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ऋग्वेद मण्डल - 4 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 4/ सूक्त 44/ मन्त्र 3
    ऋषिः - पुरुमीळहाजमीळहौ सौहोत्रौ देवता - अश्विनौ छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    को वा॑म॒द्या क॑रते रा॒तह॑व्य ऊ॒तये॑ वा सुत॒पेया॑य वा॒र्कैः। ऋ॒तस्य॑ वा व॒नुषे॑ पू॒र्व्याय॒ नमो॑ येमा॒नो अ॑श्वि॒ना व॑वर्तत् ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कः । वा॒म् । अ॒द्य । का॒र॒ते॒ । रा॒तऽह॑व्यः । ऊ॒तये॑ । वा॒ । सु॒त॒ऽपेया॑य । वा॒ । अ॒र्कैः । ऋ॒तस्य॑ । वा॒ । व॒नुषे॑ । पू॒र्व्याय॑ । नमः॑ । ये॒मा॒नः । अ॒श्वि॒ना॒ । आ । व॒व॒र्त॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    को वामद्या करते रातहव्य ऊतये वा सुतपेयाय वार्कैः। ऋतस्य वा वनुषे पूर्व्याय नमो येमानो अश्विना ववर्तत् ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    कः। वाम्। अद्य। करते। रातऽहव्यः। ऊतये। वा। सुतऽपेयाय। वा। अर्कैः। ऋतस्य। वा। वनुषे। पूर्व्याय। नमः। येमानः। अश्विना। आ। ववर्तत् ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 4; सूक्त » 44; मन्त्र » 3
    अष्टक » 3; अध्याय » 7; वर्ग » 20; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे अश्विनाऽद्या वां को रातहव्य ऊतये वाद्या सुतपेयाय करते वाऽर्कैः सत्करोति वर्त्तस्य पूर्व्याय नमो ददाति अनुकूलो आ ववर्त्तत् तद्ये येमानः सत्कुर्वन्ति तान् युवां सत्कुर्य्यातम्। हे विद्वन् ! यतस्त्वमाभ्यां विद्यां वनुषे तस्मादेतौ सततं सत्कुरु ॥३॥

    पदार्थः

    (कः) (वाम्) युवाम् (अद्या) अस्मिन्नहनि (करते) करोति (रातहव्यः) दत्तदातव्यः (ऊतये) रक्षणाद्याय (वा) (सुतपेयाय) निष्पन्नरसपातव्याय (वा) (अर्कैः) सत्कारैः (ऋतस्य) सत्यस्य (वा) (वनुषे) याचसे (पूर्व्याय) पूर्वेषु कुशलाय (नमः) अन्नम् (येमानः) नियच्छन्तः (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (आ) (ववर्त्तत्) वर्त्तते ॥३॥

    भावार्थः

    हे अध्यापकोपदेशकौ ! ये युवां सत्कुर्य्युस्तान् सुशिक्षितान् सभ्यान् सम्पादयतम्, येभ्यो विद्यां ग्राहयतं तान् सततं पूजयतं च ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जनो ! (अद्या) आज (वाम्) आप दोनों को (कः) कौन (रातहव्यः) देने योग्य को दिये हुए (ऊतये) रक्षण आदि के लिये (वा) वा आज (सुतपेयाय) उत्पन्न जो पीने योग्य रस उसके लिये (करते) करता अर्थात् प्रयत्नयुक्त करता (वा) वा (अर्कैः) सत्कारों से सत्कार करता (वा) वा (ऋतस्य) सत्य के सम्बन्ध में (पूर्व्याय) प्राचीन जनों में चतुर के लिये (नमः) अन्न को देता और अनुकूल हुआ (आ, ववर्त्तत्) वर्त्ताव करता है, उसका (येमानः) जो नियम करते हुए सत्कार करते हैं, उनका आप दोनों सत्कार करें । और हे विद्वन् ! जिस कारण आप इन दोनों से विद्या को (वनुषे) माँगते हो, इससे इन दोनों का निरन्तर सत्कार करो ॥३॥

    भावार्थ

    हे अध्यापक और उपदेशक जनो ! जो आप दोनों का सत्कार करें, उनको उत्तम प्रकार शिक्षित और सभ्य अर्थात् सभा के योग्य करो और जिनसे विद्या का ग्रहण कराओ, उनका निरन्तर सत्कार भी करो ॥३॥

