, infallible and imperishable, generous and brilliant divinities, with your intelligence, power and expertise, you win that treasure of wealth which the spaces conduct and concentrate in your chariot and thereby provide food and nourishment for your body and mind.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of technology is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O teachers and preachers ! you are endowed with divine nature and are guardian of the light (lit. not allowing the light to put out or extinguish). You attain that glory with your good intellect and complete. You take good and nourishing food and go to all directions in your chariot for growth of your body.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
The enlightened persons having obtained wisdom, give it to others, and let them become thoroughly venerable.
Foot Notes
(ककुहासः) सर्वा दिशः । कुकुभ इति दिङ्नाम (NG 1, 6 ) । कुकुह इति महन्नाम (NG 3, 3 ) ककुहास: महत्यो विशाला दिशः । = All directions. (वपुः ) शरीरम् । वपुरिति रूपनाम (NG 3, 7) सुरूपशरीरम् । = Body.
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