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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 19/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    नृ॒वत्त॑ इन्द्र॒ नृत॑माभिरू॒ती वं॑सी॒महि॑ वा॒मं श्रोम॑तेभिः। ईक्षे॒ हि वस्व॑ उ॒भय॑स्य राज॒न्धा रत्नं॒ महि॑ स्थू॒रं बृ॒हन्त॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नृ॒ऽवत् । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । नृऽत॑माभिः । ऊ॒ती । वं॒सी॒महि॑ । वा॒मम् । श्रोम॑तेभिः । ईक्षे॑ । हि । वस्वः॑ । उ॒भय॑स्य । रा॒ज॒न् । धाः । रत्न॑म् । महि॑ । स्थू॒रम् । बृ॒हन्त॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नृवत्त इन्द्र नृतमाभिरूती वंसीमहि वामं श्रोमतेभिः। ईक्षे हि वस्व उभयस्य राजन्धा रत्नं महि स्थूरं बृहन्तम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नृऽवत्। ते। इन्द्र। नृऽतमाभिः। ऊती। वंसीमहि। वामम्। श्रोमतेभिः। ईक्षे। हि। वस्वः। उभयस्य। राजन्। धाः। रत्नम्। महि। स्थूरम्। बृहन्तम् ॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 19; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 8; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र राजन् ! यथा वयं ते नृतमाभिरूती नृवद्वामं वंसीमहि श्रोमतेभिरुभयस्य वस्व ईक्षे तथा त्वं बृहन्तम्महि स्थूरं रत्नं हि धाः ॥१०॥

    पदार्थः

    (नृवत्) नृभिस्तुल्यम् (ते) तव (इन्द्र) परमैश्वर्यप्रद (नृतमाभिः) अत्युत्तमा नरो विद्यन्ते यासु ताभिः (ऊती) रक्षादिभिः (वंसीमहि) विभजेम (वामम्) प्रशस्यं कर्म (श्रोमतेभिः) श्रावणीयैर्वचनैः (ईक्षे) पश्यामि (हि) यतः (वस्वः) धनस्य (उभयस्य) राजप्रजास्थस्य (राजन्) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान (धाः) धेहि (रत्नम्) रमणीयं धनम् (महि) महत्पूजनीयम् (स्थूरम्) स्थिरम् (बृहन्तम्) महान्तम् ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। राजप्रजाननै राज्ञा च प्रयत्नैः प्रशंसिता विद्या महती श्रीश्च सततं वर्धनीया ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य के देनेवाले (राजन्) विद्या और विनय से प्रकाशमान ! जैसे हम लोग (ते) आपके (नृतमाभिः) अति उत्तम मनुष्य विद्यमान जिनमें उन (ऊती) रक्षण आदिकों से (नृवत्) मनुष्यों के तुल्य (वामम्) प्रशंसा करने योग्य कर्म का (वंसीमहि) विभाग करें और (श्रोमतेभिः) सुनाने योग्य वचनों से (उभयस्य) दोनों राजा और प्रजा में वर्त्तमान (वस्वः) धन का मैं (ईक्षे) दर्शन करता हूँ, वैसे आप (बृहन्तम्) बड़े (महि) आदर करने योग्य (स्थूरम्) स्थिर (रत्नम्) सुन्दर धन को (हि) ही (धाः) धारण करिये ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। राजजनों तथा प्रजाजनों और राजा को चाहिये कि प्रशस्तों से प्रशंसित विद्या और बहुत धन की निरन्तर वृद्धि करें ॥१०॥

