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ऋग्वेद मण्डल - 5 के सूक्त 59 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 59/ मन्त्र 2
    ऋषिः - श्यावाश्व आत्रेयः देवता - मरुतः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अमा॑देषां भि॒यसा॒ भूमि॑रेजति॒ नौर्न पू॒र्णा क्ष॑रति॒ व्यथि॑र्य॒ती। दू॒रे॒दृशो॒ ये चि॒तय॑न्त॒ एम॑भिर॒न्तर्म॒हे वि॒दथे॑ येतिरे॒ नरः॑ ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अमा॑त् । ए॒षा॒म् । भि॒यसा॑ । भूमिः॑ । ए॒ज॒ति॒ । नौः । न । पू॒र्णा । क्ष॒र॒ति॒ । व्यथिः॑ । य॒ती । दू॒रे॒ऽदृशः॑ । ये । चि॒तय॑न्ते । एम॑ऽभिः । अ॒न्तः । म॒हे । वि॒दथे॑ । ये॒ति॒रे॒ । नरः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अमादेषां भियसा भूमिरेजति नौर्न पूर्णा क्षरति व्यथिर्यती। दूरेदृशो ये चितयन्त एमभिरन्तर्महे विदथे येतिरे नरः ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अमात्। एषाम्। भियसा। भूमिः। एजति। नौः। न। पूर्णा। क्षरति। व्यथिः। यती। दूरेऽदृशः। ये। चितयन्ते। एमऽभिः। अन्तः। महे। विदथे। येतिरे। नरः ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 59; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वायुगुणानाह ॥

    अन्वयः

    हे नरो नायका मनुष्या ! या भूमिः पूर्णा नौर्न भियसा व्यथिर्यती स्त्रीवैजति एषाममात् क्षरति तां य एमभिरस्यान्तर्मध्ये दूरेदृशो महे चितयन्ते विदथे येतिरे त एव सर्वान् सुखयितुमर्हन्ति ॥२॥

    पदार्थः

    (अमात्) गृहात् (एषाम्) वाय्वग्न्यादीनाम् (भियसा) भयेन (भूमिः) पृथिवी (एजति) कम्पते (नौः) बृहती नौका (न) इव (पूर्णा)) (क्षरति) वर्षति (व्यथिः) या व्यथते सा (यती) गच्छन्ती (दूरेदृशः) ये दूरे दृश्यन्ते पश्यन्ति वा (ये) (चितयन्ते) प्रज्ञापयन्ति (एमभिः) प्रापकैर्गुणैः (अन्तः) मध्ये (महे) महते (विदथे) सङ्ग्रामे विज्ञानमये व्यवहारे वा (येतिरे) यतन्ते (नरः) नेतारो मनुष्याः ॥२॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। यथा शूराणां समीपाद् भीरवः पलायन्ते तथैव वायुसूर्य्याभ्यां भूमिः कम्पते चलति च यथा पदार्थैः पूर्णा नौरग्न्यादियोगेन समुद्रपारं सद्यो गच्छति तथा विद्यापारं मनुष्या गच्छन्तु यथा वीराः सङ्ग्रामे प्रयतन्ते तथैवेतरैर्मनुष्यैः प्रयतितव्यम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब वायुगुणों को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (नरः) नायक मनुष्यो ! जो (भूमिः) पृथिवी (पूर्णा) पूर्ण (नौः) बड़े नौका के (न) सदृश (भियसा) भय से (व्यथिः) पीड़ित होनेवाली (यती) जाती हुई स्त्री के तुल्य (एजति) काँपती है और (एषाम्) इन वायु और अग्नि आदि के (अमात्) गृह से (क्षरति) वर्षाती है उसको (ये) जो (एमभिः) प्राप्त करानेवाले गुणों से इसके (अन्तः) मध्य में (दूरेदृशः) जो दूर देखे जाते वा दूर देखनेवाले (महे) बड़े के लिये (चितयन्ते) उत्तमता से समझाते हैं और (विदथे) संग्राम वा विज्ञानयुक्त व्यवहार में (येतिरे) प्रयत्न करते हैं, वे ही सब को सुखी करने के योग्य होते हैं ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे शूरवीर जनों के समीप से डरनेवाले जन भागते हैं, वैसे ही वायु और सूर्य से भूमि काँपती और चलती है और जैसे पदार्थों से पूर्ण नौका अग्नि आदि के योग से समुद्र के पार को शीघ्र जाती है, वैसे विद्या के पार मनुष्य जावें और जैसे वीर संग्राम में प्रयत्न करते हैं, वैसे ही अन्य मनुष्यों को प्रयत्न करना चाहिये ॥२॥

