ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 61/ मन्त्र 14
को वे॑द नू॒नमे॑षां॒ यत्रा॒ मद॑न्ति॒ धूत॑यः। ऋ॒तजा॑ता अरे॒पसः॑ ॥१४॥
स्वर सहित पद पाठकः । वे॒द॒ । नू॒नम् । ए॒षा॒म् । यत्र॑ । मद॑न्ति । धूत॑यः । ऋ॒तऽजा॑ताः । अ॒रे॒पसः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
को वेद नूनमेषां यत्रा मदन्ति धूतयः। ऋतजाता अरेपसः ॥१४॥
स्वर रहित पद पाठकः। वेद। नूनम्। एषाम्। यत्र। मदन्ति। धूतयः। ऋतऽजाताः। अरेपसः ॥१४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 61; मन्त्र » 14
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 28; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनरुपदेशार्थविषयमाह ॥
अन्वयः
हे विद्वांसो ! यत्रर्तजाता अरेपसो धूतयो मदन्ति तत्रैषां स्वरूपं नूनं को वेद ॥१४॥
पदार्थः
(कः) (वेद) जानाति (नूनम्) निश्चितम् (एषाम्) वाय्वादीनाम् (यत्रा) (मदन्ति) हर्षन्ति (धूतयः) ये पापं धूनयन्ति ते (ऋतजाताः) य ऋते जायन्ते ते (अरेपसः) अनपराधिनः ॥१४॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! अपराधानपराधौ सत्यासत्ये च को वेत्तीति पृच्छामः। ये प्रमादविरहाः परमेश्वरभक्ता भवन्तीति ॥१४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उपदेशार्थ विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे विद्वानो ! (यत्रा) जहाँ (ऋतजाताः) सत्य में उत्पन्न होनेवाले (अरेपसः) अपराध से रहित (धूतयः) पाप को कम्पानेवाले (मदन्ति) प्रसन्न होते हैं वहाँ (एषाम्) इन वायु आदि के स्वरूप को (नूनम्) निश्चित (कः) कौन (वेद) जानता है ॥१४॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! अपराध-अनपराध तथा सत्य और असत्य को कौन जानता है, यह हम पूछते हैं। जो प्रमाद से रहित और परमेश्वरभक्त होते हैं ॥१४॥
विषय
सज्जनों का वर्णन । उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०—वायु गण के समान जो ( धूतयः ) वृक्षों के तुल्य हरे भरे हृष्ट पुष्ट, शत्रुओं को कंपाने वाले ( ऋत-जाताः ) सत्य न्याय, व्यवहार, ऐश्वर्य और सत्य ज्ञान के लिये प्रसिद्ध और ( अरेपसः ) निष्पाप पुरुष ( यत्र ) जिस विशेष कार्य में प्रसन्न रहते हैं उसको ( नूनम् ) निश्चय पूर्वक ( किः वेद ) कौन जान सकता है ( २ ) अध्यात्म में शरीर को संचालित करने से 'धूतयः' और अन्न जल से उत्पन्न वा प्रादुर्भूत होने से ‘ऋतजात’ हैं उनके रमण के आधार स्थान को विरला ही जाना करता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
श्यावाश्व आत्रेय ऋषिः ॥ १–४, ११–१६ मरुतः । ५-८ शशीयसी तरन्तमहिषी । पुरुमीळहो वैददश्विः । १० तरन्तो वैददश्विः । १७ – १९ रथवीतिर्दाल्भ्यो देवताः ॥ छन्दः – १ –४, ६–८, १०– १९ गायत्री । ५ अनुष्टुप् । ९ सतोबृहती ॥ एकोनविंशत्यृचं सूक्तम् ॥
विषय
ऋतजाता:-अरेपसः
पदार्थ
[१] (एषाम्) = इन प्राणों के स्वरूप व स्थान को (नूनम्) = निश्चय से (कः वेद) = कोई विरला ही जानता है ? (यत्रा) = जिन स्थानों में स्थित हुए हुए (धूतयः) = शत्रुओं को कम्पित करनेवाले ये प्राण (मदन्ति) [मादयन्ति] = जीवन को उल्लासमय बनाते हैं। शरीरस्थ प्राण अपनी क्रियाओं से शरीर की व्याधियों व मन की आधियों को विनष्ट करते हैं। पर कोई विरला पुरुष ही इन प्राणों की साधना में प्रवृत्त होता है। [२] ये प्राण (ऋतजाता:) = ऋत का अनुभव होने के लिये ही प्रादुर्भूत हुए हैं [ऋते जाता:], इनके कारण अमृत का विनाश होकर ऋत का विकास होता है। (अरेपसः) = ये प्राण दोषरहित हैं। प्राणसाधना से सब दोषों का दहन होकर जीवन निर्दोष व दीप्त बनता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्राणसाधना से [१] जीवन निर्दोष बनता है, [२] ऋत व सत्य का जीवन में विकास होता है। [३] सब मलों का परिहार होने से आनन्द का अनुभव होता है ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! कोण अपराध-अनपराध तसेच सत्य व असत्य जाणतो? हे आम्ही विचारतो. तर (त्याचे उत्तर असे की) जे प्रमादरहित असून परमेश्वर भक्त असतात तेच हे जाणतात. ॥ १४ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Who would know of them for sure where these tempestuous heroes born of truth, immaculate and free challengers of sin, work and rejoice and celebrate their victory?
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Something about the duties of the enlightened persons is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O learned persons! who knows with certainty where those noble persons who are well-known for their truthfulness, and who are sinless, or faultless and shakers or strikers of sin, rejoice?
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
We ask you, who are the knowers Of The fault (sin) and merit, truth and untruth. The answer is that those who are devotees of God are free from all negligence.
Foot Notes
(अरेपसः:) अनपराधिनः। = Faultless, sinless. (घूतयः) ये पापं घुनयन्ति ते । धून् - कम्पने । = Who shake or sweep away all sins.
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