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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 14/ मन्त्र 5
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - अग्निः छन्दः - विराडनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अ॒ग्निर्हि वि॒द्मना॑ नि॒दो दे॒वो मर्त॑मुरु॒ष्यति॑। स॒हावा॒ यस्यावृ॑तो र॒यिर्वाजे॒ष्ववृ॑तः ॥५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ग्निः । हि । वि॒द्मना॑ । नि॒दः । दे॒वः । मर्त॑म् । उ॒रु॒ष्यति॑ । स॒हऽवा॑ । यस्य॑ । अवृ॑तः । र॒यिः । वाजे॑षु । अवृ॑तः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्निर्हि विद्मना निदो देवो मर्तमुरुष्यति। सहावा यस्यावृतो रयिर्वाजेष्ववृतः ॥५॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्निः। हि। विद्मना। निदः। देवः। मर्तम्। उरुष्यति। सहऽवा। यस्य। अवृतः। रयिः। वाजेषु। अवृतः ॥५॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 14; मन्त्र » 5
    अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! योऽवृतस्सहावादेवोऽग्निर्मर्त्तमुरुष्यति तं हि विद्मना विजानन्तु यस्य वाजेष्ववृतो रयिर्भवति तेन निदो निवारयन्तु ॥५॥

    पदार्थः

    (अग्निः) पावक इव पवित्रोपचितो मुनिः (हि) यतः (विद्मना) ज्ञानेन (निदः) निन्दकान् (देवः) देदीप्यमानः (मर्त्तम्) मनुष्यम् (उरुष्यति) सेवते (सहावा) यः सहते सः (यस्य) (अवृतः) अस्वीकृतः (रयिः) धनम् (वाजेषु) सङ्ग्रामेषु (अवृतः) अनाच्छादितः ॥५॥

    भावार्थः

    सर्वान् पदार्थान्त्सवन्तीं विद्युतं मनुष्या जानन्तु यद्विज्ञानेनाग्नेयादीन्यस्त्राणि सिद्ध्यन्ति तत्सर्वदाऽन्विष्यध्वम् ॥५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! जो (अवृतः) नहीं स्वीकार किया गया (सहावा) सहनेवाला (देवः) निरन्तर प्रकाशमान (अग्निः) अग्नि के सदृश पवित्रों से बढ़ा हुआ मुनि (मर्त्तम्) मनुष्य को (उरुष्यति) सेवता है उसको (हि) जिससे (विद्मना) ज्ञान से विशेष करके जानें और (यस्य) जिसके (वाजेषु) सङ्ग्रामों में (अवृतः) नहीं आच्छादित किया गया (रयिः) धन होता है, उससे (निदः) निन्दा करनेवालों का निवारण कीजिये ॥५॥

    भावार्थ

    सब पदार्थों को उत्पन्न करती हुई बिजुली को मनुष्य जानें, जिस विज्ञान से आग्नेयादि नामक अस्त्र सिद्ध होते हैं, उसका सब काल में खोज करो ॥५॥

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    विषय

    ज्ञानबल से निन्दकों पर विजय लाभ

    भावार्थ

    ( अग्निः हि ) अग्रणी नायक या ज्ञानवान् पुरुष ही ( देव:) तेजस्वी होकर ( विद्मना ) ज्ञान के बल से ( निदः ) निन्दकों का ( सहावा ) पराजय करता हुआ ( मर्त्तम् ) मनुष्यमात्र की ( उरुष्यति ) रक्षा करता है । वह स्वयं ( अवृतः ) विना किसी के वरण किये हुए या विना कुछ चेष्टा किये भी (यस्य ) जिसके ( रयिः ) ऐश्वर्य और बल ( वाजेषु अवृतः ) संग्राम करने के अवसरों पर छुपा नहीं रहता ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ३ भुरिगुष्णिक् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । ५ विराडनुष्टुप् । ६ भुरिगतिजगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    ज्ञान के द्वारा पापों से बचाव

    पदार्थ

    [१] (अग्निः देवः) = वे अग्रेणी प्रकाशमय प्रभु (हि) = निश्चय से (विद्मना) = ज्ञान के द्वारा (मर्तम्) = मनुष्य को (निदः) = निन्दनीय कर्मों से (उरुष्याति) = बचाते हैं। प्रभु ज्ञान देकर उस हेय कर्मों में प्रवृत्त नहीं होने देते। [२] प्रभु से रक्षित हुआ-हुआ यह व्यक्ति (सहावा) = शत्रुओं का पराभव करनेवाला होता है। यह ऐसा बनता है कि (यस्य) = जिसका (रयिः) = धन (अवृतः) = वासनाओं से आच्छादित नहीं होता, अर्थात् यह धनों के कारण वासनाओं में नहीं फँस जाता और यह (वाजेषु) = शक्तियों में (अवृतः) = क्रोध व उग्रत्ता आदि से आच्छादित नहीं हो जाता, अर्थात् धन व शक्ति को प्राप्त करके भी यह मद में नहीं हो जाता।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु ज्ञान देकर हमें पापों से बचाते हैं। प्रभु से रक्षित यह व्यक्ति वासनाओं का पराभव करता है और धनवान् व शक्तिमान् होता हुआ भी मदयुक्त नहीं हो जाता।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सर्व पदार्थांना उत्पन्न करणाऱ्या विद्युतला जाणून माणसांनी अग्नेय इत्यादी अस्त्रे तयार करावीत व त्यात सदैव संशोधन करावे. ॥ ५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, generous and brilliant leader, for sure, with his knowledge and power protects mortals from hate, jealousy and enmity. He is an open and spontaneous protector, and whoever the man he protects, his wealth and honour is safe, open and unchallengeable in the battles of life.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is told further.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O men ! a sage is purifier like the fire even though not accepted (or in spite of all opposition. Ed.) by all. Shining on account of virtues and putting up with all difficulties, he serves a man (mankind. Ed.). You should know him. Keep far away those who are your reproaches by the help of a man whose wealth (in fighting. Ed.) in battles is not covered (open to public sight. Ed.) but is manifest.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Men should know the properties of electricity energy which creates all things by knowing which many weapons like the Agneyastra/firearm etc. are manufactured. You must carry on research about that electricity.

    Foot Notes

    (उरुष्यति) सेवते । उरुष्यति:- रक्षाकर्मा । सेवा रक्षाद्वारैव भवति । (NKT 5, 4, 23)। = Serves. (अग्नि:) पावक इव पवित्रोपचितो मुनिः। = A Muni (hermit) who is pure and purifier like the fire. (अवृत: ) अनाच्छादित: । वृञ्-आवरणे (चुरा० ) = Not covered or hidden manifest. (अवृत:) अस्वीकृत: । वृञ्-वरणे (स्वा० )। = Not accepted by all.

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