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    विषय

    अभ्युदयादि । प्रजा की नाना कामनाएं ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुहन्तः ! हे सूर्यवत् तेजस्विन् ! विद्वन् ! ( ते ) तेरे ( नृवत् ) उत्तम नेता पुरुषों से युक्त, उत्तम भृत्यादि सम्पन्न ( वामं ) उत्तम धन और ज्ञान को हम लोग (नृ-तमाभिः) उत्तम पुरुषों से सेवन करने योग्य (ऊती) क्रियाओं, रीतियों और (श्रोमतेभिः) उत्तम पुरुषों से श्रवण करने योग्य वचनों से ( वंसीमहि ) हम प्राप्त करें । हे ( राजन् ) उत्तम गुणों से प्रकाशमान ! तू ( उभयस्य वस्वः ) दोनों प्रकार के धनों, अर्थात् राष्ट्र में बसने वाले प्रजा रूप धन और उपभोग योग्य ऐश्वर्य सुवर्णादि धन को भी ( ईक्षे हि) निश्चय से देखता है। तू (महि) बड़ा ( स्थूरं ) स्थिर और ( बृहन्तम् ) महान् ( रत्नं ) रमण, सबको प्रसन्न ( करने योग्य, उत्तम नर रत्न को रत्नवत् ( धाः ) स्वयं धारण कर और राष्ट्र में स्थापित कर।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्द:- १, ३, १३ भुरिक्पंक्ति: । ९ पंक्तिः । २, ४,६,७ निचृत्त्रिष्टुप् । ५, १०, ११, १२ विराट् त्रिष्टुप् ॥ ८ त्रिष्टुप्॥ त्रयोदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    उभय वसु-प्राप्ति

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! हम (ते) = आपकी (नृतमाभिः ऊती नेतृतम) = अधिक से अधिक उन्नतिपथ पर ले चलनेवाली रक्षाओं के द्वारा (श्रीमतेभिः) = श्रोतव्य ज्ञानों व यशों के साथ (नृवत्) = उत्तम नरोंवाले (वामम्) = वननीय [सुन्दर] धन को (वंसीमहि) = प्राप्त करें। प्रभु से रक्षित हुएहुए हम पुरुषार्थ से धनों को प्राप्त करें। ये धन ज्ञान, यश व उत्तम वीर सन्तानों से युक्त हों । इन धनों के कारण हमारे जीवनों में विलास, अपयश व रोग न आ जाएँ। [२] हे (राजन्) = दीप्त प्रभो ! आप (उभयस्य) = पार्थिव व दिव्य दोनों (वस्वः ईक्षे) = धनों के ईश हैं। भौतिक धनों को भी तथा अध्यात्म धनों को भी आप ही धारण करते हैं। सो आप (महि) = महान्, (स्थूरम्) = विपुल तथा (बृहन्तम्) = गुणों से परिवृद्ध (रत्नम्) = रमणीय धन को (धाः) = हमारे में धारण करिये।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु से रक्षित होकर हम श्रोतव्य ज्ञानों के साथ वननीय धनों को प्राप्त हों । प्रभु भौतिक व अध्यात्म दोनों धनों को हमारे में धारण करें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. राजजनांनी व प्रजाजनांनी तसेच राजाने प्रयत्नपूर्वक प्रशंसित विद्या व धन सतत वाढवावे. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Lord of humanity, leader of world pioneers, illustrious ruling power, refulgent Indra, we pray may we share and enjoy your most human favour and protection and have the cherished graces of life with revelations of the Word and actions of holiness. O refulgent lord, I see your divine glory of both heaven and earth prevailing among rulers and the people, and pray sustain this glory of life, great, constant, expansive and infinite.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is again told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! (you are) giver of great wealth, by your protections which has many heroic persons. Like heroes, may we win wealth and share it with others by deeds of glory. By the noble words which are worth hearing, I see the wealth both belonging to the king and the people. Vouchsafe us riches (that are) vast, charming admirable, firm and great.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The king and his subjects should always acquire admirable knowledge and great wealth.

    Foot Notes

    (राजन्) विद्याविनयाभ्यां प्रकाशमान । राजुदीप्तौ (भ्वा०) = O king shining with knowledge and humility. (श्रोमतेभि:) श्रवणीयैर्वचनै:। — With good words that are worth hearing. (स्थरम्) स्थिरम्। ष्ठा-गतिनिव्रितौ।= Firm, steadfast.

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