ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 43/ मन्त्र 10
आ नाम॑भिर्म॒रुतो॑ वक्षि॒ विश्वा॒ना रू॒पेभि॑र्जातवेदो हुवा॒नः। य॒ज्ञं गिरो॑ जरि॒तुः सु॑ष्टु॒तिं च॒ विश्वे॑ गन्त मरुतो॒ विश्व॑ ऊ॒ती ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठआ । नाम॑ऽभिः । म॒रुतः॑ । व॒क्षि॒ । विश्वा॑न् । आ । रू॒पेभिः॑ । जा॒त॒ऽवे॒दः॒ । हु॒वा॒नः । य॒ज्ञम् । गिरः॑ । ज॒रि॒तुः । सु॒ऽस्तु॒तिम् । च॒ । विश्वे॑ । ग॒न्त॒ । म॒रु॒तः॒ । विश्वे॑ । ऊ॒ती ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ नामभिर्मरुतो वक्षि विश्वाना रूपेभिर्जातवेदो हुवानः। यज्ञं गिरो जरितुः सुष्टुतिं च विश्वे गन्त मरुतो विश्व ऊती ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठआ। नामऽभिः। मरुतः। वक्षि। विश्वान्। आ। रूपेभिः। जातऽवेदः। हुवानः। यज्ञम्। गिरः। जरितुः। सुऽस्तुतिम्। च। विश्वे। गन्त। मरुतः। विश्वे। ऊती ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 43; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे जातवेदो हुवानस्त्वं नामभी रूपेभिर्विश्वान् मरुत आ वक्षि जरितुः सुष्टुतिं गिरो यज्ञञ्च विश्वे गन्त विश्वे मरुत ऊत्याऽऽगन्त ॥१०॥
पदार्थः
(आ) समन्तात् (नामभिः) संज्ञाभिः (मरुतः) मनुष्यान् (वक्षि) आवह (विश्वान्) समग्रान् (आ) (रूपेभिः) रूपैः (जातवेदः) प्रजातप्रज्ञः (हुवानः) ददन् (यज्ञम्) सङ्गतिकरणम् (गिरः) वाचः (जरितुः) स्तावकस्य (सुष्टुतिम्) स्तावकस्य उत्तमां प्रशंसाम् (च) (विश्वे) सर्वे (गन्त) गच्छन्तु प्राप्नुवन्तु (मरुतः) मनुष्यान् (विश्वे) सर्वे (ऊती) ऊत्या रक्षणादिक्रियया ॥१०॥
भावार्थः
हे विद्वन् ! भवान् सर्वैर्नामभी रूपादिभिश्चाऽखिलान् पदार्थान् सर्वान् मनुष्यान् साक्षात्कारयतु येन सर्वे मनुष्याः प्रशंसिता भूत्वा सर्वान् प्रशस्तविद्यान् सम्पादयन्तु ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (जातवेदः) बुद्धि से युक्त (हुवानः) दान करते हुए आप (नामभिः) संज्ञाओं और (रूपेभिः) रूपों से (विश्वान्) सम्पूर्ण (मरुतः) मनुष्यों को (आ) सब प्रकार (वक्षि) प्राप्त हूजिये (जरितुः) स्तुति करनेवाले की (सुष्टुतिम्) स्तुति करनेवाले की उत्तम प्रशंसा को (गिरः) वाणियों को (यज्ञम्, च) और संगति करने को (विश्वे) सम्पूर्ण (गन्त) प्राप्त होवें तथा (विश्वे) समस्त (मरुतः) मनुष्यों को (ऊती) रक्षण आदि क्रिया से (आ) प्राप्त होवें ॥१०॥
भावार्थ
हे विद्वन् ! आप सम्पूर्ण नाम और रूप आदिकों से सम्पूर्ण पदार्थों को सम्पूर्ण मनुष्यों के लिये साक्षात् कराओ, जिससे सब मनुष्य प्रशंसित होकर सब को प्रशंसित विद्यायुक्त सम्पादित करें ॥१०॥
विषय
शिष्यों, वीरों के कर्त्तव्य, वायु मरुत शिष्य, प्रजा वैश्य जन हैं ।
भावार्थ
भा०—हे (जातवेदः ) नाना धन ऐश्वर्यो के कारण प्रसिद्ध ऐश्वर्य - वन् ! हे वेदमय ज्ञान के द्वारा प्रसिद्ध विद्वन् ! आचार्य ! तू (विश्वान् मरुतः) समस्त वीर, बलवान् पुरुषों और शिष्यों को ( नामभिः आ वक्षि ) उत्तम नाना नामों से धारण कर । उनको उत्तम २ नाम, पद और अधिकार देकर स्थापित कर । और उनको ( रूपेभिः आहुवानः नाना रुचिकर पदार्थों या रूपों, पोशाकों से अपनाता और अपने अधीन रखता हुआ, ( आ वक्षि ) आदरपूर्वक धारण कर, अपने अधीन रख । हे ( मरुतः ) राष्ट्र के प्राणस्वरूप, वीरपुरुषो ! आप लोग ( विश्वे ) सभी ( ऊती ) राष्ट्र की रक्षा के लिये हों । आप (विश्वे ) सब लोग ( जरितुः ) उपदेष्टा और आज्ञापक पुरुष की ( गिरः यज्ञं गन्तं ) वाणी के सहयोग को प्राप्त होओ और ( सुस्तुतिं च गन्तं ) उत्तम स्तुति और उपदेश को प्राप्त करो । विद्यार्थी जन वायुवत् सदा जागरणशील, सावधान होने से 'मरुत्' हैं । वायुवत् तीव्र वा शत्रुमारक होने से सैनिक 'मरुत्' हैं । वायु वेग से समुद्रों में जाने से वैश्यगण व यानादि 'मरुत्' हैं । उनको उनका प्रमुख व्यक्ति नामों से संकेत करे, रक्खे, नाना पदार्थों से पूर्ण करे, वे उसकी आज्ञा पालें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अत्रिर्ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:–१, ३, ६, ८, ९, १७ निचृत्त्रिष्टुप् । २, ४, ५, १०, ११, १२, १५ त्रिष्टुप् । ७, १३ विराट् त्रिष्टुप् । १४ भुरिक्पंक्ति: । १६ याजुषी पंक्तिः ॥ सप्तदशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
