ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 14/ मन्त्र 6
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिगतिजगती
स्वरः - निषादः
अच्छा॑ नो मित्रमहो देव दे॒वानग्ने॒ वोचः॑ सुम॒तिं रोद॑स्योः। वी॒हि स्व॒स्तिं सु॑क्षि॒तिं दि॒वो नॄन्द्वि॒षो अंहां॑सि दुरि॒ता त॑रेम॒ ता त॑रेम॒ तवाव॑सा तरेम ॥६॥
स्वर सहित पद पाठअच्छ॑ । नः॒ । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । दे॒व॒ । दे॒वान् । अग्ने॑ । वोचः॑ । सु॒ऽम॒तिम् । रोद॑स्योः । वी॒हि । स्व॒स्तिम् । सु॒ऽक्षि॒तिम् । दि॒वः । नॄन् । द्वि॒षः । अंहां॑सि । दुः॒ऽइ॒ता । त॒रे॒म॒ । ता । त॒रे॒म॒ । तव॑ । अव॑सा । त॒रे॒म॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अच्छा नो मित्रमहो देव देवानग्ने वोचः सुमतिं रोदस्योः। वीहि स्वस्तिं सुक्षितिं दिवो नॄन्द्विषो अंहांसि दुरिता तरेम ता तरेम तवावसा तरेम ॥६॥
स्वर रहित पद पाठअच्छ। नः। मित्रऽमहः। देव। देवान्। अग्ने। वोचः। सुऽमतिम्। रोदस्योः। वीहि। स्वस्तिम्। सुऽक्षितिम्। दिवः। नॄन्। द्विषः। अंहांसि। दुःऽइता। तरेम। ता। तरेम। तव। अवसा। तरेम ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 14; मन्त्र » 6
अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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अष्टक » 4; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 6
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः प्रत्यहं किं करणीयमित्याह ॥
अन्वयः
हे मित्रमहो देवाऽग्ने ! त्वं नो देवान् रोदस्योः सुमतिमच्छा वोचः सुक्षितिं स्वस्तिं वीहि दिवो नॄन् पदार्थविद्यां ब्रूहि यतस्तवाऽवसा द्विषोंऽहांसि दुरिता तरेम ता तरेम कुसङ्गदोषांश्च तरेम ॥६॥
पदार्थः
(अच्छा) सम्यक्। अत्र संहितायामिति दीर्घः। (नः) अस्मान् (मित्रमहः) मित्रैः पूजनीय (देव) सुखदातः (देवान्) विदुषः (अग्ने) पावक इव प्रकाशमान विद्वन् (वोचः) ब्रूहि (सुमतिम्) शोभनां प्रज्ञाम् (रोदस्योः) अग्निपृथिव्योः (वीहि) व्याप्नुहि (स्वस्तिम्) सुखम् (सुक्षितिम्) शोभना क्षितिर्भूमियस्यां ताम् (दिवः) कामयामानान् (नॄन्) मनुष्यान् (द्विषः) द्वेष्टॄन् (अंहांसि) पापानि (दुरिता) दुष्टाचरणानि दुर्व्यसनानि (तरेम) उल्लङ्घेम (ता) तानि निन्दादीनि (तरेम) (तव) (अवसा) रक्षणाद्येन (तरेम) ॥६॥
भावार्थः
हे विद्वांसो ! यावतीं विद्यां यूयं प्राप्नुयात तावतीमन्येभ्यो यथावदुपदिशत सत्योपदेशेन मनुष्याणां दुर्व्यसनानि दूरीकुरुत स्वयमधर्म्माचरणात् पृथग्वर्त्तध्वं सत्सङ्गेन पुरुषार्थेन च शुद्धा भूत्वा दुःखानि तीर्त्वा सुखमाप्नुतेति ॥६॥ अत्राऽग्निविद्वद्गुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति चतुर्दशं सूक्तं षोडशो वर्गश्च समाप्तः ॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को प्रतिदिन क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (मित्रमहः) मित्रों से आदर करने योग्य (देव) सुखके देनेवाले (अग्ने) अग्नि के सदृश विद्या के प्रकाश से युक्त विद्वन् ! आप (नः) हम लोगों (देवान्) विद्वानों को तथा (रोदस्योः) अग्नि और पृथिवी सम्बन्धिनी (सुमतिम्) उत्तम बुद्धि को (अच्छा) उत्तम प्रकार (वोचः) कहिये (सुक्षितिम्) उत्तम भूमि जिसमें उस (स्वस्तिम्) सुख को (वीहि) प्राप्त हूजिये और (दिवः) कामना करते हुए (नॄन्) मनुष्यों से पदार्थविद्या को कहिये जिससे (तव) आपके (अवसा) रक्षण आदि से (द्विषः) द्वेष से युक्त जनों (अंहांसि) पापों और (दुरिता) दुष्ट आचरणों दुर्व्यसनों का (तरेम) उल्लङ्घन करें तथा (ता) उन निन्दादिकों का (तरेम) उल्लङ्घन करें और कुसङ्ग से हुए दोषों का (तरेम) उल्लङ्घन करें ॥६॥
भावार्थ
हे विद्वान् जनो ! जितनी विद्या को आप लोग प्राप्त होओ उतनी का अन्य जनों के लिये यथावत् उपदेश करो और सत्य उपदेश से मनुष्यों के दुष्ट व्यसनों को दूर करो और आप अधर्म्म के आचरण से पृथक् वर्त्ताव करो और सत्संग तथा पुरुषार्थ से शुद्ध होकर दुःखों से पार होकर सुख को प्राप्त होओ ॥६॥ इस सूक्त में अग्नि और विद्वानों के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह चौदहवाँ सूक्त और सोलहवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥
विषय