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    विषय

    मेघोंवत् उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    भा०-( एषां ) इन वायुवत् बलवान् पुरुषों के ( भियसा) भय से ( भूमिः ) भूमि ( नौः न ) नाव के समान (एजति ) कांपती है । और ( अमात् यती ) घर से निकलती हुई ( व्यथिः ) दुःखों से पीड़ित हुई स्त्री के तुल्य यह (पूर्ण) जल से पूर्ण, या सर्वपालक अन्तरिक्ष परराष्ट्र भूमि भी ( क्षरति ) अश्रुवत् जल वर्षण करती है । ( ये ) जो विद्वान् और वीर पुरुष ( दूरे-दृशः ) दूरवीक्षणादि यन्त्रों से दूर देशों तक देखने में समर्थ एवं बुद्धिपूर्वक दूर भविष्य को भी देख लेने वाले हैं वे (एमभिः) ज्ञानों से, मार्गों से, और अपने गमन, आचरणादि से ( चितयन्त ) अन्यों को सेचत करें और ( नरः ) वे नायक जन ( अन्तः महे विदथे ) भीतरी, बड़े भारी ज्ञान और यज्ञ संग्रामादि में भी ( येतिरे ) यत्नशील हों ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ मरुतो देवताः ॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती । २, ३, ६ निचृज्जगती । ५ जगती । ७ स्वराट् त्रिष्टुप् । ८ निचृत् त्रिष्टुप् ॥

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    विषय

    शत्रु-कम्पन व ज्ञानयज्ञ प्रणयन

    पदार्थ

    [१] (एषाम्) = इन (मरुतों) = प्राणों के (अमात्) = बल से (भियसा) = भय के कारण (भूमिः एजति) = यह पृथिवीरूप शरीर काँप उठता है। इस शरीर में प्राणों के कारण वह हलचल उत्पन्न होती है, जो शरीरस्थ सब रोग व वासनारूप शत्रुओं को कम्पित करके दूर कर देती है। यह (व्यथिः) = शत्रुओं को पीड़ित करनेवाली यती गति करती हुई शरीर-भूमि इस प्रकार संचलन में होती है, (न) = जैसे कि (पूर्णा नौ:) = जल से पूर्ण (नाव क्षरति) = नदी में गतिवाली होती है। [२] ये प्राण (दूरेदृश:) = आँखों से ओझल हैं, परन्तु (ये) = जो प्राण (एमभिः चितयन्त) = अपनी गतियों से जाने जाते हैं, वे (नरः) = हमें उन्नतिपथ पर ले चलनेवाले प्राण (महे विदथे अन्तः) = महान् ज्ञानयज्ञ में (येतिरे) = यत्नशील होते हैं । इन प्राणों के कारण ही जीवन में ज्ञानयज्ञ चलता है। प्राणसाधना से सोम की ऊर्ध्वगति होकर ज्ञानाग्नि दीप्त होती है और ज्ञान यज्ञ चलता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्राणों द्वारा इस शरीर भूमि में हलचल द्वारा शत्रु कम्पित हो उठते हैं। इस प्राणसाधना के परिणामस्वरूप ही ज्ञानयज्ञ चलता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे शूर वीराजवळ जाण्यास भित्री माणसे घाबरतात तसे वायू व सूर्यामुळे भूमी कंपायमान होते. जशी पदार्थांनी भरलेली नौका अग्नी इत्यादीद्वारे तात्काळ समुद्रापार जाते तसे विद्येच्या पार माणसांनी पोचावे. जसे वीर पुरुष युद्धात प्रयत्नशील असतात तसे इतर माणसांनीही प्रयत्नशील असावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    By the power and force of these Maruts, the earth trembles with fear and, like an overloaded boat going over the sea, shakes in agitation under pressure. Seen from far, they are known by their movements and, leading lights as they are, they go forward in the great battle business of life and its organisation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The attributes of the air (wind) are told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    leading men! the earth temples with fear before the strength of the wind, fire, sun and such powerful objects. She swirls, like a full ship, that goes rolling, or like a suffering woman going to some place. The heroes who appear on their marches, are visible from far and showing path to others by their attributes leading to happiness, strive together in the battle or a dealing of knowledge. Such men can make all happy.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    There is upāmālankared or simile (in the mantra. As the cowards run away from the heroes in the same manner, the earth trembles and moves from the wind and sun. As a ship laden with various articles goes across the sea with the combination of the fire, water, electricity etc, in the same manner, let all men go to the last of knowledge. As brave persons endeavour in the battle, so other men should also try to do.

    Foot Notes

    (एषाम्) वाय्वग्न्यादीनाम्। = Of the wind, Agni (fire and sun) and other objects. (एमभिः) प्रपकैगुर्णैः =The attributes that lead to happiness. (विदथे) सङ्ग्रामे विज्ञानमये व्यवहारे वा । = In the battle or the dealing of knowledge.

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