'ज्ञानी स्तोता' का 'सर्वदेवमय' जीवन
पदार्थ
[१] हे (जातवेदः) = सर्वज्ञ प्रभो ! (नामभि: आहुवानः) ='सत् चित् आनन्द' आदि नामों से सदा पुकारे जाते हुए आप (विश्वान्) = सब (मरुतः) = देवों को (रूपेभिः) = प्रत्यक्ष रूपों से (आवक्षि) = आप हमारे लिये प्राप्त कराते हैं। देवों का प्रत्यक्षरूप से प्राप्त होने का भाव है, 'उस उस देव के गुण का जीवन में स्थापन'। आप उन-उन देवों के गुणों को हमारे जीवन में स्थापित करते हुए हमारे जीवन को सर्वदेवमय कर डालते हैं । [२] (गिरः) = इस ज्ञान की वाणियों का उच्चारण करनेवाले पुरुष के (यज्ञम्) = जीवनयज्ञ को (विश्वे मरुतः) = सब देव गन्त प्राप्त हों। यह ज्ञानी ज्ञानयज्ञ को करता हुआ दिव्य जीवनवाला बने। (च) = और (जरितुः) = इस स्तोता की (सुष्टुतिम्) = उत्तम स्तुति को (विश्वे) = सब देव (ऊती) = रक्षण के साथ (गन्त) = प्राप्त हों। स्तवन के होने पर सब देव इस स्तोता का रक्षण करनेवाले हों और यह उनसे रक्षित हुआ हुआ वासनाओं से पराभूत न हो।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु कृपा से हमारा जीवन सर्वदेवमय बने। हम ज्ञान व स्तुति में प्रवृत्त होकर देवों से आभिगमनीय व रक्षणीय हों।
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वाना! तू सर्व माणसांना संपूर्ण पदार्थांचे नाव व रूप इत्यादीसह प्रत्यक्ष करव. ज्यामुळे सर्व माणसे प्रशंसित होऊन सर्वांना विद्यायुक्त करतील. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O Jataveda, light of life, sagely scholar of the knowledge of things in existence, invoked and invited, kindled and raised, you bring and speak of all the energies of winds and electricity of all names and all descriptions for men. O Maruts, winds and energies, in response to the mantric formulae and the celebrant’s songs of adoration, come all and bring all modes of protection and advancement along to the sagely scholars’ yajnic pursuit of research and development.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties and attributes of an enlightened person are dealt.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O enlightened person ! while imparting teachings, bring here all thoughtful and brave men with their several names and forms (citations. Ed.). Let all those thoughtful good men come with their protective powers to hear the good praises of the devotee and to their Yajna (association).
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O learned person ! you should make all men realize the real nature of all things with their names and forms (citations), so that all men may become admirable and make others also endowed with good knowledge.
Foot Notes
(यज्ञम् ) सङ्गतिकरणम् । यज-देवपूजा सङ्गतिकरणदानेषु । अत्र द्वितीयोऽर्थः । = Association. (जातवेदः) प्रजातप्रज्ञः । जातवेदाः जातानि वेदः इति जातविद्यो वा जातप्रज्ञान: (NKT 7, 5, 19)। = Wise and enlightened man. (मरुतः ) मनुष्यान् । मरुत इति पदनाम । पद-गतौ गतेस्त्रिष्वर्थेषु ज्ञानार्थमादाय ज्ञानिनो मनुष्या मरुतः । = Thoughtful men (हुवान:) ददन् । हु-दानादनयोः आदाने च (जुहो० )। = Giving.
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