प्रभु से शुभ ज्ञान, उत्तम भूमि, ऐश्वर्य की याचना, पापों और शत्रुओं को पार करने की याचना ।
भावार्थ
व्याख्या देखो सू० २ । मन्त्र ११ ॥ हे ( मित्रमहः अग्ने ) मित्रों के पूजने योग्य ! हे मित्रों द्वारा आदृत ! हे बड़े २ मित्रों वाले, स्नेहवान् पुरुषों के तुल्य महान्, हे ( देव ) दानशील ! ज्ञानवान् नायक ! तू ( नः देवम् अच्छ रोदस्योः सुमतिं वोचः ) हम उत्तम वा तुझे चाहने वाले, हमें और सूर्य पृथिवी के तुल्य परस्पर उपकारबद्ध गृहस्थ स्त्री पुरुषों वा राजा प्रजावर्गों के योग्य शुभ ज्ञान उपदेश कर । ( स्वस्ति ) कल्याणकारी ( सुक्षितिं ) उत्तम निवास वा उत्तम भूमि को (वीहि) प्राप्त कर, उसे चाह और प्रकाशित वा उपभोग कर ( दिवः नॄन् ) कामना करने वाले पुरुषों को चाह । ( द्विषः अंहांसि, दुरिता तरेम ) हम शत्रुओं को, पापों को, और दुष्टाचरणों को लांघ जाएं, ( ता ) उन नाना पदार्थों से पार हो जावें, ( तव अवसा ) तेरे ज्ञान, रक्षा और कामना से हम ( तरेम ) तर जावें । इति षोडशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। अग्निर्देवता ।। छन्दः – १, ३ भुरिगुष्णिक् । २ निचृत्त्रिष्टुप् । ४ अनुष्टुप् । ५ विराडनुष्टुप् । ६ भुरिगतिजगती ॥ षडृचं सूक्तम् ॥
विषय
वीहि स्वस्तिं सुक्षितिम्
पदार्थ
२.११ पर व्याख्या भरद्वाज ही अगले सूक्त में भी 'अग्नि' का स्तवन करते हैं -
मराठी (1)
भावार्थ
हे विद्वानांनो ! जेवढी विद्या तुम्हाला प्राप्त झालेली असेल तेवढी उपदेशरूपाने इतरांना द्या व सत्य उपदेशाने माणसांच्या दुर्व्यसनांना दूर करा. अधर्माचरणापासून पृथक राहा. सत्संग आणि पुरुषार्थाने पवित्र बनून, दुःखातून पार पडून सुख प्राप्त करा. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, leading light of life, generous and refulgent lord, greatest friend adorable, speak to us well, specially to men of brilliance and the people who love to know of the knowledge of heaven and earth, and of the three fires of earth, firmament and the solar sphere: fire, wind, and electricity and light. Bring us the good life of truth and all round well-being and a happy home for peaceful living. Help us get over jealousy, sin and crime and evil conduct, help us get over malignity, reproach and enmity, protect us, save us and let us cross over the seas of life by your grace.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened men do every day is told further.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Giver of happiness! worthy of adoration by all friends, shining like purifying fire, you cultivate good intellect or give knowledge about the Agni (fire and electricity etc.) and earth to the learned persons. Attain that delight in which the whole earth looks good. Enlighten those men who desire to acquire knowledge about physics and other sciences. By your protection, may we swim or overcome across all foes, all sins, all evils, defects of bad association and wicked dealings. May we overcome all these evils through your protection over us.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons! what knowledge you acquire, give it to others correctly. Caste aside the evils and vices of men by preaching truth. Always keep yourselves away from all unrighteous dealings. Being pure by the association of the noble persons and by labor, rise above all miseries and enjoy happiness.
Foot Notes
(मित्रमहः ) मित्रै: पूजनीयः । मह-पूजायाम् (भ्वा० ) । = Worthy of adoration by the friends. (रोदस्योः ) अग्निपृथिव्यो: । = Of the Agni (fire, electricity etc.) and the earth. (दिवः ) कामयमानान् । दिवु - क्रीडागविजिगीषाव्यवहारदयुतिस्तुतिमोदमदस्वप्नकान्तिगतिषु । अत्र कान्त्यर्थंग्रहणम् । कान्तिः कामना। = Desirous of acquiring knowledge. (वीहि) व्याप्नुहि । वी-गतिव्याप्तिप्रजनकान्त्यसनखादनेषु । अत्र व्याप्त्यर्थंग्रहणम् । = Pervade, attain.
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