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    विषय

    ऊतये-सुतपेयाय

    पदार्थ

    [१] हे (अश्विना) = प्राणापानो! (कः) = कोई विरल पुरुष ही (रातहव्यः) = दिये हैं हव्य पदार्थ जिसने, अर्थात् जो यज्ञशील है, वह (ऊतये) = रक्षण के लिए (वा) = तथा (सुतपेयाय) = सोमपान के लिए (वाम्) = आपकी (अद्या) = आज (अर्कैः) = स्तुति मन्त्रों से करते-आराधना करता है। स्तुति मन्त्रों का उच्चारण करते हुए प्राणापान की साधना से जहाँ वासनाओं के आक्रमण से हमारा बचाव होता है, वहाँ शरीर में सोम का रक्षण होता है। हमारी वृत्ति यज्ञों की ओर होती है भोगप्रवृत्ति से हम दूर होते हैं । [२] कोई विरल व्यक्ति ही (नमः येमानः) = नम्रता को अपने अन्दर धारण करता हुआ (ऋतस्य) = ऋत के-सत्य के (पूर्व्याय वनुषे) = [सर्वमुख्य विजय] सर्वोत्तम के लिए (अश्विना) = प्राणापानों को (आवर्ततत्) = आवृत्त करता है। प्राणायाम करता हुआ अपने अन्दर सत्य को धारण करता है।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्राणसाधना द्वारा शरीर का रक्षण होता है, सोम का शरीर में व्यापन होता है और ॠत का हम विजय कर पाते हैं ।

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    विषय

    जितेन्द्रिय स्त्री पुरुष के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अश्विना) जितेन्द्रिय स्त्री पुरुषो ! (वाम्) तुम दोनों में से (अद्य) आज (कः) कौन (रातहव्यः) दान देने योग्य अन्नादि उपभोग, और उत्पन्न पुत्रादि के पालन के लिये (करते) यत्न करता है। (ऋतस्य) सत्य ज्ञान, बल, धनादि के (पूर्व्याय) पूर्व विद्वानों से निर्धारित किये (वनुषे) विभाग और सेवन के लिये (कः) कौन (करते) यत्न करता है और (कः येमानः) कौन यम नियम पालक आप दोनों को या आप दोनों में से (नमः आ ववर्तत्) उत्तम अन्न, आदि का व्यवहार करे। वह परस्पर के कर्त्तव्य अवश्य जानते रहो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    पुरुमीळ्हाजमीळहौ सौहोत्रावृषी। अश्विनौ देवते । छन्द:- १, ३, ६, ७ निचृत् त्रिष्टुप् । २ त्रिष्टुप् । ५ विराट् त्रिष्टुप् । भुरिक् पंक्तिः ॥ सप्तर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे अध्यापक व उपदेशकांनो ! जे तुमचा सत्कार करतात त्यांना उत्तम प्रकारे शिक्षित करून सभ्य करा व ज्यांच्याकडून विद्येचे ग्रहण केले जाते त्यांचा निरंतर सत्कार करा. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Ashvins, who with the offer of homage today directs his thoughts and prayers to you for the sake of protection and advancement, or for the drink of soma in celebration of success, or to learn and win the truth of eternal Dharma of existence, Rtam? Who with salutations and liberal hospitality prays for favour of your attention toward him?

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of teachers and preachers is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers ! who are the liberal donor who honor today for protection or for the drink of good juice of soma etc.? Who is it that shows respect to you? Who are expert knowers of truth by offering good and dealing with you with reverence? Those persons of self-control who honor you, you should also duly return honor to them. O learned person! as you beg (pray for) knowledge from these teachers and preachers, you should always honor them.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O teachers and preachers! it is your positive duty to make all highly educated and civilized who, honor you. You should respect the persons from whom you receive knowledge or make others receive it.

    Foot Notes

    (वनुषे) याचसे । वनु-याचने (तना० ) । = Beg. pray for. (अर्कै:) सत्कारैः । = With honor. (नमः) अन्नम् । नम इत्यन्ननाम (NG 2, 7)। = Food.

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